इंसाफ का दिन: Judgment Day

ईश्वर इंसाफ के दिन (क़यामत) का इंतजार क्यों करता है, आदमी इधर हलाक हुआ उधर उसका हिसाब करे, किसी सरकारी बाबु की तरह एक ही दिन सारे कम निपटने की क्यों सोचता है?

उत्तर: इसमें एक तो यह बात है कि ईश्वर ने इन्साफ का दिन तय किया है ताकि इन्साफ सबके सामने हो और दूसरी बात यह है कि कुछ कर्म इंसान ऐसा करते हैं जिनका पाप या पुन्य इस दुनिया के समाप्त होने तक बढ़ता रहता है. जैसे कि जिस इंसान ने पहली बार किसी दुसरे इंसान की अकारण हत्या की होगी, तो उसके खाते में जितने भी इंसानों कि हत्या होगी सबका पाप लिखा जायेगा. क्योंकि उसने क़यामत तक के इंसानों को कुकर्म का एक नया रास्ता बताया. इसी तरह अगर कोई भलाई का काम किया जैसे कि पानी पीने के लिए प्याऊ बनाया तो जब तक वह प्याऊ है, तब तक उसका पुन्य अमुक व्यक्ति को मिलता रहेगा, चाहे वह कब का मृत्यु को प्राप्त हो गया हो. या फिर कोई किसी एक व्यक्ति को भलाई की राह पर ले कर आया, तो जो व्यक्ति भलाई कि राह पर आया वह आगे जितने भी व्यक्तियों को भलाई कि राह पर लाया और भले कार्य किये, उन सभी के अच्छे कार्यो का पुन्य पहले व्यक्ति को और साथ ही साथ सम्बंधित व्यक्तियों को भी पूरा पूरा मिलता रहेगा, यहाँ तक कि इस पृथ्वी के समाप्ति का दिन आ जाये.

"इसमें एक तो यह बात है कि ईश्वर ने इन्साफ का दिन तय किया है ताकि इन्साफ सबके सामने हो." - आपकी ये बात भी ईश्वर के दुनियाबी होने का घोतक लगती है, ईश्वर बहुत से कार्य सबके सामने नहीं करता और यदि सबके सामने न करे, जो मृत्यु को प्राप्त हुआ उसका न्याय करता जाए तो क्या उसकी बात मानने से मनुष्य इंकार कर देगा, उसके न्याय पे शक करेगा?

उत्तर: मित्र इन्साफ के दिन पर डरपोक या दुनियावी होने की बात पर स्वयं ईश्वर कहता है कि इन्साफ करने के लिए उसे किसी की ज़रूरत नहीं है, वह स्वयं ही काफी है :-

"और हम वजनी, अच्छे न्यायपूर्ण कार्यो को इन्साफ के दिन (क़यामत) के लिए रख रहे हैं. फिर किसी व्यक्ति पर कुछ भी ज़ुल्म न होगा, यद्दपि वह (कर्म) राइ के दाने ही के बराबर हो, हम उसे ला उपस्थित करेंगे. और हिसाब करने के लिए हम काफी हैं. (21/47)"

रही बात इन्साफ का दिन तय करने की तो जैसे की मैंने पहले भी बताया था, यह इसलिए भी हो सकता है, क्योंकि बहुत से पुन्य और पाप ऐसे होते हैं जिनका सम्बन्ध दुसरे व्यक्ति या व्यक्तियों से होता है. इसलिए "इन्साफ के दिन" उन सभी लोगो का इकठ्ठा होना ज़रूरी है. जब इन्साफ होगा तब ईश्वर गवाह भी पेश करेगा. कई बार तो हमारे शरीर के अंग ही बुरे कर्मो के गवाह होंगे.

जिस व्यक्ति ने पहली बार कोई "पाप" किया होगा, तो उस "पाप" को अमुक व्यक्ति कि बाद जितने भी लोग करेंगे उन सभी के पापो की सजा उस पहले व्यक्ति को भी होगी, इसलिए धरती के आखिरी पापी तक की पेशी वहां होगी.

