प्रश्न - उत्तर



आप यहाँ पर टिपण्णी (Comments) के माध्यम से इस्लाम धर्म से सम्बंधित प्रश्न मालूम कर सकते हैं, अगर किसी को किसी प्रश्न का उत्तर मालूम हो तो वह उसका उत्तर भी दे सकता है. केवल वह प्रश्न ही प्रकाशित किए जाएंगे जिनकी भाषा सभ्य और संयमित होगी. विषय से हटकर की गई टिपण्णी को निरस्त कर दिया जाएगा.
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दोष केवल मीडिया का नहीं बल्कि हमारा भी है

केवल मीडिया को दोष देने से कुछ भी हासिल नहीं होगा, हो सकता है आपकी बात में कुछ सत्य हो, लेकिन पूरा सत्य है, ऐसा मैं नहीं मानता हूँ. चाहे जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, तिल को तो ताड़ बनाया जा सकता है, लेकिन बिना तिल के ताड़ बनाना असंभव है. एक मुसलमान होने के नाते हमारा यह फ़र्ज़ है की हम अपने अन्दर फैली बुराईयों को दूर करने की कोशिश करें. केवल यह सोच कर संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है कि दुसरे समुदायों के अनुयायियों के द्वारा भी तो वही कार्य किया जा रहा है. हमारी कोशिश स्वयं को तथा अपने समाज को बुराइयों के दलदल से बाहर निकलने की होनी चाहिए, जिससे ना केवल भारत वर्ष बल्कि पुरे विश्व में शान्ति स्थापित हो सके.

आज हम माने अथवा ना माने लेकिन किसी ना किसी स्तर पर अवश्य पडौसी देश के द्वारा चलाए जा रहे दुष्प्रचार अथवा बेरोज़गारी के कारण हमारे देश के नौजवान इंसानियत के दुश्मनों की चालों का शिकार हो रहे हैं. यह एक खुली किताब है कि देश के दुश्मन चाहे वह पडौसी हो अथवा अपने ही देश के तथाकथित राष्ट्रवादी, आम जनों को इनकी चालों को समझ कर उनका मुंह-तोड़ जवाब देना अति आवश्यक है. और ऐसा केवल और केवल आपसी सद्भाव तथा भाई-चारे से ही संभव है.

दूसरों पर ऊँगली उठाना थोडा आसान कार्य है, लेकिन अपने अन्दर की गंदगी को साफ़ करना थोडा मुश्किल कार्य.


शरीफ खान जी का लेख:
muslims and media भारत में मुसलमानों की छवि और मीडिया का चरित्र sharif khan
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कहत शाहनवाज़ सुनो भाई कबीरा

"कहत कबीरा" ब्लॉग के संजय गोस्वामी जी और भांडाफोडू ब्लॉग के शर्मा जी आप इस बार की तरह अक्सर ही इस्लाम धर्म के बारे में कुछ झूटी और मन-गढ़त कहानिया लाते हो और उसे कुरआन की आयतों से जोड़ने की नाकाम कोशिश करते हो. बात को घुमाने की जगह अगर आपके पास अपनी बात की दलील है तो उसे पेश करिए, ताकि सार्थक बात हो सके.

लोगों ने कुरआन के महत्त्व तथा उसकी रुतबे को लोगो के दिल से कम करने के इरादे से कुरआन को शायरी कहना शुरू कर दिया था जबकि कुरआन शायरी नहीं बल्कि ईश्वर (अल्लाह) का ज्ञान है. शायरी में अक्सर महिमा मंडन करने के इरादे से झूटी और फरेबी बातों का भी प्रयोग किया जाता है, जबकि कुरआन इन सब बातों से पाक है. इस पर ईश्वर ने कुरआन में फ़रमाया:-

[36:69] हमने उस (नबी) को शायरी नहीं सिखाई और ना वह उसके लिए शोभनीय है बल्कि वह तो केवल अनुस्मृति और स्पष्ट कुरआन है.

[36:70] ताकि वह उसे सचेत कर दे जो जीवंत हो और इनकार करने वालो पर बात सत्यापित हो जाए.

वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि इस्लाम में शयरी की बिलकुल भी मनाही नहीं है. बल्कि इकबाल जैसे शायरों के नाम के साथ रहमतुल्लाह (अल्लाह की रहमत) लगाया जाता है, और उन जैसे अनेकों शायरी की बहुत इज्ज़त होती है. अक्सर दिनी मदारिस में शायरी के जलसे भी आयोजित होते हैं. स्वयं रसूल अल्लाह मुहम्मद (स.) के सामने लोगों ने उनकी तारीफ़ में ना`त तथा अल्लाह की तारीफ में हम्द पढ़ी जो की शायरी की शक्ल में ही थे, जिस पर रसूल अल्लाह (स.) बेहद खुश हुए थे. और आज भी ना`त तथा हम्द पढ़े तथा लिखे जाते हैं. हाँ यह बात अवश्य है कि झूटी तारीफों और झूट के पुलिंदो के द्वारा गठित शायरी की अवश्य ही मनाही है और झूटी बातों के लिए मनाही हर धर्म में होती है.

आप क्यों लोगो को गलत और बिना दलील की बातों से गुमराह करने की कोशिश करते हैं?
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किसने कह दिया कि गैर मुसलमानों से दोस्ती मना है?

सलीम भाई! आपसे किसने कह दिया कि अल्लाह ने काफिरों से दोस्ती को मना फ़रमाया है? पहली बात तो यह कि काफिर कौन है, इसका निर्धारण आप कैसे करोगे? दिलों के राज़ तो केवल अल्लाह ही जानता है..... दूसरी बात अगर कोई अपने-आप को काफ़िर मानता भी है तब भी उसके साथ दोस्ती करने की मनाही हरगिज़ नहीं है. ईश्वर (अल्लाह) तो स्वयं कुरआन में फरमाता है कि वह अपने नाफरमान बन्दे से भी एक माँ से भी करोडो गुना ज्यादा मुहब्बत करता है. बिना यह देखे के कि वह उसे अपना ईश मानता है अथवा नहीं, यहाँ तक कि उसकी आखिरी साँस तक उसका इंतज़ार करता है. बल्कि तुम जिस तरफ इशारा कर रहे हो अगर तफसील से और पूरा पढोगे तो पता चलेगा कि वह आदेश उनके लिए थे जिन्होंने मुसलमानों पर हमला किया था, अर्थात जो मुसलमानों के दुश्मन थे और उनको अपने घरों से निकालने पर अमादा थे.

उपरोक्त बातें केवल मेरी नहीं हैं, बल्कि देखिये अल्लाह स्वयं कुरआन में आपकी बात का क्या जवाब देता है:

[60:8] अल्लाह तुम्हे इससे नहीं रोकता है कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और ना तुम्हे तुम्हारे अपने घर से निकाला. निस्संदेह अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है.

[60:9] अल्लाह तो तुम्हे केवल उन लोगो से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हे तुम्हारे अपने घरों से निकला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की. जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम हैं.


अब आप क्या कहेंगे?

कुछ लोग कम अक्ली अथवा नफरत में इस्लाम की बातों को बिना पुरे परिप्रेक्ष में देखे, आधी-अधूरी बातों से लोगो को गुमराह करते हैं तथा लोगों को इस्लाम से दुश्मनी पर आमादा करते हैं, आपके उपरोक्त लेख में भी उसी तरह की बातें हैं. आपको मेरी बातें शायद कडवी लगें लेकिन इत्मिनान से गौर करोगे तो इंशाल्लाह आसानी से समझ जाओगे.

रही बात त्योहारों की तो, आपसी संबंधो को सदृढ़ करने के लिए एक-दुसरे के त्योहारों में शिरकत करना मना नहीं होता है, केवल उन कार्यों को करना मना होता है जिनका सम्बन्ध शिर्क से होता है अर्थात ईश्वर (अल्लाह) के अलावा किसी और की पूजा (इबादत) करना अथवा उससे सम्बंधित कार्यों में शामिल होना.

मेरे विचार से आपको किसी आलिम (इस्लामिक विद्वान) से सलाह लेने की आवश्यकता है. आशा है सलाह पर गौर करोगे.





सलीम भाई, इस विषय से सम्बंधित "हमारी अंजुमन" पर मेरा लेख अवश्य पढ़ें:

गैर-मुसलमानों के साथ संबंधों के लिए इस्लाम के अनुसार दिशानिर्देश
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दिखावे के लिए क्यों गंवाना चाहते हैं "वन्दे मातरम"?

तारकेश्वर जी आपने यह बात सही लिखी है की केवल बोल देने से कुछ नहीं होता है, बेशक केवल बोल देने से कुछ नहीं होता है, लेकिन आप केवल बोल देने के लिए ही क्यों "वन्दे मातरम" गंवाना चाहते हैं? बहुत से मुसलमान इसी सोच को ध्यान में रखते हुए वन्दे मातरम बोलते हैं. लेकिन क्या केवल दिखाने के लिए इसे गाना धौखा नहीं है? आप जिसकी पूजा करते हैं, उनकी मैं इज्ज़त करूँ यह बात तो समझ में आती है, लेकिन जिनकी मैं पूजा नहीं करता, केवल अपने मित्रों को दिखाने अथवा महान कहलवाने के लिए दिखावे उनकी पूजा क्या सही कहलाई जा सकती है?

वैसे इस बहाने इस पर चर्चा की जाए तो यह एक अच्छा प्रयास कहा जाएगा. विचारों के आदान प्रदान से ही एक-दुसरे को समझने तथा एक-दुसरे के नजरिया को जानने का मौका मिलता है. मेरा यह विचार है कि किसी भी मुद्दे पर केवल अपनी सोच के हिसाब से धारणा बनाने की जगह जिन्हें ऐतराज़ है उनके नज़रिए से भी मुद्दे को देखना चाहिए. क्योंकि एक ही नज़रिए से देखने से किसी भी मसले का हल मुश्किल होता है.

'वन्दे मातरम' पर जो मुस्लिम समुदाय को जो एतराज़ है, उसमे सबसे पहली बात तो 'वन्दे' अर्थात 'वंदना' शब्द के अर्थ पर है. अक्सर इसका अर्थ 'पूजा' लगाया जाता है और आप सभी को यह पता होगा कि केवल एक ईश्वर की ही पूजा करने का नाम "इस्लाम" है यहाँ तक कि ईश्वर को छोड़ कर किसी और को पूज्य मानने वाला शख्स मुसलमान हो ही नहीं सकता है। इस्लाम के कलिमे "ला-इलाहा इलल्लाह" का मतलब ही यही है कि "नहीं है कोई पूज्य सिवा अल्लाह के"।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि ईश्वर के अलावा किसी और की प्रंशंसा भी नहीं की जा सकती है या प्रेम नहीं किया जा सकता. बेशक किसी भी अच्छी चीज़ की प्रशंसा करना अथवा प्रेम करना किसी भी धर्म में अपराध नहीं होता है. इससे पता चलता है कि मुसलमान धरती माँ की प्रशंसा तो कर सकते हैं, उससे अपार प्रेम तो कर सकते हैं लेकिन पूजा नहीं.
तो क्या किसी को उसके ईश के अलावा किसी और की पूजा करने के लिए बाध्य करना तर्क-सांगत कहलाया जा सकता है?

वैसे एक कटु सत्य यह भी है कि वन्देमातरम गाने भर से कोई देशप्रेमी नहीं होता है और देश के गद्दार वन्देमातरम गाकर देशप्रेमी नहीं बन सकते हैं. बंधू, आप मुसलमानों से क्या चाहते हैं? देश प्रेम या फिर वन्देमातरम? देश से प्यार देश की पूजा नहीं हो सकती है, और न ही देश की पूजा-अर्चना का मतलब देश से प्यार हो सकता है. हम अपनी माँ से प्यार करते हैं, परन्तु उस प्रेम को दर्शाने के लिए उनकी पूजा नहीं करते हैं. यह हमारी श्रद्धा नहीं है कि हम ईश्वर के सिवा किसी और को नमन करें, यहाँ तक कि माँ को भी नमन नहीं कर सकते हैं. जब कि ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा है कि अगर वह मनुष्यों में से किसी को नमन करने की अनुमति देता तो वह पुत्र के लिए अपनी माँ और पत्नी के लिए अपने पति को नमन करने की अनुमति देता. ईश्वर की पूजा ईश्वर के लिए ही विशिष्ट है और ईश्वर के सिवा किसी को भी इस विशिष्टता के साथ साझा नहीं किया जा सकता हैं, न ही अपने शब्दों से और न कामों से.

भारत वर्ष को अपना देश मानने के लिए मुझे कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती है 'वन्देमातरम' जैसे किसी गीत को गाने की. यह मेरा देश है क्योंकि मैं इसको प्रेम करता हूँ, यहाँ पैदा हुआ हूँ, और इसके कण-कण मेरी जीवन की यादें बसी हुई हैं. इसके दुश्मन के दांत खट्टे करने की मुझमे हिम्मत एवं जज्बा है. इसकी कामयाबी के गीत मैं गाता हूँ एवं पुरे तौर पर प्रयास भी करता हूँ. चाहे कोई मुझे गद्दार कहे, या मेरे समुदाय को गद्दार कहे, उससे मुझे कोई फरक नहीं पड़ता. क्योंकि यह मेरा देश है और किसी के कहने भर से कोई इसे मुझसे छीन नहीं सकता है.

रही बात उलेमा अर्थात (इस्लामिक शास्त्री) के द्वारा 'वन्दे मातरम' के खिलाफ फतवे की, तो यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि उलेमाओं का कार्य किसी भी प्रश्न पर इस्लाम के एतबार से सलाह देना है. और जब भी किसी क़ानूनी सलाह देने वाले से सलाह मांगी जाती है तो यह उसका फ़र्ज़ बनता है कि वह जिस परिप्रेक्ष में सलाह मांगी गई है, उसमें सही स्थिति के अनुसार उचित क़ानूनी सलाह दे. कोई भी उलेमा अपनी मर्ज़ी के एतबार से फतवा (अर्थात इस्लामिक कानूनों के हिसाब से सलाह) दे ही नहीं सकता है. और जितनी बार भी किसी मुद्दे पर प्रश्न किया जाता है तो उनका फ़र्ज़ है कि उतनी बार ही वह उक्त मुद्दे पर उचित सलाह (अर्थात फतवा) दें. वैसे उलेमा का कार्य सिर्फ शिक्षण देना भर है. उनको मानना या मानना इंसान की इच्छा है. अगर कोई उलेमा इसलाम की आत्मा के विरूद्व कुछ भी कहता है, तो उसकी बात का पालन करना भी धर्म विरुद्ध है.