मान लो अगर कोई राजा अथवा न्यायपालिका यह कहे कि जब तक "सौ कैदी" इकट्ठे नहीं हो जाएँगे तब तक वह न्याय नहीं करेगा, तो यह बड़ा ही अन्याय होगा| क्यूंकि एक व्यक्ति के गुनाहों का दुसरे व्यक्ति के गुनाहों से कोई लेना देना नहीं है| इसलिए उनका इकट्ठे न्याय करना सही नहीं| ठीक इसी तरह क्या क़यामत के दिन तक सब को इकट्ठे न्याय के लिए रोक के रखना गलत नहीं है?

उत्तर:
एक व्यक्ति का दुसरे व्यक्ति के गुनाहों से बिलकुल लेना-देना है, उदहारण स्वरुप अगर किसी व्यक्ति ने दुसरे व्यक्ति की हत्या के इरादे से किसी सड़क पर गड्ढा खोदा और उसमें कई और व्यक्ति गिर कर मर गए तो उसके इस पाप के लिए जितने व्यक्तियों की मृत्यु होगी उन सभी का पाप गड्ढा खोदने वाले व्यक्ति पर होगा. ऐसे ही अगर किसी ने कोई बुरा रास्ता किसी दुसरे व्यक्ति को दिखाया तो जब तक उस रास्ते पर चला जायेगा, अर्थात दूसरा व्यक्ति तीसरे को, फिर दूसरा और तीसरा क्रमशः चोथे एवं पांचवे को तथा दूसरा, तीसरा, चोथा एवं पांचवा व्यक्ति मिलकर आगे जितने भी व्यक्तियों को पाप का रास्ता दिखेंगे उसका पाप पहले व्यक्ति को भी मिलेगा, पहला व्यक्ति सभी के चलने का जिम्मेदार होगा. क्योंकि उसी ने वह रास्ता दिखाया है. और इस ज़ंजीर में से जो भी व्यक्ति जानबूझ कर और लोगो को पाप के रास्ते पर डालेगा वह भी उससे आगे के सभी व्यक्तियों के पापो का पूरा पूरा भागीदार होगा.

इसमें अन्याय कैसे है? वह अगर बुराई की कोई राह दुसरे को दिखता ही नहीं तो दूसरा व्यक्ति तीसरे और चोथे व्यक्तियों तक वह बुराई पहुंचाता ही नहीं. इसलिए उनका इकट्ठे न्याय करना सही है.

ठीक यही क्रम अच्छाई की राह दिखने वाले व्यक्ति के लिए है. उसको भी उसी क्रम में पुन्य प्राप्त होता रहेगा. क्या तुम यह कहना चाहते हो की अगर किसी व्यक्ति ने पूजा करने के लिए मंदिर का निर्माण किया तो उसके मरने के बाद उसका पुन्य समाप्त हो जायेगा? जब तक उस मंदिर के द्वारा पुन्य के काम होते रहेंगे, मंदिर का निर्माण करवाने वाले को पुन्य मिलता रहेगा.

नोट: उपरोक्त प्रश्न एवं उत्तर कुछ ग़ैर-मुस्लिम भाइयों से मेरी वार्तालाप में से लिए गए हैं.
Read More...

शोभायमान आँखों वाली हूर!

हूर शब्द की अधिकतर गलत व्याख्या की गई है. हूर की धारणा समझना मुश्किल नहीं है.

शब्द हूर, अहवार (एक आदमी के लिए) और हौरा (एक औरत के लिए) का बहुवचन है. इसका मतलब ऐसे इंसान से हैं जिसकी आँखों को "हवार" शब्द से संज्ञा दी गयी है. जिसका मतलब है ऐसी आंखे जिसकी सफेदी अत्यधिक सफ़ेद और काला रंग अत्यधिक काला हो.

शब्द अहवार (हूर का एकवचन) भी शुद्ध या शुद्ध ज्ञान का प्रतीक है.

शब्द हूर पवित्र कुरआन में चार बार आता है:

1. Moreover, We shall join them to companions with beautiful, big and lustrous eyes”. (Al-Dukhan, 44:54)

और यही नहीं, हम उनको ऐसे साथियों के साथ जोड़ देंगे जिनकी सुन्दर, बड़ी एवं शोभायमान (चमकदार) ऑंखें होंगी.

2. “And We shall join them to companions, with beautiful, big and lustrous
eyes”. (Al-Tur, 52:20)

और हम उनको ऐसे साथियों के साथ जोड़ देंगे जिनकी सुन्दर, बड़ी एवं शोभायमान (चमकदार) ऑंखें होंगी.


3. “Companions restrained (as to their glances), in goodly pavilions”. (Al-Rahman Verse 72)

खेमो में रहने वाले साथी.

4. “And (there will be) companions with beautiful, big and lustrous eyes”.
(Al-Waqi’ah Verse 22)

और (वहां) ऐसे साथी होंगे जिनकी सुन्दर, बड़ी एवं शोभायमान (चमकदार) ऑंखें होंगी.




क्या आतंकवादियों अथवा नाहक क़त्ल करने वालों को जन्नत में हूरें मिलेंगी?


ईश्वर के अंतिम संदेष्ठा, महापुरुष मौहम्मद (स.) की कुछ बातें लिख रहा हूँ, इन्हें पढ़ कर फैसला आप स्वयं कर सकते हैं:

"जो ईश्वर और आखिरी दिन (क़यामत के दिन) पर विश्वास रखता है, उसे हर हाल में अपने मेहमानों का सम्मान करना चाहिए, अपने पड़ोसियों को परेशानी नहीं पहुंचानी चाहिए और हमेशा अच्छी बातें बोलनी चाहिए अथवा चुप रहना चाहिए." (Bukhari, Muslim)


"जिसने मुस्लिम राष्ट्र में किसी ग़ैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, उसने मुझे ठेस पहुंचाई." (Bukhari)

"जिसने एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, मैं उसका विरोधी हूँ और मैं न्याय के दिन उसका विरोधी होउंगा." (Bukhari)

"न्याय के दिन से डरो; मैं स्वयं उसके खिलाफ शिकायतकर्ता रहूँगा जो एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के साथ गलत करेगा या उसपर उसकी जिम्मेदारी उठाने की ताकत से अधिक जिम्मेदारी डालेगा अथवा उसकी किसी भी चीज़ से उसे वंचित करेगा." (Al-Mawardi)

"अगर कोई किसी गैर-मुस्लिम की हत्या करता है, जो कि मुसलमानों का सहयोगी था, तो उसे स्वर्ग तो क्या स्वर्ग की खुशबू को सूंघना तक नसीब नहीं होगा." (Bukhari).


एवं पवित्र कुरआन में ईश्वर ने कहा है कि:

इसी कारण हमने इसराईल की सन्तान के लिए लिख दिया था, कि जिसने किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या धरती में फ़साद फैलाने के के जुर्म के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे ही इंसानों की हत्या कर डाली। और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो सारे इंसानों को जीवन प्रदान किया। उनके पास हमारे रसूल (संदेष्ठा) स्पष्‍ट प्रमाण ला चुके हैं, फिर भी उनमें बहुत-से लोग धरती में ज़्यादतियाँ करनेवाले ही हैं [5:32]

जो ईश्वर के साथ किसी दूसरे इष्‍ट-पूज्य को नहीं पुकारते और न नाहक़ किसी जीव को जिस (के क़त्ल) को अल्लाह ने हराम किया है, क़त्ल करते है। और न वे व्यभिचार करते है - जो कोई यह काम करे तो वह गुनाह के वबाल से दोचार होगा [25:68]



ईश्वर अच्छे कार्यो का स्वर्ग में क्या बदला देगा?

इसके साथ ही यह बात समझना ज़रूरी है कि ईश्वर अच्छे कार्यो का स्वर्ग में क्या बदला देगा.

पवित्र पैग़म्बर मुहम्मद (स.) ने फ़रमाया कि, "अल्लाह कहता है कि, मैंने अपने मानने वालो के लिए ऐसा बदला तैयार किया है जो किसी आँख ने देखा नहीं और किसी कान ने सुना नहीं है. यहाँ तक कि इंसान का दिल कल्पना भी नहीं कर सकता है." (बुखारी 59:8)


पवित्र कुरआन भी ऐसे ही शब्दों में कहता है:

और कोई नहीं जानता है कि उनकी आँख की ताज़गी के लिए क्या छिपा हुआ है, जो कुछ अच्छे कार्य उन्होंने किये है यह उसका पुरस्कार है. (सुरा: अस-सज्दाह, 32:17)