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अच्छे कार्यो का स्वर्ग में क्या बदला मिलेगा?

अधिक अच्छी बात तो यह है कि अच्छे कार्यों के बदले में स्वर्ग की इच्छा की जगह ईश्वर को पाना ही मकसद होना चाहिए. जिसने स्वयं ईश्वर को पा लिया उसने सब कुछ पा लिया. यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे कि (उदहारण स्वरुप) एक राजा ने अपनी प्रजा में ऐलान किया कि बाज़ार सजाया जा रहा है, उसमें से कोई भी कुछ भी मुफ्त में ले सकता है. बस फिर क्या था, सब कुछ न कुछ लेने लगे. तभी एक महिला आई और उसने महाराज पर अपना हाथ रख दिया. सही भी है, जिसे राजा मिल गया उसे सभी कुछ मिल गया.

इसमें एक बात तो यह है कि परलोक में अच्छे कार्यों के बदले में जो मिलेगा वह ईश्वर का अहसान होगा, हमारा हक नहीं. और वहां सब उसके अहसान मंद होंगे, जैसे कि इसी धरती पर मनुष्यों को छोड़कर बाकी दूसरी जीव होते हैं.अक्सर सभी धर्मों के लोग परलोक की तुलना पृथ्वी लोक से करते हैं. अब क्योंकि मनुष्यों ने केवल पृथ्वी लोक के ही दर्शन किये हैं इसलिए इस लोक के ही उदहारण दिए जाते हैं, ताकि बात के महत्त्व को समझा जा सके. इस विषय में यह बात बहुत अहम् है कि परलोक का विधान अलग है इसलिए व्यवस्था भी अलग होगी. वहां किसी वस्तु की आवश्यकता इस धरती की तरह नहीं होगी, जैसे कि यहाँ जीवित रहने के लिए भोजन, जल एवं वायु की आवश्यकता होती है. ईश्वर कुरआन में कहता है कि (अर्थ की व्याख्या) उसने वहां का बंदोबस्त ऐसा किया है जिसको किसी आँख ने देखा नहीं होगा तथा जिसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं होगा. अर्थात परलोक की व्यवस्था हमारी सोच की पहुँच से बहुत दूर की बात है.

ईश्वर परलोक के बारे में कहता है कि:

और वहां तुम्हारे लिए वह सब कुछ होगा, जिसकी इच्छा तुम्हारे मन को होगी. और वहां तुम्हारे लिए वह सब कुछ होगा, जिसकी तुम मांग करोगे. [41:31-32]


पवित्र पैग़म्बर मुहम्मद (स.) ने फ़रमाया कि, "अल्लाह कहता है कि, मैंने अपने मानने वालो के लिए ऐसा बदला तैयार किया है जो किसी आँख ने देखा नहीं और कान ने सुना नहीं है. यहाँ तक कि इंसान का दिल कल्पना भी नहीं कर सकता है." (बुखारी 59:8)


पवित्र कुरआन भी ऐसे ही शब्दों में कहता है:

और कोई नहीं जानता है कि उनकी आँख की ताज़गी के लिए क्या छिपा हुआ है, जो कुछ अच्छे कार्य उन्होंने किएँ है यह उसका पुरस्कार है. (सुरा: अस-सज्दाह, 32:17)

स्वर्ग (जन्नत) के ईनाम महिलाओं और पुरुषों के लिए बराबर होंगे:
दूसरी बात यह है कि पृथ्वी की ही तरह स्वर्ग के ईनाम भी महिलाओं और पुरुषों के लिए एक जैसे हैं. वहाँ लिंग के आधार पर थोड़ा सा भी भेदभाव नहीं होगा. यह बात सुरा: अल-अह्जाब से स्पष्ट है:

मुस्लिम पुरुष और मुस्लिम स्त्रियाँ, ईमानवाले पुरुष और ईमानवाली स्त्रियाँ, निष्ठापूर्वक आज्ञापालन करने वाले पुरुष और आज्ञापालन करने वाली स्त्रियाँ, सत्यवादी पुरुष और सत्यवादी स्त्रियाँ, धैर्यवान पुरुष और धरी रखने वाली स्त्रियाँ, विनर्मता दिखाने वाले पुरुष और विनर्मता दिखाने वाली स्त्रियाँ, सदका (दान) देने वाले पुरुष और सदका देने वाली स्त्रियाँ, रोज़ा रखने वाले पुरुष और रोज़ा रखने वाली स्त्रियाँ, अपने गुप्तांगों की रक्षा करने वाले पुरुष और रक्षा करने वाली स्त्रियाँ और अल्लाह को अधिक याद करने वाले पुरुष और यद् करने वाली स्त्रियाँ - इनके लिए अल्लाह ने क्षमा और बड़ा प्रतिदान तैयार कर रखा है. [सुर: अल-अहज़ाब, 33:35]

दोनों को उसने ही बनाया है इसलिए वह दोनों का उनकी जरूरतों और इच्छाओं के अनुसार ध्यान रखेगा. अगर हम ईश्वर को प्राप्त करने के मकसद से कार्य करेंगे तो उसका वादा है की वह हमारी संतुष्टि के लिए इंतजाम करेगा.

क्या स्वर्ग में ७२ पत्नियाँ अथवा हूर मिलेंगी?

इसमें पहली बात तो यह कि "हूर" का मतलब संगी-साथी से है, जो कि महिला तथा पुरुष दोनों हो सकते इसमें कुछ लोग हूर नामक स्त्री साथी से विवाह करने का इच्छुक भी हो सकते हूर" अथवा "अप्सरा" पर विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें: शोभायमान आँखों वाली हूर!

बात अगर एक से अधिक पत्नी के अधिकार की करें तो चाहे पृथ्वी हो अथवा स्वर्ग, बहु विवाह विशेषाधिकार नहीं बल्कि विशेष परिस्थितियों में समाधान भर है. जैसा कि आप को अच्छी तरह से पता होगा कि प्रत्येक कानून में कुछ अपवाद भी होते हैं, और अपवाद कभी भी सिद्धांत नहीं कहलाए जा जाते हैं. कोई भी किसी देश के कानून के बारे में अपवाद को देखकर राय नहीं बना सकता है. अगर दुसरे शब्दों में कहें तो इस्लाम बहुविवाह के दरवाज़े सभी पुरुषों के लिए नहीं खोलता है.

इसका आसान सा मतलब यह है कि यह सुविधा केवल उन्ही लोगों के लिए होगी जो ऐसा चाहते हों. क्योंकि स्वयं ईश्वर ने वादा किया है कि महिलाऐं और पुरुष जो भी चाहेंगे, वह सबकुछ उन्हें मिलेगा. इसमें यह बात भी ध्यान देने वाली है वहां इस बात को कुबूल करने अथवा इंकार करने की विवशता नहीं होगी.


- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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बी एन शर्मा जी (भंडाफोडू) के सवालों का जवाब

बी एन शर्मा जी, आपने लिखा कि अल्लाह के इतना करीब होते हुए भी उसने मुहम्मद (स.) को केवल एक ही लड़का दिया और वह भी कुछ समय बाद मृत्यु को प्राप्त हो गया.

शर्मा जी, क्या ईश्वर के करीब होने और लड़का ना होने का कोई ताल्लुक है? क्या आपकी सोच यह है कि लड़का होना इतनी अच्छी बात है कि जो ईश्वर के करीब होगा उसके घर में लड़कों की भरमार होगी और जो ईश्वर से दूर होगा उसे ईश्वर लड़कियां देगा? आपकी इस सोच पर मुझे गुस्सा नहीं अपितु दया आ रही है. वैसे आपको बताता चलूँ कि मेरे खुदा ने मुझे (माशाल्लाह) दो-दो प्यारी-प्यारी बेटियां दी हैं और यह उस परम-परमेश्वर का मुझपर एहसान है.

आपने मुहम्मद (स.) के वंशजो पर दु:ख की और उनके शहीद होने पर सवाल उठाया, क्योंकि आपका मानना है कि अच्छे लोगों को दुःख नहीं मिलते जबकि हमारा मानना है कि ईश्वर हमेशा अच्छे लोगों को ही दुःख देखर उनकी परीक्षा लेता है कि वह इस हाल में भी ईश्वर का शुक्र अता करते हैं कि नहीं. वैसे परीक्षा उसी की ली जाती है जो इस काबिल होता है और दुःख: झेलकर भी ईश्वर का शुक्र अता करने वाले विरले ही होते हैं. और ऐसे ही विरलों का ज़िक्र आपने अपने लेख में किया है, जिसपर मैं आपका शुक्रगुज़ार हूँ.

आप जानना चाहते हैं कि ईश्वर ने अपने रसूल (संदेशवाहक) के वंशजो को शहीद होने से क्यों नहीं बचाया? आपके कहने का मतलब शायद यह है कि अगर कोई परम गुरु मुहम्मद (स.) जैसे महापुरुष के परिवार का सदस्य या उनका वंशज है तो ईश्वर को उनके लिए पृथ्वी के नियम बदल देने चाहिए? जबकि स्वयं ईश्वर कहता है कि वह मनुष्य पर नहीं अपितु उसके कार्यों पर नज़र डालकर फैसला करता है. रही बात युद्ध में मदद की तो उस ज़माने में ही नहीं बल्कि आज भी ईश्वर सत्य के साथ होता है. और अपने लोगों और अपनी धरती की रक्षा करने वालों की मदद करता है. शायद तुम्हे याद नहीं कि उसकी मदद से ही हमने पाकिस्तान को 4 बार युद्ध के मैदान में धुल चटाई है.

शर्मा जी, आपकी यह बात बिलकुल सही है कि किसी दुसरे मज़हब को मानने वाले अथवा शायरी करने वाले नर्क के वासी नहीं हो सकते हैं. नर्क में जाने का यह कोई कारण है ही नहीं, बल्कि ईश्वर ने कुरआन में कहा कि हमेशा हक का साथ दो चाहे हक बात कोई तुम्हारा दुश्मन ही क्यों ना करे. फिर शायरी तो बड़े-बड़े दीनदार लोगो ने की हैं. आपसे किसने कह दिया कि वह दोजखी हो जाएगा? हाँ अगर कोई ईश्वर अथवा उसके विधान की खुलेआम शब्दों अथवा शायरी के द्वारा खिलाफत करे और मौत तक उसको अपनी गलतियों का पछतावा ना हो तो अवश्य हो सकता है.

आपकी शिकायत है कि मुसलमान मुहम्मद (स.) के वंशजो के कातिलों को रज़िअल्लाहू कह कर आदर करते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है, जिन पर यह बात साबित है उनका आदार नहीं किया जाता है, बल्कि उन पर लानत भेजी जाती है, जैसा की यजीद. रही बात 'रज़िअल्लाहू' कहने की, तो ऐसा मुहम्मद (स.) के उन साथियों को कहा जाता है जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी में ईश्वर के आखिरी संदेशवाहक और मेरे परम गुरु मुहम्मद (स.) को ईमान की हालत में देखा और ईमान की हालत में ही मौत हो गई. अब आप ही बताइए किसी को कैसे पता कि किसकी मौत ईमान की हालत में हुई और किसकी नहीं? यह तो केवल ईश्वर ही जानता है. रही बात इमान की तो अगर किसी ने पूरी दुनिया के इंसानों को भी एक साथ क़त्ल किया हो, तथा उसे अपनी ज़िन्दगी में ही अपनी गलती का एहसास हो गया हो और उसने ईश्वर से अपनी गलतियों की माफ़ी मांग ली हो तो ईश्वर रहीम है और उसका वादा है कि वह उसके गुनाह को माफ़ कर देगा. हाँ यह बात अवश्य है कि जिन लोग के हक को मारा अर्थात जिनको क़त्ल किया वह लोग चाहेंगे तो अवश्य ही अपना हक अल्लाह (ईश्वर) की बारगाह में इन्साफ के दिन मांग ले लेंगे. अर्थात दुनिया में एक-दुसरे के हक माफ़ नहीं होंगे.

मसलन अगर किसी ने किसी से पैसे उधार लिए और नहीं लौटाए तो इन्साफ के दिन उसके बदले में उसे अपने सद्कर्म पैसे के बदले में देने होंगे. इसमें भी अगर उसको दुनिया में ही अपनी गलती का एहसास होगा गया लेकिन पैसे लौटने के लिए उसके पास बचे नहीं तो वह जिससे पैसे उधर लिए थे उससे वह पैसे माफ़ करने की बार-बार गुज़ारिश कर सकता है. और अगर उसने ऐसा किया और पैसे ना होने की वजह से नहीं लौटा पाया तो इन्साफ के दिन ईश्वर स्वयं अपनी तरफ से उधार देने वाले के दफ्तर में पैसे के बदले अच्छाइयां भर देगा.

- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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आत्मा क्या है?

सबसे पहले, हमें 'जीवन' और आत्मा (रूह) का भेद पता करना पड़ेगा। जीवन एक शक्ति है जो प्राणी को रहने के विभिन्न भागों में कार्य करने के योग्य बनाता है। जब तक शरीर में ''जीवन" (अर्थात ऊर्जा है), विभिन्न भाग काम कर सकते हैं। जब शरीर, ऊर्जा (अर्थात जीवन) को खो देता है (एक बैटरी की शक्ति की तरह), उसके सभी भाग कार्य करना बंद कर देते हैं, तब उसका शरीर मृत हो जाता है। मृत्यु का होना ऊर्जा का अभाव है, जिसके बिना शरीर कार्य नहीं कर सकता हैं। सभी प्राणियों (पशुओं और पौधों) को 'जीवन' या ऊर्जा प्राप्त है, जब तक कि उन में जीवन, ऊर्जा की अभिव्यक्ति के रूप में है। कुरआन की आयत (श्लोक) 15:29, 32:9 और 38:72 में निर्दिष्ट है कि रूह जीवन से अलग है।

[15:29] तो तब मैं उसे पूरा बना चुकुं और उसमें अपनी रूह (आत्मा) फुक दूँ तो तुम उसके आगे सजदे में गिर जाना!"

[32:9] फिर उसे ठीक-ठाक कर दिया और उसमें अपनी रूह (आत्मा) फूंकी. और तुम्हे कान और आँखे और दिल दिए. तुम आभारी थोड़े ही होते हो।

[38:72] तो जब मैं उसको ठीक-ठाक कर दूँ और उसमें अपनी रूह (आत्मा) फूँक दूँ, तो तुम उसके आगे सजदे में गिर जाना।"


आत्मा की विशेषता की वजह से फरिश्तो को हुक्म हुआ था कि वह आदम को सजदा करें। आदम के अलावा फ़रिश्ते सिर्फ अल्लाह को सजदा करते हैं - [16:49] और आकाशों और धरती में जितने भी जीवधारी हैं वे सब अल्लाह ही को सजदा करते हैं और फ़रिश्ते भी और वे घमंड बिलकुल नहीं करते। इससे पता चलता है कि आत्मा, ईश्वर के एक गुण का सार है, जब मनुष्य में साँस आई तो उसे फरिश्तो की श्रद्धा के योग्य बना दिया।

इसको ऐसे भी समझ सकते हैं, कि 'रूह' एक 'सॉफ्टवेयर' की तरह है, हम इसके प्रदर्शन को देख तो कर सकते हैं या अनुभव तो कर सकते हैं लेकिन शरीर (अर्थात हार्डवेयर) की तरह छू नहीं सकते।

- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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अधिकतर मान्यताओं के अनुसार इस्लाम में संगीत हराम है

अपने ब्लॉग महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर (Suresh Chiplunkar) जी ने एक लेख लिखा जो कि गुजरात के भरूच जिले में चल रहे एक रहत शिविर पर आधारित था.

"अरे?!!!… मोदी के गुजरात में ऐसा भी होता है? ...... Gujrat Riots, Relief Camp and NGOs in India"

जिस पर मेरा कमेंट्स था कि :
"चिपलूनकर साहब, संगीत इस्लाम में हराम है और अगर इस्लामिक शरियत के हिसाब से इकट्ठे लोगो के खून पसीने से कमाए हुए पैसे से किसी की मदद की जाती है तो क्या उस पैसे का प्रयोग ग़ैर-इस्लामी तरीके से हो सकता है? मैं स्वयं भी ज़कात देता हूँ, लेकिन कभी भी ऐसी जगह ज़कात नहीं दे सकता हूँ जहाँ ग़ैर-इस्लामी कार्य होते हों. वैसे मैं तो हमेशा शिक्षण संस्थानों में ही अपनी ज़कात देता हूँ.



हाँ ज़बरदस्ती टोपी पहनना या दाढ़ी रखवाने बिलकुल ही गलत कार्य है, इसकी निंदा अवश्य ही होनी चाहिए. क्योंकि ऐसे कार्य मनुष्य और प्रभु के प्रेम पर आधारित होते हैं, इस तरह के कार्यों पर ज़बरदस्ती की इजाज़त शरियत कानून में भी नहीं होती है. ऐसा कानून शरियत का नहीं अपितु तालिबान का ही हो सकता है.

और रही शरियत कानून की बात तो मुसलमान शरियत के तहत ही अपनी ज़िन्दगी बसर करते हैं. बार-बार क्यों यह बात लिख कर कि इन पर शरियत कानून लागु कर दो, आप लोग शरियत कानून का हौव्वा खड़ा करते हैं?
हमने तो स्वयं अपने ऊपर शरियत कानून लागु कर रखा है. क्या आपको पता भी है कि शरियत कानून क्या है? या सिर्फ तालिबानी कानूनों को शरियत कानून मान कर बैठे हैं?
 
इस पर सुरेश जी ने दो प्रश्न लिखे:
@ शाहनवाज़ - आपने कहा कि
1) "संगीत इस्लाम में हराम है"

इसे साबित करने के लिये हदीस या कुरान का कोई पैराग्राफ़ बतायें, कि इस्लाम में संगीत क्यों हराम है?, कैसे हराम है? इन बातों की डीटेल्स, मोहम्मद रफ़ी, नौशाद से लेकर एआर रहमान तक सभी मुस्लिम संगीतकारों-गायकों को ध्यान में रखकर दीजिये… या तो यहाँ टिप्पणी करके मेरा (सबका) ज्ञान बढ़ाईये या आपकी अंजुमन पर एक विस्तृत पोस्ट लिखिये…।


2) आपने कहा कि - "रही शरियत कानून की बात तो मुसलमान शरियत के तहत ही अपनी ज़िन्दगी बसर करते हैं"

 
क्या दाऊद इब्राहीम, अबू सलेम, अब्दुल करीम तेलगी, अजमल कसाब और अफ़ज़ल गुरु भी शरीयत के अनुसार जीवन-यापन करते हैं? यदि हां तो कैसे और यदि नहीं, तो इन लोगों पर शरीयत के अनुसार सजा मुकर्रर की जाये, क्या आप सहमत हैं?


मेरे उपरोक्त दोनो "नादान" सवालों के जवाब अवश्य दीजियेगा, आपको न पता हों तो अपने "गुरुजी" से पूछकर ही दीजियेगा, लेकिन पूरे विस्तार से दीजियेगा, ताकि हमें भी तो पता चले।


इसमें पहली बात तो यह कि गाना इस्लाम में प्रतिबंधित नहीं है, मुसलमान ना`त (मुहम्मद स. की तारीफ़) इत्यादि जैसे गीत गाते हैं. लेकिन कई प्रकार के संगीत है जो कुरान और हदीस (मुहम्मद स. की बताई हुई बातें) के द्वारा निषिद्ध है, जैसे कि मनोरंजन के लिए बजने वाला संगीत. लेकिन "सभी प्रकार के संगीत निषिद्ध हैं" इस विषय पर इस्लामिक विद्वानों की अलग-अलग राय हैं. इसलिए इस विषय पर बहस करना अनुचित है.

शैख़-अल-इस्लाम इब्न-तय्मियाह (रह.) ने फ़रमाया: "चारों इमामों (सुन्नी इमाम) का नजरिया संगीत के प्रति यह है कि हर तरह के संगीत का यंत्र हराम है. किसी भी इमाम अथवा उनके शिष्यों में संगीत से सम्बंधित मामले में कोई विरोधाभास नहीं है." (अल-मजमू, 11/576).

अल-अल्बानी (रह.) ने फ़रमाया: "इस्लाम के चारों मज़हब इस बात पर सहमत हैं, कि संगीत का सारे यंत्र हराम हैं. (अल-सहीहः, 1/145).
 
उपरोक्त उदहारण से यह पता चलता है कि इस्लाम में अधिकतर लोग संगीत को हराम (निषिद्ध) मानते हैं. परन्तु कौन क्या मानता है, यह आस्था का प्रश्न है. आप किसी को भी अच्छी बातें बता तो सकते हैं, परन्तु वह माने अथवा नहीं इसका फैसला तो उक्त व्यक्ति पर ही निर्भर होना चाहिए. मेरा धर्म किसी पर भी ज़बरदस्ती की इजाज़त नहीं देता है. क्योंकि धर्म का रिश्ता आस्था से है और आस्था पर केवल और केवल ह्रदय का ही वश चलता है.

अगर कोई यह मानता है कि इस्लाम में संगीत हराम है, तो वह अपने खून-पसीने की कमाई में से दी गई ज़कात को ऐसे कार्यों अथवा ऐसी जगह पर लगते हुए नहीं देख सकता है, जहाँ संगीत के प्रयोग जैसे बड़े धार्मिक नियमों का उल्लंघन होता हो.  इसमें एक बात और महत्वपूर्ण है, कि ज़कात और मदद में फर्क होता है. मदद की कोई कम या अधिक सीमा नहीं होती है, जबकि ज़कात अर्थात अपनी बचत में से 2.5 प्रतिशत देना हर एक के लिए आवश्यक होता है. जहाँ मदद किसी को भी कुछ भी देखे बिना दी जा सकती है, वहीँ ज़कात पूरी तरह छान-बीन करके ही दी जाती है, कि वह सही और आवश्यकता की जगह पहुँच रही है अथवा नहीं. इसमें यह भी देखना आवश्यक होता है कि जो व्यक्ति ज़कात मांग रहा है वह इसका हक़दार है भी अथवा नहीं, कहीं ऐसा तो नहीं कि वह खुद अपनी आजीविका चलाने का सामर्थ्य रखता हो तथा जो सामर्थ्य नहीं रखते उनका हक मार रहा हो. ऐसा पाए जाने पर उतने हिस्से की ज़कात दुबारा दिया जाना आवश्यक है.

अब ऐसे में ज़कात के पैसे से चलने वाले किसी 'शिविर' में अगर कोई व्यक्ति किसी प्रतिबंधित कार्य को करता है तो यह बिलकुल ऐसा है जैसे कोई मांसाहार को अनुचित समझने वाला व्यक्ति गरीब लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था करे और भोजन ग्रहण करने वाले लोग मांसाहार की मांग करें और कहें कि हमारे देश में मांसाहार की इजाज़त है. तो क्या उनकी मांग उचित होगी???

रही बात मौहम्मद रफ़ी अथवा ए. आर. रहमान अथवा इन जैसे गायकों अथवा संगीतकारों की तो में किसी भी मनुष्य के ऊपर उसके कार्यों के द्वारा कमेंट्स नहीं कर सकता हूँ. वैसे भी केवल संगीत का प्रयोग करने भर से कोई इस्लाम से बाहर नहीं हो जाता है. इस्लाम से बाहर केवल वही हो सकता है जो कि ईश्वर को ना माने एवं उसके आदेशो को अपनी अक्ल से गलत ठहराए. और यह भी आवश्यक नहीं कि इंसान खुले-आम ईश्वर को मानने का ऐलान करे. इसलिए दुनिया में कौन काफिर है, यह तो केवल ईश्वर ही जानता है. इसलिए कुरआन में उसने दूसरों को काफ़िर बोलने से मना फ़रमाया है.

लेकिन किसी भी धार्मिक संस्था को उसके धर्म के अनुरूप राहत शिविर चलाने कि आज्ञा अवश्य होनी चाहिए. मेरा एक मित्र पास के ही एक वैदिक आश्रम में योग शिविर में हिस्सा लेने के लिए गया, परन्तु वहां उसको एक फॉर्म दिया गया जिसमें लिखा था कि वह अपनी इच्छा से 'ॐ' शब्द का उच्चारण तथा सूर्य नमस्कार करेगा, जिस पर उसको एतराज़ हुआ. हालाँकि उपरोक्त आश्रम को हमारी सरकार से भी अनुदान मिलता है, फिर भी मेरी उस मित्र को सलाह यही थी, कि उक्त आश्रम को अपने धर्म के हिसाब से 'योग शिविर' चलने का पूरा हक है. अगर तुम्हे उसके नियम पसंद नहीं आते हैं, तो उसमे हिस्सा लेने की कोई आवश्यकता नहीं है, परन्तु उसका विरोध करना अनुचित है.

फिर सबसे बड़ी बात तो यह है, कि जिस लोगो का आपने ज़िक्र किया वह एक शरणार्थी शिविर में रह रहे हैं, जहाँ पैसे की कमी की वजह से बहुत सी आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध नहीं होंगी. ऐसे में अपने थोड़े से पैसो को जीवन के लिए बहुत सी आवश्यक वस्तुओं पर खर्च करने की जगह टी.वी. जैसी वस्तुओं पर खर्च करना कोई अक्लमंदी का काम नहीं है. पैसे को बचा कर जल्द से जल्द ऐसे शिविरों की जगह अपने स्वयं के खर्च से अपने रहने का इंतजाम करना क्या अधिक अकलमंदी का कार्य नहीं है?

बात अगर दाऊद इब्राहीम, अबू सलेम, अब्दुल करीम तेलगी, अजमल कसाब और अफ़ज़ल गुरु जैसे अपराधियों एवं मानवता के दुश्मनों के बारे में की जाए है तो इनको अवश्य ही सख्त से सख्त सजा होनी चाहिए. अगर यह शरियत के तहत ज़िन्दगी बसर करते तो यह इतने जघंन्य अपराध करते ही नहीं. माननिये सुरेश जी, कृपया करके तालिबानी कानूनों को शरियत का कानून मानने की गलती नहीं करें.

अंत में एक बात कहना अति-आवश्यक है, सुरेश जी मेरे प्यारे वतन के निवासी होने के नाते मेरे भाई हैं तथा मुझसे बड़े होने के नाते उनकी इज्ज़त करना मेरा धर्म है. इसलिए अगर कहीं भी, कुछ भी गलत लिख दिया हो तो क्षमा का प्रार्थी हूँ और चाहता हूँ कि वह अवश्य ही मेरी गलती को मेरे संज्ञान में लाएं.

-शाहनवाज़ सिद्दीकी
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फौज़िया जी को मेंरा सलाम!

फौज़िया जी को मेंरा सलाम! आपने जिस तरह मर्दो की बुराईयों के खिलाफ आवाज़ उठाई, वह वाकई में काबिले-तारीफ है। और मर्दो में अक्सर होने वाली इन बुराईयों का विरोध अवश्य ही होना चाहिए। अब तक औरतें निरक्षरता की वजह से बेवकूफ बनती आई हैं और अक्सर मर्द अपने अहम के कारण उनको पैर की जूती समझते आए है। यह एक अमानवीय व्यवहार है और इसको बर्दाश्त करने वाले हम जैसे लोग भी इसके लिए उतने ही ज़िम्मेदार हैं जितने इस तरह की सोच रखने वाले अन्य मर्द।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं की कोई भी धर्म उनको ऐसा करने की इजाज़त देता है। दरअसल सारा मसला शुरू होता है अपने-अपने हिसाब से धर्मग्रन्थों की गई व्याख्याओं से। दुनिया को बेवकूफ बनाने के इरादे से कुछ धर्मगुरू चाहते ही नहीं थे कि धर्मग्रन्थों की शिक्षा आम हो ताकि उनकी दुकानें चलती रहें। लेकिन जिस तरह शिक्षा आम हुई और लोगो ने धर्मग्रन्थो को भी समझने की कोशिश शुरू की तो इन तथाकथित मुल्ला-पंडितो के अधकचरे ज्ञान भी सामने आने लगे। अगर ध्यान से देखा जाए और सही संक्षेप में समझा जाए तो सारी की सारी मिथ्या एवं भ्रामक बातें स्वतः समाप्त हो सकती हैं।

इस्लाम में पाक अथवा पाकी (पवित्रता) का सबसे अधिक महत्त्व है, यहां तक की इसको आधा ईमान बताया गया है। लेकिन यह पाकी आमतौर पर प्रयोग में आने वाले शब्द ‘पवित्र’ से कुछ अलग है, यहां ‘पाक’ का अर्थ शारीरिक स्वच्छता से है। जैसे कोई भी मर्द अथवा औरत अगर मल-मूत्र त्याग करने के बाद शरीर के संबधित हिस्से को पानी से अच्छी तरह से नहीं धोता है और गंदगी उसके शरीर में लगी रह जाती है तो वह शरीर उस समय पूजा के लायक नहीं होता है (हाँ अगर पानी उपलब्ध ही ना हो तो अलग बात है), इसी तरह औरत और मर्द दोनों के कुछ ‘पल’ नापाकी के होते हैं और नहाने के बाद ही पूजा करने की इजाज़त होती है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की औरत या मर्द तब अपवित्र हो जाते हैं, उन पलों में सामान्यतः प्रभु को याद करने तथा उसकी उपासना करने की पूरी इजाज़त होती है, केवल उन कार्यो की मनाही होती है जिन्हे करने के लिए स्वच्छता अतिआवश्यक होती है। और इसकी वजह कुछ शारीरिक बदलाव होने के कारण होने वाली अस्वच्छता के अलावा और कुछ भी नही होता, इसलिए इसे अन्यथा ना लेकर सामान्य प्रक्रिया समझना चाहिए।