दूसरी बात यह है कि स्वर्ग का ईनाम महिलाओं और पुरुषों के लिए एक जैसा हैं. वहाँ दो लिंग के बीच एक छोटा सा भी अंतर नहीं है. यह सुरा: अल-अह्जाब से स्पष्ट है:

मुस्लिम पुरुष और मुस्लिम स्त्रियाँ, ईमानवाले पुरुष और ईमानवाली स्त्रियाँ, निष्ठापूर्वक आज्ञापालन करने वाले पुरुष और आज्ञापालन करने वाली स्त्रियाँ, सत्यवादी पुरुष और सत्यवादी स्त्रियाँ, धैर्यवान पुरुष और धैर्य रखने वाली स्त्रियाँ, विनर्मता दिखाने वाले पुरुष और विनर्मता दिखाने वाली स्त्रियाँ, सदका (दान) देने वाले पुरुष और सदका (दान) देने वाली स्त्रियाँ, रोज़ा रखने वाले पुरुष और रोज़ा रखने वाली स्त्रियाँ, अपने गुप्तांगों की रक्षा करने वाले पुरुष और रक्षा करने वाली स्त्रियाँ और अल्लाह को अधिक याद करने वाले पुरुष और याद करने वाली स्त्रियाँ - इनके लिए अल्लाह ने क्षमा और बड़ा प्रतिदान तैयार कर रखा है. [सुर: अल-अहज़ाब, 33:35]

इसमें एक बात तो यह है कि, वहां जो मिलेगा वह ईश्वर का अहसान होगा, हमारा हक नहीं. और वहां सब उसके अहसान मंद होंगे, जैसे कि इसी धरती पर मनुष्यों को छोड़कर बाकी दूसरी जीव होते हैं. दूसरी बात वहां इस धरती की तरह किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं होगी, जैसे कि यहाँ जीवित रहने के लिए भोजन, जल एवं वायु इत्यादि की आवश्यकता होती है.

ईश्वर परलोक के बारे में कहता है कि:

[41:31-32] और वहां तुम्हारे लिए वह सब कुछ होगा, जिसकी इच्छा तुम्हारे मन को होगी. और वहां तुम्हारे लिए वह सब कुछ होगा, जिसकी तुम मांग करोगे.

रही बात "हूर" की तो उनकी अहमियत का एक बात से शायद कुछ अंदाजा हो जाए कि दुनिया की पत्नी, (अगर अच्छे कार्यों के कारण स्वर्ग में जाती है तो) स्वर्ग की सबसे खुबसूरत हूर से भी लाखों गुणा ज्यादा खुबसूरत होगी.


- शाहनवाज़ सिद्दीकी
Read More...

क्या धर्म परिवर्तन करना सही है?

हर किसी को मृत्यु के बाद स्वयं अपने प्रभु के सामने खड़े होना है और उत्तर देना है कि पृथ्वी लोक में ईश्वर के बताए हुए रास्ते पर चला अथवा नहीं? क्योंकि उत्तर स्वयं देना है इसलिए आस्था का मामला भी एकदम निजी है, इसमें किसी और का हस्तक्षेप तो हो ही नहीं सकता है, मैं अथवा तुम (अर्थात शुभचिंतक) तो सिर्फ राह ही दिखा सकते हैं. क्योंकि आस्था का सम्बन्ध ह्रदय से होता है इसलिए मनुष्य उसी राह पर चलता है जिसपर उसका ह्रदय "हाँ" कहता है.

इसमें एक बात बहुत ही अधिक ध्यान देने की है. और वह यह कि ईश्वर एक है और उसका सत्य मार्ग भी एक ही है. जिसने भी ईश्वर से प्रार्थना कि उसे सत्य के मार्ग का ज्ञान दे, तो वह अवश्य ही उस मार्ग का ज्ञान अमुक मनुष्य को देता है. चाहे वह मनुष्य समुन्द्रों के बीचों-बीच, किसी छोटे से टापू में बिलकुल अकेला ही रहता हो. इसमें कोई दो राय किसी भी धर्म के पंडितो की हो नहीं सकती है. इसलिए मनुष्य के लिए यह कोई मायने रखता ही नहीं कि वह किसी मुसलमान के घर पैदा हुआ है या फिर हिन्दू अथवा इसाई के घर. उसे तो बस अपने ईश्वर से सत्य के मार्ग को दिखाने की प्रार्थना एवं प्रयास भर करना है. क्योंकि अब यह ईश्वर का कार्य है कि अमुक व्यक्ति को "अपने सत्य" का मार्ग दिखलाये.