नापाकी के समय औरत को अछूत समझना बेवकूफी ही नहीं बल्कि जाहिलियत है। ऐसे समय में तो औरत को और भी अधिक अपनों के साथ की आवश्यकता होती है। इस्लाम के मुताबिक जब औरत किसी बच्चे को जन्म देती है तो उस पर जन्नत (स्वर्ग) वाजिब (आवश्यक) हो जाती है। इसे एक औरत का दूसरा जन्म समझना चाहिए, क्योंकि औरत मौत के मूंह से वापिस आती है।


इस तरह की किसी भी बात से कोई भी औरत अथवा मर्द नापाक नहीं होता है और इसके लिए खुद को पानी की छींटों से पाक करने की कोई भी आवश्यकता नही होती है। यह तो कतई जाहिलियत की बात है और अगर कहीं ऐसा होता है तो हमें जमकर इसका विरोध करना चाहिए। इस्लाम की बुनियादी बातों में से एक यह भी है कि जिस कार्य के लिए अल्लाह का हुक्म नहीं है, उसे इस्लाम के नाम पर करने की सख्त मनाही है।

ईश्वर के लिए मर्द और औरत बराबर है और दोनो ही से उसने जीवन यापन के तरीको का हिसाब लेना है। दोनो के साथ एक जैसा ही इंसाफ होना है, यहां तक कि फेल और पास का फल भी दोनो के लिए एक जैसा है। स्वर्ग का आशीर्वाद महिलाओं और पुरुषों के लिए एक जैसा हैं] वहाँ दो लिंग के बीच एक छोटा सा भी अंतर नहीं है। यह सुरा: अल-अह्जाब से स्पष्ट है:

मुस्लिम पुरुष और मुस्लिम स्त्रियाँ, ईमानवाले पुरुष और ईमानवाली स्त्रियाँ, निष्ठापूर्वक आज्ञापालन करने वाले पुरुष और आज्ञापालन करने वाली स्त्रियाँ, सत्यवादी पुरुष और सत्यवादी स्त्रियाँ, धैर्यवान पुरुष और धैर्य रखने वाली स्त्रियाँ, विनर्मता दिखाने वाले पुरुष और विनर्मता दिखाने वाली स्त्रियाँ, सदका (दान) देने वाले पुरुष और सदका (दान) देने वाली स्त्रियाँ, रोज़ा रखने वाले पुरुष और रोज़ा रखने वाली स्त्रियाँ, अपने गुप्तांगों की रक्षा करने वाले पुरुष और रक्षा करने वाली स्त्रियाँ और अल्लाह को अधिक याद करने वाले पुरुष और याद करने वाली स्त्रियाँ - इनके लिए अल्लाह ने क्षमा और बड़ा प्रतिदान तैयार कर रखा है [सुर: अल-अहज़ाब, 33:35]

जहां तक बात हूर की है तो यह जानना आवश्यक है कि हूर शब्द का प्रयोग औरत और मर्द दोनो के लिए किया गया है, हूर शब्द का अर्थ शोभयमान आँखे वाला/वाली है (विस्तृत जानकारी के लिए मेंरा लेख शोभयमान आँखे वाली हूर’ पढें). शब्द हूर, अहवार (एक आदमी के लिए) और हौरा (एक औरत के लिए) का बहुवचन है। इसका मतलब ऐसे इंसान से हैं जिसकी आँखों को "हवार" शब्द से संज्ञा दी गयी है। जिसका मतलब है ऐसी आंखे जिसकी सफेदी अत्यधिक सफ़ेद और काला रंग अत्यधिक काला हो। शब्द अहवार (हूर का एकवचन) शुद्ध या शुद्ध ज्ञान का भी प्रतीक है। और स्वर्ग में औरत और मर्द दोनो को ही हूरे मिलने का वादा है तो इसका अर्थ नौकर, साथी अथवा मित्र इत्यादि हो सकता है। जहां तक स्वर्ग में अनछूई हूरों की बात है तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उनके साथ सहवास के लिए प्रेरित किया गया है। इसका अर्थ है जिन्हे दुनिया की किसी आँख ने कभी नहीं देखा और जो अपने मालिक / मित्र / साथी के प्रति वफादार हैं। और मेरे विचार में औरत और मर्द का एक दूसरे के प्रति वफादार होना कोई बुरा काम नहीं है, बल्कि यह तो मज़बूत रिश्ते की बुनियाद है।

- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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धर्म वही है जिसकी बातें हर युग में प्रासंगिक हों वर्ना वह साधारण ज्ञान है

प्रवीण जी ने कहा:

सभी धर्मों के धर्मग्रंथों में बहुत सी ऐसी बातें लिखी गई या बताई गई हैं जो उस युग के मनुष्य की अवैज्ञानिक धारणाओं, सीमित सोच, सीमित ज्ञान (या अज्ञान), तत्कालीन देश-काल की परिस्थितियों व लेखक के अपने अनुभवों या मजबूरियों पर आधारित हैं, आज के युग में इन मध्य युगीन या उससे भी प्राचीन बातों की कोई प्रासंगिकता या उपयोग नहीं रहा, यह सब बातें आज आदमी की कौम को जाहिलियत व वैमनस्य की ओर धकेल रही हैं व इन सब बातों को आप बेबुनियाद-बेकार-बकवास की श्रेणी में रख सकते हैं और अब समय आ गया है कि धर्माचार्यों को अपने अपने ग्रंथों की विस्तृत समीक्षा कर इन बातों को Disown कर देना चाहिये। "


प्रवीण जी मैं आपकी बातों से बिलकुल सहमत नहीं हूँ.  जो ज्ञान हर युग में प्रासंगिक हों वही तो धर्म है वर्ना वह साधारण ज्ञान कहलाता है. धर्म एक ईश्वरीय ज्ञान होता है और ईश्वर का ज्ञान सदा के लिए होता है. यह तो मनुष्य का ज्ञान है, जो एक अरसे बाद गलत साबित हो जाता है. ईश्वर का ज्ञान तो वही है जो कभी गलत साबित हो ही ना पाए. यह तो हो सकता है कि कोई धार्मिक बात हमारे समझ में ना आए, परन्तु यह नहीं हो सकता कि ईश्वरीय बात गलत हो जाए. इसलिए अगर कोई बात समझ में ना आए तो यह सोचना कि वह बात ही गलत है और यह सोच कर ज्ञानी पुरुषों से प्रश्न ही ना करना बेवकूफी है. इसलिए हर धर्म में कहा गया है कि ज्ञान का प्राप्त करना मनुष्य का फ़र्ज़ है.

धर्मग्रंथो में लिखी गई बाते अगर आज के युग के लिय अप्रासंगिक होती, तो आज भी वैज्ञानिक उनको खागालने में नहीं लगे होते? आज पूरी दुनिया योग की तरफ भाग रही है, अध्यात्म की और लौट रही है. पुरे विश्व में वह लोग जो किसी खुदा को नहीं मानते थे, आज आस्तिक बन रहे हैं. तो इसके पीछे हमारे धर्माचार्यों की मेहनत और उनकी मेहनत के फलस्वरूप ईश्वर की ओर से दिया हुआ ज्ञान ही है. बस ज़रूरत है उस ज्ञान को आत्मसात करने की.

अगर आप विज्ञान को देखोगे तो पाओगे कि कितनी ही बातें धार्मिक ग्रंथो से ली गई हैं. जो बातें अबसे हजारों वर्ष पहले महापुरुष लोगो को बता कर गए, आज जाकर विज्ञान उनको सिद्ध कर रहा है. आखिर कहाँ से उन महापुरुषों के पास इतना ज्ञान आया? आज अगर इन्टरनेट पर सर्च करोगे तो हजारों ऐसी रिसर्च मिल जाएंगी, क्या वह सब की सब गलत हैं?

आप कह रहे हैं कि धार्मिक बातें इन्सान को जाहिलियत और वैमनस्य की ओर धकेल रही हैं, और मेरा दावा है कि सिर्फ और सिर्फ धार्मिक बातें ही इंसान को जाहिलियत और वैमनस्य से रोक सकती हैं. यह जो जाहिलियत और वैमनस्य फ़ैलाने वाले लोग हैं, असल में यह अपने धर्म का पालन करने वाले लोग है ही नहीं, बल्कि धर्म का इस्तेमाल करने वाले लोग हैं. इन्हें आप धर्म के व्यापारी कह सकते हैं, जो कि अपने फायदे के लिए धार्मिक ग्रंथो को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं. मेरा मानना है कि इन लोगो को हलके में नहीं लेना चाहिए, यह पूरी एक मुहीम है और इसके पीछे कोई बहुत बड़ा संगठन काम कर रहा है.

जिसका मकसद अपना उल्लू सीधा करने के लिए लोगो को बेवक़ूफ़ बनाना हो सकता है. क्योंकि वह लोग जानते हैं, कि जिन्हें अपने धर्म के बारे में जानकारी नहीं है, उन्हें ही बेवक़ूफ़ बनाया जा सकता है. और इस समस्या से निजात पाने का तरीका भी यही है, कि पुराने ढर्रे पर ना चलकर लोगों को जागरूक बनाया जाए. धर्म की सही शिक्षाओं को सामने लाया जाए, ताकि अन्धकार दूर हो.

या फिर यह भी हो सकता है कि कैसे लोगो को उनके धर्म से दूर ले जाया जाए. ज़रा सोचिये क्यों नहीं पश्चिम के धर्मों के बारे में गलत बातें सामने आती? क्यों सिर्फ हमें ही निशाना बनाया जाता है?

रही बात समीक्षा की तो लोगो के द्वारा की जा रही अनावश्यक समीक्षा की वजह से ही तो सारा फसाद फ़ैल रहा है. मेरे विचार से तो समीक्षा उसकी की जानी चाहिए है जिसकी कोई बात गलत साबित हो.
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ब्लॉग निरस्त करवाने की धमकियाँ!

ब्लॉग "प्रेम रस" के लेख "एक-दूसरे के धर्म, आस्था अथवा लेखों की आलोचनाओं में व्यतीत होता समय" पर कुछ लोगों ने मुझे मेरा ब्लॉग निरस्त होने की धमकी दी!

उन लोगो को तो मैंने जवाब दे दिया. पर मैं आप लोगो से मालूम करना चाहता हूँ कि क्या गलतियाँ केवल एक तरफ से हो रही है? क्या चुप-चाप कमेंट्स करने वाले लोग वहीँ हैं जिन्हें आप सोच रहे हैं? यह भी तो हो सकता है, कि उनकी जगह एक-दुसरे को लड़वाने वाले लोग ऐसे कमेंट्स कर रहे हों?

मेरे ब्लॉग पर धमकी देने वालो को मेरा जवाब:
"आपने मेरा गैंग तो बता दिया, चलते-चलते अपना गैंग भी बता देते? वैसे यह गैंग-वैंग की सोच आप जैसों की हो सकती है.

वैसे आपको बताता चलूँ, कि मैं पक्का मुल्ला (एक इस्लामिक डिग्री धारक) तो नहीं हाँ पक्का मुसलमान अवश्य हूँ. और एक मुसलमान होने पर मुझे पूरा गर्व है, बिलकुल ऐसे ही जैसे किसी को भी अपने धर्म पर गर्व होता है.

रही बात ब्लॉग निरस्त होने की, तो यह धमकी किसी ओर को दीजियेगा, यहाँ ना तो धमकियों से डरने वाले लोग हैं और ना धमकियों के बदले में दूषित भाषा का प्रयोग करने वाले. वैसे आप हैं कौन धमकी देने वाले?

चलिए मैं आपको ही चैलेंज दिए देता हूँ, मेरा एक भी लेख अथवा टिप्पणी को ढूंड कर दिखा दीजिये, जिससे किसी की भी भावना आहत हुई है? है दम?


किसी की भावनाओं को नुक्सान पहुँचाना ना तो मेरे संस्कारों में है और ना ही मेरे धर्म के शिक्षाओं में. उलटे दूसरों की भावनाओ का ख्याल रखने की शिक्षा दी है मेरे गुरु मुहम्मद (स.) ने. विश्वास नहीं होता है तो "हमारी अंजुमन" में पब्लिश हुआ मेरा लेख पढ़कर देखिये, जहाँ सिर्फ लफ्फेबाज़ी नहीं बल्कि बल्कि सबूतों के साथ बातें हैं.

"गैर-मुसलमानों के साथ संबंधों के लिए इस्लाम के अनुसार दिशानिर्देश"

Wednesday, April 14, 2010


हमें विस्तार से पता होना चाहिए कि इस्लाम के अनुसार मुसलमानों को गैर-मुसलमानों के साथ कैसे संबंध रखने चाहिए और कैसे उनके साथ इस्लामी शरी'अह के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए?


सब तारीफें अल्लाह के ही लिए हैं.
पहली बात तो यह कि इस्लाम दया और न्याय का धर्म है. इस्लाम के लिए इस्लाम के अलावा अगर कोई और शब्द इसकी पूरी व्याख्या कर सकता है तो वह है न्याय".

मुसलमानों को आदेश है कि ग़ैर-मुसलमानों को ज्ञान, सुंदर उपदेश तथा बेहतर ढंग से वार्तालाप से बुलाओ.  ईश्वर कुरआन में कहता है (अर्थ की व्याख्या):


[29: 46] और किताबवालों से बस उत्तम रीति से वाद-विवाद करो - रहे वे लोग जो उनमे ज़ालिम हैं, उनकी बात दूसरी है. और कहो: "हम ईमान लाए उस चीज़ पर जो हमारी और अवतरित हुई और तुम्हारी और भी अवतरित हुई. और हमारा पूज्य और तुम्हारा पूज्य अकेला ही है और हम उसी के आज्ञाकारी हैं."

[9:6] और यदि मुशरिकों (जो ईश्वर के साथ किसी और को भी ईश्वर अथवा शक्ति मानते हैं) में से कोई तुमसे शरण मांगे, तो तुम उसे शरण दे दो, यहाँ तक कि वह अल्लाह की वाणी सुन ले. फिर उसे उसके सुरक्षित स्थान पर पंहुचा दो; क्यों वे ऐसे लोग हैं, जिन्हें ज्ञान नहीं है.

इस्लाम यह अनुमति नहीं देता है कि एक मुसलमान किसी भी परिस्थिति में किसी गैर-मुस्लिम (जो इस्लाम के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार नहीं करता) के साथ बुरा व्यवहार करे. इसलिए मुसलमानों को किसी ग़ैर-मुस्लिम के खिलाफ आक्रमण की, या डराने की, या आतंकित करने, या उसकी संपत्ति गबन करने की, या उसे उसके सामान के अधिकार से वंचित करने की, या उसके ऊपर अविश्वास करने की, या उसे उसकी मजदूरी देने से इनकार करने की, या उनके माल की कीमत अपने पास रोकने की जबकि उनका माल खरीदा जाए. या अगर साझेदारी में व्यापार है तो उसके मुनाफे को रोकने की अनुमति नहीं है.

इस्लाम के अनुसार यह मुसलमानों पर अनिवार्य है गैर मुस्लिम पार्टी के साथ किया करार या संधियों का सम्मान करें. एक मुसलमान अगर किसी देश में जाने की अनुमति चाहने के लिए नियमों का पालन करने पर सहमत है (जैसा कि वीसा इत्यादि के समय) और उसने पालन करने का वादा कर लिया है, तब उसके लिए यह अनुमति नहीं है कि उक्त देश में शरारत करे, किसी को धोखा दे, चोरी करे, किसी को जान से मार दे अथवा किसी भी तरह की विनाशकारी कार्रवाई करे. इस तरह के किसी भी कृत्य की अनुमति इस्लाम में बिलकुल नहीं है.

जहाँ तक प्यार और नफरत की बात है, मुसलमानों का स्वाभाव ग़ैर-मुसलमानों के लिए उनके कार्यो के अनुरूप अलग-अलग होता है. अगर वह ईश्वर की आराधना करते हैं और उसके साथ किसी और को ईश्वर अथवा शक्ति नहीं मानते तो इस्लाम उनके साथ प्रेम के साथ रहने का हुक्म देता है. और अगर वह किसी और को ईश्वर का साझी मानते हैं, या ईश्वर पर विश्वास नहीं करते, या धर्म के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं और ईश्वर की सच्चाई से नफरत करते है, तो ऐसा करने के कारणवश उनके लिए दिल में नफरत का भाव आना व्यवहारिक है.

[अल-शूरा 42:15, अर्थ की व्याख्या]:
"और मुझे तुम्हारे साथ न्याय का हुक्म है. हमारे और आपके प्रभु एक ही है. हमारे साथ हमारे कर्म हैं और आपके साथ आपके कर्म."

इस्लाम यह अनुमति अवश्य देता  है कि अगर ग़ैर-मुस्लिम मुसलमानों के खिलाफ युद्ध का एलान करें, उनको उनके घर से बेदखल कर दें अथवा इस तरह का कार्य करने वालो की मदद करें, तो ऐसी हालत में मुसलमानों को अनुमति है ऐसा करने वालो के साथ युद्ध करे और उनकी संपत्ति जब्त करें.

[60:8] अल्लाह तुम्हे इससे नहीं रोकता है कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और ना तुम्हे तुम्हारे अपने घर से निकाला. निस्संदेह अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है.

[60:9] अल्लाह तो तुम्हे केवल उन लोगो से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हे तुम्हारे अपने घरों से निकला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की. जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम हैं.


क्या इस्लाम काफिरों का क़त्ल करने का हुक्म देता है?

कुछ लोग इस्लाम के बारे में भ्रान्तिया फ़ैलाने के लिए कहते हैं, कि इस्लाम में गैर-मुसलमानों को क़त्ल करने का हुक्म है. इस baren में ईश्वर के अंतिम संदेष्ठा, महापुरुष मौहम्मद (स.) की कुछ बातें लिख रहा हूँ, इन्हें पढ़ कर फैसला आप स्वयं कर सकते हैं:

"जो ईश्वर और आखिरी दिन (क़यामत के दिन) पर विश्वास रखता है, उसे हर हाल में अपने मेहमानों का सम्मान करना चाहिए, अपने पड़ोसियों को परेशानी नहीं पहुंचानी चाहिए और हमेशा अच्छी बातें बोलनी चाहिए अथवा चुप रहना चाहिए." (Bukhari, Muslim)


"जिसने मुस्लिम राष्ट्र में किसी ग़ैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, उसने मुझे ठेस पहुंचाई." (Bukhari)

"जिसने एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, मैं उसका विरोधी हूँ और मैं न्याय के दिन उसका विरोधी होउंगा." (Bukhari)

"न्याय के दिन से डरो; मैं स्वयं उसके खिलाफ शिकायतकर्ता रहूँगा जो एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के साथ गलत करेगा या उसपर उसकी जिम्मेदारी उठाने की ताकत से अधिक जिम्मेदारी डालेगा अथवा उसकी किसी भी चीज़ से उसे वंचित करेगा." (Al-Mawardi)

"अगर कोई किसी गैर-मुस्लिम की हत्या करता है, जो कि मुसलमानों का सहयोगी था, तो उसे स्वर्ग तो क्या स्वर्ग की खुशबू को सूंघना तक नसीब नहीं होगा." (Bukhari).



एवं पवित्र कुरआन में ईश्वर कहता है कि:

इसी कारण हमने इसराईल की सन्तान के लिए लिख दिया था, कि जिसने किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या धरती में फ़साद फैलाने के के जुर्म के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे ही इंसानों की हत्या कर डाली। और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो सारे इंसानों को जीवन प्रदान किया। उनके पास हमारे रसूल (संदेशवाहक) स्पष्‍ट प्रमाण ला चुके हैं, फिर भी उनमें बहुत-से लोग धरती में ज़्यादतियाँ करनेवाले ही हैं [5:32]

- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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डॉ. अनवर जमाल साहब अब बहुत हो गया - शाहनवाज़ सिद्दीकी

आखिर कब तक उकसावे में आकर अपनी उर्जा को बर्बाद करते रहोगे! जैसे लेखन का प्रयोग आपने अपनी पुस्तक "दयानंद जी ने क्या खोया क्या पाया" में किया था, अपनी प्रतिभा को वैसे ही प्रयोग करिए, ताकि लोगो ने जो इस्लाम के बारे में मिथ्या प्रचार फैला रखा है, उसका अंत हो. वैसे भी इंसान को हमेशा मधुर वाणी  का प्रयोग करना चाहिए, कटु- वाणी के प्रयोग से कभी भी बात के महत्त्व का पता नहीं चलता है. कुछ लोग आपको विषाक्त विषयों में उलझाए रखना चाहते हैं, इन लोगो का मकसद ही यह हो सकता है की आपको झगड़ो में उलझाए रखा जा सके. मेरे विचार से तो आपको हिन्दू-मुस्लिम एकता पर लिखना चाहिए, क्योंकि प्रेम और शांति से बढ़कर विश्व में कोई भी विषय नहीं हो सकता है. आपके ब्लॉग का नाम वेद और कुरआन है, तो क्यों ना इन दोनों धर्मों के ग्रंथो के बीच यक्सू (एक जैसी) बातों को दुनिया के सामने लाया जाए.

मेरा भी यही मानना है, की सबसे पुराना धर्म सनातन धर्म ही है. यह धर्म आदम (अ.) के धरती पर पैदा होने के समय से चला आ रहा है. इस्लाम कोई नया धर्म नहीं अपितु वही पुराना सनातन धर्म ही है.

इस्लाम कभी भी इस बात की इजाज़त नहीं देता है, कि किसी के भी मज़हब के बारे में उल्टा-सीधा लिखा जाए. इस्लाम तो शांति और भाई-चारे का सन्देश देता है. मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ, कि यहाँ लोग दोगले सिधांत पर चलते हैं, जब कोई कुरआन के बारें में गलत बातें लिखता हैं, (जिन का कोई सर-पैर भी नहीं होता) तो वही लोग वहां जाकर उस लेख की तारीफों में कसीदे पढ़ते हैं. परन्तु जब कोई हिन्दू धर्म के बारे में लिखता है, तो लोग धमकियां देने लगते हैं.

फिरदौस बहन क्या आपने कभी इन लोगो के खिलाफ भी आवाज़ उठाने का प्रयास किया है? जब अमित शर्मा ने श्लोको का उल्लेख करते हुए ऐसे भाष्य का प्रयोग किया जिसे स्वयं हिन्दू समाज स्वीकार नहीं करता (अर्थात स्वामी दयानंद जी द्वारा रचित वेदों का भाष्य) तो आप स्वयं वहां जाकर उनकी तारीफ करती है, लेकिन जब तारकेश्वर जी, अमित शर्मा जी और चिपलूनकर जी जैसे महानुभव स्वयं कुरआन के बारे में लिखे गए उलटे-सीधे लेखों का समर्थन करते हैं, तब आपकी कलम क्यों रुक जाती है?

वैसे आपके और डॉ. अनवर जमाल के लेखों में फर्क क्या है? आप इस्लाम कि तत्कथित कुरीतियों के बारें में लिख रही है और वह हिन्दू धर्म की. मेरे विचार से तो दोनों ही गलत हैं. होना तो यह चाहिए, कि अगर हमें लगता है कि समाज में कोई गलत बात चल रही है, तो समाज के सामने सही बात को पेश किया जाए. उधाहरणत: अगर आपको लगता है, कि बुरखा इस्लाम की प्रथा नहीं है, तो आपको कुरआन या हदीस का उदहारण पेश करके लोगो को शिक्षित करने का प्रयास करना चाहिए था. जैसा कि मेरे विचार से इस्लाम दुसरे धर्म का पालन करने वालो के साथ क्षत्रुता नहीं अपितु मित्रता और इन्साफ का व्यवहार करने का हुक्म देता है, तो मैंने कुरआन-ए-करीम और हदीसों का हवाला देते हुए लेख लिखा. "गैर-मुसलमानों के साथ संबंधों के लिए इस्लाम के अनुसार दिशानिर्देश"

जब अंजुम शेख ने आपसे कुछ सवाल किये तो आपने उन सवालों का जवाब देने कि जगह उसके होने पर ही सवाल खड़ा कर दिया. हालाँकि उसके होने या न होने से समाज का कोई ताल्लुक ही नहीं था, आपके सामने किसी ने सवाल लिखे थे तो आपका फ़र्ज़ था कि उनके प्रश्नों का उत्तर अगर आपके पास है तो लिखा जाए. वैसे उनके सवालों का जवाब आपके पास होगा भी नहीं, क्योंकि उनके सवाल एकदम जायज़ है. मानता हूँ कि औरतों के साथ गलत व्यवहार होता है, उनके ऊपर ज़बरदस्ती धर्म को थोपा जाता है, परन्तु आप अगर उस ज़बरदस्ती का विरोध करती और यह मुहीम चलाती कि "ज़बरदस्ती पर्दा गलत है" या औरतों के साथ ज़बरदस्ती कोई भी कार्य नहीं होना चाहिए" तो मैं स्वयं ही नहीं अपितु सारा शिक्षित मुस्लिम समाज आपका तहे-दिल से समर्थन करता. परन्तु आप तो स्वयं किसी देश की उस ज़बरदस्ती का समर्थन कर रही थी, जो कि स्वयं एक औरत को ज़बरदस्ती उसके धर्म को मानने से रोक रही थी, क्या यह सही था?

अंत में फिर से डॉ. अनवर जमाल से गुज़ारिश करता हूँ, कि अपनी प्रतिभा को बेकार की बहस में ज़ाया करने की जगह उचित जगह पर और समाज और देश का भला करने में लगाएं. और यही अनुरोध फिरदौस बहन से भी है कि चाटुकारों की बातों में आने की जगह मुस्लिम समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने कि कोशिश करें. पर इसके लिए पहले समस्या का अध्यन करके उसका हल बताना आवश्यक है


- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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जीवन का उद्देश्य क्या है?

एक ज्ञान वह है जो मनुष्य की आवश्यकताओं से सम्बंधित होता है, जिसे दुनिया का ज्ञान कहते हैं. इसके लिए ईश्वर ने कोई संदेशवाहक नहीं भेजा, बल्कि वह ज्ञान ईश्वर ने मस्तिष्क में पहले से सुरक्षित कर दिया है. जब किसी चीज़ की आवश्यकता होती है तो मनुष्य मेहनत करता है, उस पर रास्ते खुलते चले जाते हैं.

एक ज्ञान यह है जो जीवन के मकसद से सम्बंधित है कि "मनुष्य दुनिया में आया क्यों है?" अब यह स्वयं दुनिया में आया होता तो इसे मालूम होता कि वह क्यों आया है. अगर मनुष्य ने अपने आप को स्वयं बनाया होता तो इसे मालूम होता कि इसके बनने का मकसद क्या है? हम जब कहीं भी जाते हैं, तो हमारा वहां जाने का मकसद होता है, और हमें पता होता है कि हम वहां क्यों जा रहे हैं. ना तो मनुष्य स्वयं आया है और ना इसने अपने आप को स्वयं बनाया है. ना यह अपनी मर्ज़ी से अपना समय लेकर आया है और ना अपनी मर्ज़ी से अपनी शक्ल-सूरत लेकर आया है. पुरुष, पुरुष बना किसी और के चाहने से, महिला, महिला बनी किसी और के चाहने से. रंग-रूप, खानदान, परिवार, यानि जो भी मिला है इस सबका फैसला तो कहीं और से हुआ है. जीवन का समय तो किसी और ने तय किया हुआ है, वह कौन है यह सबसे पहला ज्ञान था.

खाना कैसे बनाना है, यह धीरे-धीरे अपने आप ही पता चल गया मनुष्य को. फसलें कैसे उगानी है, उद्योग कैसे चलने हैं, इसके लिए कोई संदेशवाहक नहीं भेजा ईश्वर ने. मनुष्य सोचता रहा, ईश्वर रहनुमाई करता रहा. यह ज्ञान भी ईश्वर ही देता है. बेशुमार, बल्कि अक्सर जो भी खोजें हुई वह अपने आप ही हो गई . इंसान कुछ और खोज रहा था, और कुछ और मिल गया. इस तरह वह ज्ञान भी ईश्वर ने ही दिया है.