मित्र, प्रभु के सत्य मार्ग को पहचानना धरती के हर मनुष्य के लिए एक सामान है. ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा है (जिसका अर्थ है) कि "वह ना चाहने वालो को धर्म की समझ नहीं देता".

और प्रभु को पहचानना या न पहचानना मेरे या तुम्हारे (अर्थात किसी भी मनुष्य के) वश की बात नहीं है, यहाँ तो सिर्फ प्रभु का ही वश चलता है और वह पवित्र कुरआन में कहता है कि:

"अगर कोई मनुष्य मेरी तरफ एक हाथ बढ़ता है, तो मैं उसकी तरफ दो हाथ बढ़ता हूँ, अगर कोई चल कर आता है तो मैं दौड़ कर आता हूँ."

इससे यह पता चलता है कि प्रभु को पाने कि इच्छा करना और इसके लिए प्रयास करना ही सब कुछ है, आगे का काम तो स्वयं उस ईश्वर का है. हाँ, एक बात यह भी है कि जब प्रभु अपना ज्ञान किसी को दे दे तो उसके बाद उसके बताए हुए रास्ते पर चलना ही उसकी सच्ची अराधना है.

ईश्वर ने हमें अवसर दिया है पृथ्वी पर धर्म अथवा अधर्म पर चलने का ताकि इसके अनुसार स्वर्ग अथवा नर्क का फैसला हो सके. इसलिए कोई भी व्यक्ति अपनी आस्था के अनुरूप जीवन को व्यतीत कर सकता है. ईश्वर जिसे चाहता है, धर्म की सही समझ देता है, परन्तु वह ना चाहने वालो को धर्म की सही समझ नहीं देता.

अगर किसी ने ईश्वर को पाने की और उसके सत्य मार्ग को जानने की कोशिश ही नहीं की, और अंधे-गुंगो की तरह वही करता रहा जो उसके माँ-बाप, परिवार वाले करते आ रहे हैं, तो वह अवश्य ही गुमराह है, चाहे उसका उद्देश्य अच्छा ही हो. ईश्वर को पाना है तो उसके पाने की इच्छा और प्रयास करना ही पड़ेगा

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या आस्था मज़बूरी अथवा लालच में बदली जा सकती है? और क्या पूर्वजो ने मज़बूरी में इस्लाम धर्म स्वीकार किया?

पहली बात तो यह कि पूर्वजो की मज़बूरी वाली बात ही गलत है, दूसरी बात यह कि पूर्वजो की क्या मान्यता थी, इससे किसी को फर्क नहीं पड़ना चाहिए. मेरा नाता तो मेरे ईश्वर से है, और वह मुझे अरबी, भारतीय या किसी और देश के वासी की नज़र से नहीं देखता है, अपितु मेरे कर्मों और उसके प्रति मेरे प्रेम पर निगाह डालता है. और वह स्वयं तो मुझे मेरे कर्मों और मेरे प्रेम को देखे बिना भी बेइन्तिहाँ प्रेम करता है.

धर्म का सम्बन्ध आस्था से होता है और आस्था का सम्बन्ध ह्रदय से होता है. और कोई भी मनुष्य पूरी दुनिया से तो असत्य कह सकता है परन्तु अपने ह्रदय से कभी भी असत्य नहीं कह सकता है. ह्रदय को तो पता होता है कि उसपर किस का राज है.

प्राणों के भय और पैसे के मोह से मानुष दिखावा तो कर सकता है मित्र, किन्तु आस्था की जननी तो ह्रदय ही है. जैसा कि मैंने ऊपर बताया, कि कोई भी मनुष्य पूरी दुनिया से तो असत्य कह सकता है परन्तु अपने ह्रदय से कभी भी असत्य नहीं कह सकता है. अगर किसी के सर पर तलवार लटकी है तो वह दिखावे के लिए तो हो सकता है कि कहदे, परन्तु हृदय पर तो उसके प्रभु का ही राज होगा, क्योंकि किसी का दिल चीर कर कोई नहीं देख सकता.