लेकिन मेरे मित्रों, इंसान सारी ज़िन्दगी भी कोशिश करता रहे तो यह पता नहीं लगा सकता है कि मैं कहा से आया हूँ? मुझे किसने भेजा है? मुझे किसने पैदा किया है? यह मुझे मारता कौन है? मैं तो स्वास्थ्य से सम्बंधित हर बात पर अमल कर रहा था, फिर यह दिल का दौरा कैसे पड़ गया? और मैंने तो सुरक्षा के सारे बंदोबस्त कर रखे थे, फिर यह साँस किसने खींच ली? जीती जागती देह का अंत कैसे हो गया? यह वो प्रश्न है जिसका उत्तर इंसान के पास नहीं है, ना ही इसके मस्तिष्क में है. किसी इंसानी किताब में भी इसका उत्तर नहीं मिल सकता. यह वह प्रश्न है जिसका उत्तर बाहर से मिलता है. गाडी कैसे बनानी है इसका ज्ञान इंसान के अन्दर था, जो धीरे-धीरे बाहर आगया. एक मशहूर कहावत है कि "आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है". जब कार का आविष्कार हुआ तो उसकी शक्ल आज के घोड़े-तांगे जैसी थी, बनते-बनते आज इसकी शक्ल कैसी बन गई? करोडो रूपये की गाड़ियाँ भी बाज़ार में है. यह ऐसा ज्ञान है जो दिमाग में पहले से ही मौजूद है, इंसान मेहनत करता रहता है, उसको राहें मिलती रहती हैं.

लेकिन कुछ प्रश्न है, जिनका उत्तर मनुष्य के पास नहीं है. जैसे कि, मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? कहाँ जाऊंगा? किसने भेजा है? क्यों मरते हैं? मृत्यु के बाद क्या है? मृत्यु स्वयं क्या चीज़ है? मृत्यु के बारे में विज्ञानं की किताबों में 200 से भी अधिक उत्तर लिखे हुए हैं, सारे ही गलत हैं.

यह सबसे पहला ज्ञान यह है, कि मुझे भेजने वाला कौन है? मुझे क्यों भेजा गया है? अगर कोई इस प्रश्न में मात खा गया तो वह बहुत बड़े नुक्सान का शिकार हो जाएगा. ईश्वर ने इस प्रश्न का उत्तर बताने के लिए सवा लाख संदेशवाहकों को भेजा. उन्होंने आकर बताया कि हमारा पैदा करने वाला ईश्वर है, और उसने हमें एक मकसद देकर भेजा है, जीवन ईश्वर देता है और मौत ईश्वर लाता  है, इंसान गंदे पानी से बना है और इससे पहले मिटटी से बना है. ईश्वर ने अपने संदेशवाहकों के ज़रिये बताया कि दुनिया परीक्षा की जगह हैं. यहाँ हर एक को अपने हिसाब से जीवन को यापन करने का हक है क्योंकि इसी जीवन के हिसाब से परलोक में स्वर्ग और नरक का फैसला होना है. हाँ यह बात अवश्य है, कि समाज सुचारू रूप से चलता रहे और किसी को किसी की वजह से परेशानी ना हो, इसलिए दुनिया का कानून भी बनाया.

ईश्वर ने मनुष्यों को दुनिया में भेजने से पहले स्वर्ग और नरक बनाये, तब सभी आत्माओं से आलम-ए-अरवा (आत्माओं के लोक) में मालूम किया क्या वह ईश्वर को ईश्वर मानते हैं, तो सभी ने एक सुर में कहा हाँ.

Imam Junayd, radiya'llahu anhu, said that Allah, subhanahu wa ta'ala, gathered before the creation of the world all of the spirits, all the arwah, and said, Qur'an 7:172:
Alastu bi-Rabbikum? (Am I not your Lord?)
They said, "We testify that indeed You are!"

[7:172] Recall that your Lord summoned all the descendants of Adam, and had them bear witness for themselves: "Am I not your Lord?" They all said, "Yes. We bear witness." Thus, you cannot say on the Day of Resurrection, "We were not aware of this."

तब ईश्वर ने कहा ऐसे नहीं, अपितु वह दुनिया में भेज कर परीक्षा लेगा कि कौन उसके बताये हुए रास्ते पर चलता है और कौन नहीं. ताकि कोई भी ईश्वर पर यह दोष न लगा सके की उसके साथ अन्याय हुआ. परीक्षा में सबको पता चल जायेगा की कौन फेल होगा और कौन पास, इसमें कुछ आंशिक रूप से भी फेल हो सकते हैं और कुछ पूर्ण रूप से भी फेल हो सकते हैं.

इसमें यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि ईश्वर किसी नियम के तहत बाध्यकारी नहीं हैं, चाहे वह नियम स्वयं उसने ही बनाये हों. लेकिन उसने कहा है कि न्याय के दिन वह सबके साथ न्याय करेगा, किसी के साथ अन्याय नहीं होगा. इसलिए जिसने भी उसको ईश्वर माना था (जबकि वह आत्मा के रूप में था, और आत्माओं के लोक का निवासी था), तो ईश्वर की वाणी के अनुरूप वह अगर उसको इस पृथ्वी में भी ईश्वर मानता है और अच्छे कर्म करता है, तो स्वर्ग का वासी होगा, अन्यथा नरक का वासी होगा.

ईश्वर ने सेहत एवं बीमारी, अमीर एवं गरीब तो सिर्फ परीक्षा लेने के लिए बनाये हैं ताकि पता चल सके कि अमीर और गरीब के लिए जो नियम बनाये हैं उन पर खरा उतरता है या नहीं. उदहारण: अमीर व्यक्ति ने पैसे सही कार्यों को करके कमाए हैं या गलत कार्यों द्वारा? उनको सही कार्यों में खर्च करता है या बुराई के कार्यो में? ईश्वर का धन्यवाद करता है या या कहता है कि "यह पैसा तो मैंने अपनी चतुराई से कमाया, इसमें ईश्वर से क्या लेना-देना?" वहीँ अगर कोई गरीब है तब भी ईश्वर देखता है कि यह इस हाल के लिए भी ईश्वर का धन्यवाद करता है या नहीं? मेहनत और इमानदारी से पैसा कमाने कि कोशिश करता है या फिर बुरे कार्यो के द्वारा अपनी आजीविका चलने की कोशिश करता है, इत्यादि....

ईश्वर बीमारियाँ देता है कि व्यक्ति उसको (यानि ईश्वर को) पहचान सके कि सेहत और बीमारी दोनों ईश्वर के हाथ में हैं. वह जब चाहता है सेहत देता है जब चाहता है बीमारी. वही, वह बिमारियों के बदले में पापो को क्षमा कर देता है. यहाँ परीक्षा होती है कि बीमार व्यक्ति यह कहता है कि "हे ईश्वर, इस हाल में भी तेरा शुक्र है!", या फिर यह कहता है "हाय! हाय! कैसा निर्दयी ईश्वर है जिसने मुझे इस परेशानी में डाल दिया?". अगर कोई यह समझता हैं कि अमीर के लिए दुनिया में ही स्वर्ग है, तो यह उसकी ग़लतफ़हमी है. पैसे मिलने या गरीब होने भर से कभी सुख नहीं मिल सकता, अपितु सुख और शांति तो ईश्वर के ही हाथ में हैं. जितने भी संत पुरुष और ऋषि-मुनि गुज़रे हैं, अधिकतर ने माया के त्याग में सुख-शांति की प्राप्ति की है.

हालाँकि ईश्वर तो स्वयं जानता है की कौन कैसा है, उसे परीक्षा लेने की ज़रूरत नहीं है. परीक्षा तो वह इसलिए लेता है कि कोई उसपर यह आरोप या आक्षेप न लगा सके कि उसे तो मौका ही नहीं मिला, वर्ना वह तो ज़रूर उसके बताये हुए रस्ते पर चलता. क्योंकि ईश्वर को साक्षात् अपने सामने पा कर तो कोई भी उससे इनकार नहीं करेगा. परीक्षा तो यही है कि उसकी निशानियों (जैसे की उसकी प्रकृति, ताकत एवं सूचनाओं) पर ध्यान लगा कर उसको अपना ईश मानता है या फिर अपने आप को बड़ा समझता है, या फिर शैतान की बातो में आकर शैतान को ही अपना पालने वाला मानने लगता है.

इसीलिए ही ईश्वर समय-समय पर एवं पृथ्वी के हर कोने में महापुरुषों को अपना संदेशवाहक बना कर भेजता है, जैसे कि श्री इब्राहीम (अ.), श्री नुह (अ.), श्री शीश (अ.) इत्यादि. बहुत से इस्लामिक विद्वान यह मानते हैं कि इस क्रम में श्री राम और श्री कृष्ण जैसे महापुरुष भी शामिल हो सकते हैं. शीश (अ.) का जन्म अयोध्या में बताया जाता है और अक्सर विद्वान इस बात पर विश्वास करते हैं, कि श्री नुह (अ.) ही मनु हैं. नुह और मनु की कहानी में बहुत सी समानताएं भी पाई जाती हैं.

ईश्वर ने आखिर में प्यारे महापुरुष मुहम्मद (उन पर शांति हो) को भेजा और उनके साथ अपनी वाणी कुरआन को भेजा. कुरआन में ईश्वर ने कहा कि उसने इस पृथ्वी पर एक लाख और 25 हज़ार के आस-पास संदेशवाहकों को भेजा है, जिसमे से कई को अपनी पुस्तक (अर्थात ज्ञान और नियम) के साथ भेजा है. लेकिन कुछ स्वार्थी लोगो ने केवल कुछ पैसे या फिर अपनी प्रिसिद्धि के कारणवश उन पुस्तकों में से काफी श्लोकों को बदल दिया. तब ईश्वर ने कुरआन के रूप में अपनी वाणी को आखिरी संदेशवाहक मुहम्मद (उन पर शांति हो) के पास भेजा और क्योंकि वह आखिरी दूत थे और कुरआन को ईश्वर ने अंतिम दिन तक के लिए बनाया था इसलिए यह ज़िम्मेदारी ईश्वर ने स्वयं अपने ऊपर ली कि इस पुस्तक में धरती के अंतिम दिन तक कोई बदलाव नहीं कर पायेगा.

इसके अलावा इंसानों को खुली चेतावनी भी दी कि अगर तुम्हे यह लगता है कि यह पुस्तक स्वयं मुहम्मद (उन पर शांति हो) ने लिखी है अर्थात किसी इंसान के द्वारा लिखी गयी है, तो ऐसी पुस्तक तुम भी लिख कर दिखा दो, अगर लिख पाए तो समझना कि यह पुस्तक (अर्थात कुरआन) किसी इंसान ने लिखी है अन्यथा मान लेना कि यह खुद परम परमेश्वर ने लिखी है और यह किताब पहले भेजी गयी किताबो को सही भी कहती है.


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गैर-मुसलमानों के साथ संबंधों के लिए इस्लाम के अनुसार दिशानिर्देश

हमें विस्तार से पता होना चाहिए कि इस्लाम के अनुसार मुसलमानों को गैर-मुसलमानों के साथ कैसे संबंध रखने चाहिए और कैसे उनके साथ इस्लामी शरी'अह के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए?


सब तारीफें अल्लाह के ही लिए हैं.
पहली बात तो यह कि इस्लाम दया और न्याय का धर्म है. इस्लाम के लिए इस्लाम के अलावा अगर कोई और शब्द इसकी पूरी व्याख्या कर सकता है तो वह है न्याय".

मुसलमानों को आदेश है कि ग़ैर-मुसलमानों को ज्ञान, सुंदर उपदेश तथा बेहतर ढंग से वार्तालाप से बुलाओ.  ईश्वर कुरआन में कहता है (अर्थ की व्याख्या):


[29: 46] और किताबवालों से बस उत्तम रीति से वाद-विवाद करो - रहे वे लोग जो उनमे ज़ालिम हैं, उनकी बात दूसरी है. और कहो: "हम ईमान लाए उस चीज़ पर जो हमारी और अवतरित हुई और तुम्हारी और भी अवतरित हुई. और हमारा पूज्य और तुम्हारा पूज्य अकेला ही है और हम उसी के आज्ञाकारी हैं."

[9:6] और यदि मुशरिकों (जो ईश्वर के साथ किसी और को भी ईश्वर अथवा शक्ति मानते हैं) में से कोई तुमसे शरण मांगे, तो तुम उसे शरण दे दो, यहाँ तक कि वह अल्लाह की वाणी सुन ले. फिर उसे उसके सुरक्षित स्थान पर पंहुचा दो; क्यों वे ऐसे लोग हैं, जिन्हें ज्ञान नहीं है.

इस्लाम यह अनुमति नहीं देता है कि एक मुसलमान किसी भी परिस्थिति में किसी गैर-मुस्लिम (जो इस्लाम के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार नहीं करता) के साथ बुरा व्यवहार करे. इसलिए मुसलमानों को किसी ग़ैर-मुस्लिम के खिलाफ आक्रमण की, या डराने की, या आतंकित करने, या उसकी संपत्ति गबन करने की, या उसे उसके सामान के अधिकार से वंचित करने की, या उसके ऊपर अविश्वास करने की, या उसे उसकी मजदूरी देने से इनकार करने की, या उनके माल की कीमत अपने पास रोकने की जबकि उनका माल खरीदा जाए. या अगर साझेदारी में व्यापार है तो उसके मुनाफे को रोकने की अनुमति नहीं है.

इस्लाम के अनुसार यह मुसलमानों पर अनिवार्य है गैर मुस्लिम पार्टी के साथ किया करार या संधियों का सम्मान करें. एक मुसलमान अगर किसी देश में जाने की अनुमति चाहने के लिए नियमों का पालन करने पर सहमत है (जैसा कि वीसा इत्यादि के समय) और उसने पालन करने का वादा कर लिया है, तब उसके लिए यह अनुमति नहीं है कि उक्त देश में शरारत करे, किसी को धोखा दे, चोरी करे, किसी को जान से मार दे अथवा किसी भी तरह की विनाशकारी कार्रवाई करे. इस तरह के किसी भी कृत्य की अनुमति इस्लाम में बिलकुल नहीं है.


[अल-शूरा 42:15, अर्थ की व्याख्या]:
"और मुझे तुम्हारे साथ न्याय का हुक्म है. हमारे और आपके प्रभु एक ही है. हमारे साथ हमारे कर्म हैं और आपके साथ आपके कर्म."

इस्लाम यह अनुमति अवश्य देता  है कि अगर ग़ैर-मुस्लिम मुसलमानों के खिलाफ युद्ध का एलान करें, उनको उनके घर से बेदखल कर दें अथवा इस तरह का कार्य करने वालो की मदद करें, तो ऐसी हालत में मुसलमानों को अनुमति है ऐसा करने वालो के साथ युद्ध करे और उनकी संपत्ति जब्त करें.

[60:8] अल्लाह तुम्हे इससे नहीं रोकता है कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और ना तुम्हे तुम्हारे अपने घर से निकाला. निस्संदेह अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है.

[60:9] अल्लाह तो तुम्हे केवल उन लोगो से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हे तुम्हारे अपने घरों से निकला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की. जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम हैं.


क्या इस्लाम काफिरों का क़त्ल करने का हुक्म देता है?

कुछ लोग इस्लाम के बारे में भ्रान्तिया फ़ैलाने के लिए कहते हैं, कि इस्लाम में गैर-मुसलमानों को क़त्ल करने का हुक्म है. इस baren में ईश्वर के अंतिम संदेष्ठा, महापुरुष मौहम्मद (स.) की कुछ बातें लिख रहा हूँ, इन्हें पढ़ कर फैसला आप स्वयं कर सकते हैं:

"जो ईश्वर और आखिरी दिन (क़यामत के दिन) पर विश्वास रखता है, उसे हर हाल में अपने मेहमानों का सम्मान करना चाहिए, अपने पड़ोसियों को परेशानी नहीं पहुंचानी चाहिए और हमेशा अच्छी बातें बोलनी चाहिए अथवा चुप रहना चाहिए." (Bukhari, Muslim)


"जिसने मुस्लिम राष्ट्र में किसी ग़ैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, उसने मुझे ठेस पहुंचाई." (Bukhari)

"जिसने एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, मैं उसका विरोधी हूँ और मैं न्याय के दिन उसका विरोधी होउंगा." (Bukhari)

"न्याय के दिन से डरो; मैं स्वयं उसके खिलाफ शिकायतकर्ता रहूँगा जो एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के साथ गलत करेगा या उसपर उसकी जिम्मेदारी उठाने की ताकत से अधिक जिम्मेदारी डालेगा अथवा उसकी किसी भी चीज़ से उसे वंचित करेगा." (Al-Mawardi)

"अगर कोई किसी गैर-मुस्लिम की हत्या करता है, जो कि मुसलमानों का सहयोगी था, तो उसे स्वर्ग तो क्या स्वर्ग की खुशबू को सूंघना तक नसीब नहीं होगा." (Bukhari).



एवं पवित्र कुरआन में ईश्वर कहता है कि:

इसी कारण हमने इसराईल की सन्तान के लिए लिख दिया था, कि जिसने किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या धरती में फ़साद फैलाने के के जुर्म के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे ही इंसानों की हत्या कर डाली। और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो सारे इंसानों को जीवन प्रदान किया। उनके पास हमारे रसूल (संदेशवाहक) स्पष्‍ट प्रमाण ला चुके हैं, फिर भी उनमें बहुत-से लोग धरती में ज़्यादतियाँ करनेवाले ही हैं [5:32]

- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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क्या धरती पहाडो की वजह से टिकी है?

वैज्ञानिक पर्वतों के महत्व को समझाते हुए कहते हैं कि यह पृथ्वी को स्थिर रखने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं:


'पर्वतों में अंतर्निहित जड़ें होती है. यह जड़ें गहरी मैदान में घुसी हुई होती हैं, अर्थात, पर्वतों का आकार खूंटो अथवा कीलों की तरह होता है. पृथ्वी की पपड़ी 30 से 60 किलोमीटर गहरी है, यह seismograph (स्वचालित रूप से तीव्रता, दिशा रिकॉर्डिंग और जमीन की हलचल की अवधि बताने वाले उपकरण) से ज्ञात होता है. इसके अलावा इस मशीन से यह ज्ञात होता है कि हर एक पर्वत में एक अंतर्निहित जड़ होती है, जो अपनी अंतर्निहित परतों की वजह से पृथ्वी की पपड़ी को स्थिर बनाती है, और पृथ्वी को हिलने से रोकता है. अर्थात, एक कील के समान है, जो लकड़ी के विभिन्न टुकड़ों को एकजुट रखे हुए है.


ईश्वर कुरआन में कहता है:

क्या ऐसा नहीं है कि हमने धरती को बिछौना बनाया और पहाडो को खूंटे? [78:6-7]

"Have We not made the earth as a wide expanse. And the mountains as pegs?" [The Holy Qur'an, Chapter 78, Verse 6-7]

- शाहनवाज़ सिद्दीकी



Isostacy: mountain masses deflect a pendulum away from the vertical, but not as much as might be expected. In the diagram, the vertical position is shown by (a); if the mountain were simply a load resting on a uniform crust, it ought to be deflected to (c). However because it has a deep of relatively non-dense rocks, the observed deflection is only to (b). Picture courtesy of Building Planet Earth, Cattermole pg. 35
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क्या कुरआन के अनुसार पृथ्वी गोल नहीं समतल है?

कुछ लोगो को लगता है कि कुरआन के अनुसार पृथ्वी समतल है जबकि  कुरआन की एक भी आयत यह नहीं कहती है कि पृथ्वी समतल (फ्लैट) है. कुरआन केवल एक कालीन के साथ पृथ्वी की पपड़ी की तुलना करता है. कुछ लोगों को लगता है की कालीन को केवल एक निरपेक्ष समतल सतह पर ही रखा जा सकता हैं. लेकिन ऐसा नहीं है, किसी कालीन को पृथ्वी जैसे किसी बड़े क्षेत्र पर फैलाया जा सकता है. पृथ्वी के एक विशाल मॉडल को किसी कालीन से साथ  ढक कर आसानी से इस बात को समझा  जा सकता है.

वही है जिसने तुम्हारे लिए धरती को पालना (बिछौना) बनाया और उसमें तुम्हारे लिए रास्ते निकाले और आकाश से पानी उतरा. फिर हमने उसके द्वारा विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे निकाले [कुरआन 20:53].


कालीन को आम तौर पर किसी ऐसी सतह पर पर डाला जाता है, जो चलने mein  बहुत आरामदायक नहीं होती है. पवित्र कुरआन तार्किक आधार पर एक कालीन के रूप में पृथ्वी की पपड़ी का वर्णन करता है, जिसके  नीचे गर्म तरल पदार्थ हैं एवं  जिसके बिना मनुष्य के लिए प्रतिकूल वातावरण में जीवित रहना सक्षम नहीं होता. कुरआन का यह ज्ञान भूवैज्ञानिकों के द्वारा सदियों की खोज के बाद उल्लेख किया गया एक वैज्ञानिक तथ्य भी है.

इसी तरह, कुरआन के कई श्लोक कहते है कि पृथ्वी को फैलाया गया है.

और धरती को हमने बिछाया, तो हम क्या ही खूब बिछाने वाले हैं. [कुरआन 51:48]
क्या ऐसा नहीं है कि हमने धरती को बिछौना बनाया और पहाडो को खूंटे? [कुरआन 78:6-7]


कुरआन की इन आयात में कुछ ज़रा सा भी निहितार्थ नहीं है कि पृथ्वी फ्लैट हैं. यह केवल इंगित करता है कि पृथ्वी विशाल है और पृथ्वी के इस फैलाव वाले स्वाभाव का कारण उल्लेख करते हुए शानदार कुरआन कहता हैं:

ऐ मेरे बन्दों, जो ईमान लाए हो! निसंदेह मेरी धरती विशाल है, अत: तुम मेरी ही बंदगी करो. [कुरआन 29:56]


कुरआन की उपरोक्त आयात से यह भी पता चलता है कि किसी का यह बहाना भी नहीं चल सकेगा कि वह परिवेश और परिस्थितियों की वजह से अच्छे कर्म नहीं सका और बुराई करने पर मजबूर हुआ था.


- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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क्‍या इस्लाम अनुसार बच्चा गोद लेना सही है?

प्रश्न: क्या इस्लाम के अनुसार बच्चा गोद लेना सही नहीं है? क्या किसी को बेटा अथवा बेटी माना जा सकता है?

उत्तर: बच्चे को गोद लिया जा सकता है, बल्कि  गरीब बच्चों का पालन-पोषण करना पुन्य का काम है. परन्तु बालिग़ होने पर उनको सामान्यत: घर में प्रवेश की अनुमति नहीं दी जा सकती हैं. यही नियम चचेरे-ममेरे भाईओं के लिए भी है. अर्थात उनके घर में प्रवेश से पहले घर की औरतों को अपने शरीर को सामान्य: नियमानुसार ढकना आवश्यक है.

जहाँ तक जायदाद में हिस्से की बात है, तो कोई भी किसी को भी अपनी जायदाद में हिस्सा दे सकता है, हाँ ऐसा हिस्सा अपने-आप नहीं होता है. अर्थात पिता की मृत्यु के पश्चात् (अगर उसके नाम जायदाद नहीं की गयी है) गोद लिए बच्चा जायदाद में हिस्से की मांग नहीं कर सकता है.

इस्लाम अनुसार किसी भी महिला के लिए मर्द की स्थिति दो तरह की होती हैं: महरम और ना-महरम. सामान्यत: ना-महरम वह होते हैं जिनके सामने परदे की आवश्यकता होती है (अर्थात मुंह और हाथ को छोड़ कर शरीर के सभी अंगो को ढकना आवश्यक होता है). ना-महरम उस श्रेणी में आते हैं जिनसे विवाह जायज़ होता है.

जिनसे खून अथवा दूध का रिश्ता होता है वह महरम की श्रेणी में आते हैं, और उनसे वैवाहिक सम्बन्ध नहीं बनाए जा सकते हैं. जैसे कि माता-पिता, सास-ससुर, बेटें-बेटियां, पति के बेटें-बेटियां, भाई-बहन, भतीजे-भतीजियाँ, भांजे-भांजियां इत्यादि.

Allah says : (Interpretation of Qur'an Surah An-Noor)


"And say to the faithful women to lower their gazes, and to guard their private parts, and not to display their beauty except what is apparent of it, and to extend their headcoverings (khimars) to cover their bosoms (jaybs), and not to display their beauty except to their husbands, or their fathers, or their husband's fathers, or their sons, or their husband's sons, or their brothers, or their brothers' sons, or their sisters' sons, or their womenfolk, or what their right hands rule (slaves), or the followers from the men who do not feel sexual desire, or the small children to whom the nakedness of women is not apparent, and not to strike their feet (on the ground) so as to make known what they hide of their adornments. And turn in repentance to Allah together, O you the faithful, in order that you are successful".


अल्लाह कुरआन में फरमाता है (जिसका मतलब है):


और ईमान वाली स्त्रियों से कह दो कि वे भी अपनी निगाहें बचाकर रखे और अपनी शर्मगाहों की रक्षा करें. और अपने श्रृंगार प्रकट न करें, सिवाय उसके जो उनमें खुला रहता है (अर्थात महरम) और अपने सीनों (वक्षस्थलों) पर दुपट्टे डाले रहे और अपना श्रृंगार किसी पर प्रकट न करे सिवाह अपने पति के या अपने पिता के या अपने पति के पिता के या अपने बेटों के अपने पति के बेटों के या अपने भाइयों के या अपने भतीजों के या अपने भांजो के या अपने मेल-जोल की स्त्रियों के या जो उनकी अपनी मिलकियत में हो उनके, या उन अधीनस्थ पुरुषों के जो उस अवस्था को पार कर चुकें हो, जिसमें स्त्री की ज़रूरत होती है,.या उन बच्चो के जो औरतों के परदे की बातों से परिचित ना हो. ..............[सुर: अन-नूर, 24:31] 

इस्लाम के अनुसार "माना हुआ" जैसे किसी रिश्ते की क़ानूनी मान्यता नहीं है. इस शब्द के जाल में आज भी चोरी-छिपे गुनाह होते हैं, कितने ही प्रेमी-प्रेमिका अपने पाप को समाज से छुपाने के लिए एक दुसरे को राखी बांध कर, दिखावे के बहन-भाई बन जाते हैं और "राखी" जैसी पवित्र भावना को बदनाम करते हैं.

"मुंह बोले" अथवा "माने हुए" रिश्ते को अगर मान्यता मिलती तो वह घर की अन्य महिलाओं के लिए "महरम" होते परन्तु खून अथवा दूध का सीधा रिश्ता ना होने की स्थिति के कारणवश व्यभिचार को बढ़ावा मिलता.
अंजुम जी ने बहुत ही ज़बरदस्त बात की तरफ इशारा किया है.

@ Anjum Sheikh ने कहा…
"जब हज़रत ज़ैद (रज़ी.) को हुजुर (स.) ने गोद लिया तो अल्लाह ने कुरान के ज़रिये बताया कि गोद लिए बच्चे का दर्जा महरम का नहीं हो सकता है. इसलिए आप (स.) उसको अपना नाम नहीं दे सकते हैं."


दर-असल प्यारे नबी (स.) ने गुलामों के हक की बात उठाई और लोगो को अपने गुलामों को आज़ाद करने के लिए प्रेरित करने हेतु अपने गुलाम हज़रत ज़ैद (र.) को आज़ाद किया. इसके साथ ही उन्होंने हज़रत ज़ैद (र.) को अपने मुंहबोले बेटे का दर्जा भी दिया तो अल्लाह ने कुरआन की आयत उतार कर उनको ऐसा करने से रोक दिया. ईश्वर ने कहा कि तुम उनको (अर्थात आज़ाद किये हुए गुलामों को) उनके बाप के नाम के साथ पुकारों और अगर तुम्हे उनके बाप का नाम नहीं पता है, तो उनको अपना भाई समझो.

[सुर: अल-अहज़ाब 33:4] ..... और ना उसने तुम्हारे मुंह बोले बेटों को तुम्हारे वास्तविक बेटे बनाए. ये तो तुम्हारे मुँह की बातें हैं. किन्तु अल्लाह सच्ची बात कहता है और वही मार्ग दिखता है.



[33:5] उन्हें (अर्थात मुँह बोले बेटों को) उनके बापों का बेटा कहकर पुकारो. अल्लाह के यहाँ यही अधिक न्यायसंगत बात है. और यदि तुम उनके बापों को न जानते हो, तो धर्म में वे तुम्हारे भाई तो हैं ही और तुम्हारे सहचर भी. इस सिलसिले में तुमसे जो गलती हुई हो उसमें तुमपर कोई गुनाह नहीं, कुन्तु जिसका संकल्प तुम्हारे दिलों ने कर लिया, उसकी बात और है. वास्तव में अल्लाह अत्यंत क्षमाशील, दयावान है.

क्योंकि दोनों में खून अथवा दूध का रिश्ता नहीं है, इसलिए मुँह बोले बेटों के घर की औरतों के लिए ना-महरम की स्तिथि होती और वहीँ उसके घर में भी गोद लेने वाले की स्तिथि ना-महरम की ही होती. इसलिए बेटों की जगह धर्म भाई मानना अधिक अच्छा है.

- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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इंसाफ का दिन: Judgment Day

ईश्वर इंसाफ के दिन (क़यामत) का इंतजार क्यों करता है, आदमी इधर हलाक हुआ उधर उसका हिसाब करे, किसी सरकारी बाबु की तरह एक ही दिन सारे कम निपटने की क्यों सोचता है?

उत्तर: इसमें एक तो यह बात है कि ईश्वर ने इन्साफ का दिन तय किया है ताकि इन्साफ सबके सामने हो और दूसरी बात यह है कि कुछ कर्म इंसान ऐसा करते हैं जिनका पाप या पुन्य इस दुनिया के समाप्त होने तक बढ़ता रहता है. जैसे कि जिस इंसान ने पहली बार किसी दुसरे इंसान की अकारण हत्या की होगी, तो उसके खाते में जितने भी इंसानों कि हत्या होगी सबका पाप लिखा जायेगा. क्योंकि उसने क़यामत तक के इंसानों को कुकर्म का एक नया रास्ता बताया. इसी तरह अगर कोई भलाई का काम किया जैसे कि पानी पीने के लिए प्याऊ बनाया तो जब तक वह प्याऊ है, तब तक उसका पुन्य अमुक व्यक्ति को मिलता रहेगा, चाहे वह कब का मृत्यु को प्राप्त हो गया हो. या फिर कोई किसी एक व्यक्ति को भलाई की राह पर ले कर आया, तो जो व्यक्ति भलाई कि राह पर आया वह आगे जितने भी व्यक्तियों को भलाई कि राह पर लाया और भले कार्य किये, उन सभी के अच्छे कार्यो का पुन्य पहले व्यक्ति को और साथ ही साथ सम्बंधित व्यक्तियों को भी पूरा पूरा मिलता रहेगा, यहाँ तक कि इस पृथ्वी के समाप्ति का दिन आ जाये.

"इसमें एक तो यह बात है कि ईश्वर ने इन्साफ का दिन तय किया है ताकि इन्साफ सबके सामने हो." - आपकी ये बात भी ईश्वर के दुनियाबी होने का घोतक लगती है, ईश्वर बहुत से कार्य सबके सामने नहीं करता और यदि सबके सामने न करे, जो मृत्यु को प्राप्त हुआ उसका न्याय करता जाए तो क्या उसकी बात मानने से मनुष्य इंकार कर देगा, उसके न्याय पे शक करेगा?

उत्तर: मित्र इन्साफ के दिन पर डरपोक या दुनियावी होने की बात पर स्वयं ईश्वर कहता है कि इन्साफ करने के लिए उसे किसी की ज़रूरत नहीं है, वह स्वयं ही काफी है :-

"और हम वजनी, अच्छे न्यायपूर्ण कार्यो को इन्साफ के दिन (क़यामत) के लिए रख रहे हैं. फिर किसी व्यक्ति पर कुछ भी ज़ुल्म न होगा, यद्दपि वह (कर्म) राइ के दाने ही के बराबर हो, हम उसे ला उपस्थित करेंगे. और हिसाब करने के लिए हम काफी हैं. (21/47)"

रही बात इन्साफ का दिन तय करने की तो जैसे की मैंने पहले भी बताया था, यह इसलिए भी हो सकता है, क्योंकि बहुत से पुन्य और पाप ऐसे होते हैं जिनका सम्बन्ध दुसरे व्यक्ति या व्यक्तियों से होता है. इसलिए "इन्साफ के दिन" उन सभी लोगो का इकठ्ठा होना ज़रूरी है. जब इन्साफ होगा तब ईश्वर गवाह भी पेश करेगा. कई बार तो हमारे शरीर के अंग ही बुरे कर्मो के गवाह होंगे.

जिस व्यक्ति ने पहली बार कोई "पाप" किया होगा, तो उस "पाप" को अमुक व्यक्ति कि बाद जितने भी लोग करेंगे उन सभी के पापो की सजा उस पहले व्यक्ति को भी होगी, इसलिए धरती के आखिरी पापी तक की पेशी वहां होगी.

मान लो अगर कोई राजा अथवा न्यायपालिका यह कहे कि जब तक "सौ कैदी" इकट्ठे नहीं हो जाएँगे तब तक वह न्याय नहीं करेगा, तो यह बड़ा ही अन्याय होगा| क्यूंकि एक व्यक्ति के गुनाहों का दुसरे व्यक्ति के गुनाहों से कोई लेना देना नहीं है| इसलिए उनका इकट्ठे न्याय करना सही नहीं| ठीक इसी तरह क्या क़यामत के दिन तक सब को इकट्ठे न्याय के लिए रोक के रखना गलत नहीं है?

उत्तर:
एक व्यक्ति का दुसरे व्यक्ति के गुनाहों से बिलकुल लेना-देना है, उदहारण स्वरुप अगर किसी व्यक्ति ने दुसरे व्यक्ति की हत्या के इरादे से किसी सड़क पर गड्ढा खोदा और उसमें कई और व्यक्ति गिर कर मर गए तो उसके इस पाप के लिए जितने व्यक्तियों की मृत्यु होगी उन सभी का पाप गड्ढा खोदने वाले व्यक्ति पर होगा. ऐसे ही अगर किसी ने कोई बुरा रास्ता किसी दुसरे व्यक्ति को दिखाया तो जब तक उस रास्ते पर चला जायेगा, अर्थात दूसरा व्यक्ति तीसरे को, फिर दूसरा और तीसरा क्रमशः चोथे एवं पांचवे को तथा दूसरा, तीसरा, चोथा एवं पांचवा व्यक्ति मिलकर आगे जितने भी व्यक्तियों को पाप का रास्ता दिखेंगे उसका पाप पहले व्यक्ति को भी मिलेगा, पहला व्यक्ति सभी के चलने का जिम्मेदार होगा. क्योंकि उसी ने वह रास्ता दिखाया है. और इस ज़ंजीर में से जो भी व्यक्ति जानबूझ कर और लोगो को पाप के रास्ते पर डालेगा वह भी उससे आगे के सभी व्यक्तियों के पापो का पूरा पूरा भागीदार होगा.

इसमें अन्याय कैसे है? वह अगर बुराई की कोई राह दुसरे को दिखता ही नहीं तो दूसरा व्यक्ति तीसरे और चोथे व्यक्तियों तक वह बुराई पहुंचाता ही नहीं. इसलिए उनका इकट्ठे न्याय करना सही है.

ठीक यही क्रम अच्छाई की राह दिखने वाले व्यक्ति के लिए है. उसको भी उसी क्रम में पुन्य प्राप्त होता रहेगा. क्या तुम यह कहना चाहते हो की अगर किसी व्यक्ति ने पूजा करने के लिए मंदिर का निर्माण किया तो उसके मरने के बाद उसका पुन्य समाप्त हो जायेगा? जब तक उस मंदिर के द्वारा पुन्य के काम होते रहेंगे, मंदिर का निर्माण करवाने वाले को पुन्य मिलता रहेगा.

नोट: उपरोक्त प्रश्न एवं उत्तर कुछ ग़ैर-मुस्लिम भाइयों से मेरी वार्तालाप में से लिए गए हैं.
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शोभायमान आँखों वाली हूर!

हूर शब्द की अधिकतर गलत व्याख्या की गई है. हूर की धारणा समझना मुश्किल नहीं है.

शब्द हूर, अहवार (एक आदमी के लिए) और हौरा (एक औरत के लिए) का बहुवचन है. इसका मतलब ऐसे इंसान से हैं जिसकी आँखों को "हवार" शब्द से संज्ञा दी गयी है. जिसका मतलब है ऐसी आंखे जिसकी सफेदी अत्यधिक सफ़ेद और काला रंग अत्यधिक काला हो.

शब्द अहवार (हूर का एकवचन) भी शुद्ध या शुद्ध ज्ञान का प्रतीक है.

शब्द हूर पवित्र कुरआन में चार बार आता है:

1. Moreover, We shall join them to companions with beautiful, big and lustrous eyes”. (Al-Dukhan, 44:54)

और यही नहीं, हम उनको ऐसे साथियों के साथ जोड़ देंगे जिनकी सुन्दर, बड़ी एवं शोभायमान (चमकदार) ऑंखें होंगी.

2. “And We shall join them to companions, with beautiful, big and lustrous
eyes”. (Al-Tur, 52:20)

और हम उनको ऐसे साथियों के साथ जोड़ देंगे जिनकी सुन्दर, बड़ी एवं शोभायमान (चमकदार) ऑंखें होंगी.


3. “Companions restrained (as to their glances), in goodly pavilions”. (Al-Rahman Verse 72)

खेमो में रहने वाले साथी.

4. “And (there will be) companions with beautiful, big and lustrous eyes”.
(Al-Waqi’ah Verse 22)

और (वहां) ऐसे साथी होंगे जिनकी सुन्दर, बड़ी एवं शोभायमान (चमकदार) ऑंखें होंगी.




क्या आतंकवादियों अथवा नाहक क़त्ल करने वालों को जन्नत में हूरें मिलेंगी?


ईश्वर के अंतिम संदेष्ठा, महापुरुष मौहम्मद (स.) की कुछ बातें लिख रहा हूँ, इन्हें पढ़ कर फैसला आप स्वयं कर सकते हैं:

"जो ईश्वर और आखिरी दिन (क़यामत के दिन) पर विश्वास रखता है, उसे हर हाल में अपने मेहमानों का सम्मान करना चाहिए, अपने पड़ोसियों को परेशानी नहीं पहुंचानी चाहिए और हमेशा अच्छी बातें बोलनी चाहिए अथवा चुप रहना चाहिए." (Bukhari, Muslim)


"जिसने मुस्लिम राष्ट्र में किसी ग़ैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, उसने मुझे ठेस पहुंचाई." (Bukhari)

"जिसने एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, मैं उसका विरोधी हूँ और मैं न्याय के दिन उसका विरोधी होउंगा." (Bukhari)

"न्याय के दिन से डरो; मैं स्वयं उसके खिलाफ शिकायतकर्ता रहूँगा जो एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के साथ गलत करेगा या उसपर उसकी जिम्मेदारी उठाने की ताकत से अधिक जिम्मेदारी डालेगा अथवा उसकी किसी भी चीज़ से उसे वंचित करेगा." (Al-Mawardi)

"अगर कोई किसी गैर-मुस्लिम की हत्या करता है, जो कि मुसलमानों का सहयोगी था, तो उसे स्वर्ग तो क्या स्वर्ग की खुशबू को सूंघना तक नसीब नहीं होगा." (Bukhari).


एवं पवित्र कुरआन में ईश्वर ने कहा है कि:

इसी कारण हमने इसराईल की सन्तान के लिए लिख दिया था, कि जिसने किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या धरती में फ़साद फैलाने के के जुर्म के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे ही इंसानों की हत्या कर डाली। और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो सारे इंसानों को जीवन प्रदान किया। उनके पास हमारे रसूल (संदेष्ठा) स्पष्‍ट प्रमाण ला चुके हैं, फिर भी उनमें बहुत-से लोग धरती में ज़्यादतियाँ करनेवाले ही हैं [5:32]

जो ईश्वर के साथ किसी दूसरे इष्‍ट-पूज्य को नहीं पुकारते और न नाहक़ किसी जीव को जिस (के क़त्ल) को अल्लाह ने हराम किया है, क़त्ल करते है। और न वे व्यभिचार करते है - जो कोई यह काम करे तो वह गुनाह के वबाल से दोचार होगा [25:68]



ईश्वर अच्छे कार्यो का स्वर्ग में क्या बदला देगा?

इसके साथ ही यह बात समझना ज़रूरी है कि ईश्वर अच्छे कार्यो का स्वर्ग में क्या बदला देगा.

पवित्र पैग़म्बर मुहम्मद (स.) ने फ़रमाया कि, "अल्लाह कहता है कि, मैंने अपने मानने वालो के लिए ऐसा बदला तैयार किया है जो किसी आँख ने देखा नहीं और किसी कान ने सुना नहीं है. यहाँ तक कि इंसान का दिल कल्पना भी नहीं कर सकता है." (बुखारी 59:8)


पवित्र कुरआन भी ऐसे ही शब्दों में कहता है:

और कोई नहीं जानता है कि उनकी आँख की ताज़गी के लिए क्या छिपा हुआ है, जो कुछ अच्छे कार्य उन्होंने किये है यह उसका पुरस्कार है. (सुरा: अस-सज्दाह, 32:17)

दूसरी बात यह है कि स्वर्ग का ईनाम महिलाओं और पुरुषों के लिए एक जैसा हैं. वहाँ दो लिंग के बीच एक छोटा सा भी अंतर नहीं है. यह सुरा: अल-अह्जाब से स्पष्ट है:

मुस्लिम पुरुष और मुस्लिम स्त्रियाँ, ईमानवाले पुरुष और ईमानवाली स्त्रियाँ, निष्ठापूर्वक आज्ञापालन करने वाले पुरुष और आज्ञापालन करने वाली स्त्रियाँ, सत्यवादी पुरुष और सत्यवादी स्त्रियाँ, धैर्यवान पुरुष और धैर्य रखने वाली स्त्रियाँ, विनर्मता दिखाने वाले पुरुष और विनर्मता दिखाने वाली स्त्रियाँ, सदका (दान) देने वाले पुरुष और सदका (दान) देने वाली स्त्रियाँ, रोज़ा रखने वाले पुरुष और रोज़ा रखने वाली स्त्रियाँ, अपने गुप्तांगों की रक्षा करने वाले पुरुष और रक्षा करने वाली स्त्रियाँ और अल्लाह को अधिक याद करने वाले पुरुष और याद करने वाली स्त्रियाँ - इनके लिए अल्लाह ने क्षमा और बड़ा प्रतिदान तैयार कर रखा है. [सुर: अल-अहज़ाब, 33:35]

इसमें एक बात तो यह है कि, वहां जो मिलेगा वह ईश्वर का अहसान होगा, हमारा हक नहीं. और वहां सब उसके अहसान मंद होंगे, जैसे कि इसी धरती पर मनुष्यों को छोड़कर बाकी दूसरी जीव होते हैं. दूसरी बात वहां इस धरती की तरह किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं होगी, जैसे कि यहाँ जीवित रहने के लिए भोजन, जल एवं वायु इत्यादि की आवश्यकता होती है.

ईश्वर परलोक के बारे में कहता है कि:

[41:31-32] और वहां तुम्हारे लिए वह सब कुछ होगा, जिसकी इच्छा तुम्हारे मन को होगी. और वहां तुम्हारे लिए वह सब कुछ होगा, जिसकी तुम मांग करोगे.

रही बात "हूर" की तो उनकी अहमियत का एक बात से शायद कुछ अंदाजा हो जाए कि दुनिया की पत्नी, (अगर अच्छे कार्यों के कारण स्वर्ग में जाती है तो) स्वर्ग की सबसे खुबसूरत हूर से भी लाखों गुणा ज्यादा खुबसूरत होगी.


- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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