इस बात से यह निष्कर्ष निकलता है कि आस्था किसी भी मज़बूरी में नहीं बदली जा सकती है.


- शाहनवाज़ सिद्दीकी
Read More...

काफिर किसे कहते हैं? - शाहनवाज़ सिद्दीकी

काफिर शब्द का मतलब है "इन्कार करने वाला". अर्थात 'काफिर' उसे कहते हैं जो ईश्वर को पहचान कर भी अपने अहम् या दुष्टों की बातों में आकर या किसी और कारणवश उसके होने का या उसके किसी आदेश का इन्कार करे. अर्थात जिस तक ईश्वर का सन्देश पहुँच गया, वह उसका इन्कार कर दे, वह काफिर है. इसमें एक महत्वपूर्ण बात यह भी है, कि अगर किसी ने प्रभु से सत्य मार्ग को जानने की इच्छा ही नहीं की और आँख मूंद कर बस वही करता रहा जो उसके पूर्वज करते आ रहे हैं, तो वह भी इसी श्रेणी में आएगा. क्योंकि ईश्वर कुरआन में कहता है (जिसका अर्थ है) कि "वह ना चाहने वालो को धर्म की समझ नहीं देता".

कुरआन में आए ईश्वर के एक सन्देश पर ध्यान दीजिये:

02:62-Those who believe (in the Qur'an), those who follow the Jewish (scriptures), and the Sabians and the Christians, any who believe in God and the Last Day, and work righteousness, on them shall be no fear, nor shall they grieve.

2:62 निसंदेह, ईमान वाले और जो यहूद हुए और इसाई और साबिई, जो भी ईश्वर और अंतिम दिन पर ईमान लाया (विश्वास किया) और अच्छा कर्म किया, तो ऐसे लोगो का उनके अपने रब (पालने वाला) के पास (अच्छा) बदला है, उनको न तो कोई भय होगा और न वे शोकाकुल होंगे.


उपरोक्त श्लोक (आयत) के अनुसार जिसने भी अल्लाह (ईश्वर) और इस ब्रह्माण्ड के आखिरी दिन अर्थात इन्साफ के दिन पर विश्वास किया और अच्छे कर्म किये उन्हें परलोक में इस लोक के सत्कार्यों का अच्छा बदला मिलेगा और उनको कोई ग़म नहीं होगा.

अब यह प्रश्न उठता है कि प्रभु को इस्लाम के अनुसार पहचानना या बस पहचानना?

उत्तर:
ईश्वर, ईश्वर है! इसमें इसलाम के अनुसार या विरुद्ध वाली कोई बात है ही नहीं. धर्म हमारे-तुम्हारे हिसाब से नहीं अपितु ईश्वर के हिसाब से चलता है. अर्थात ईश्वर ने जिसके ह्रदय में सत्य का ज्ञान प्रवाहित किया, लेकिन उसने उस सत्य को मानने से इनकार कर दिया, वह काफिर है. इसमें एक बात बहुत ही अधिक ध्यान देने की है. और वह यह कि ईश्वर एक है और उसका सत्य मार्ग भी एक ही है. जिसने भी ईश्वर से प्रार्थना कि उसे सत्य के मार्ग का ज्ञान दे, तो ईश्वर अवश्य उस मार्ग का ज्ञान अमुक मनुष्य को देगा. चाहे वह मनुष्य समुन्द्रों के बीचों-बीच, किसी छोटे से टापू में बिलकुल अकेला ही रहता हो. इसमें कोई दो राय किसी भी धर्म के पंडितो की हो नहीं सकती है.

इसलिए मनुष्य के लिए यह कोई मायने रखता ही नहीं कि वह किसी मुसलमान के घर पैदा हुआ है या फिर हिन्दू अथवा इसाई के घर. उसे तो बस अपने प्रभु से सत्य के मार्ग को दिखाने की प्रार्थना एवं प्रयास भर करना है. क्योंकि अब यह प्रभु का कार्य है कि अमुक व्यक्ति को "अपने सत्य" का मार्ग दिखलाये. प्रभु को पहचानना या न पहचानना किसी भी मनुष्य के वश की बात नहीं है, यहाँ तो सिर्फ प्रभु का ही वश चलता है और वह पवित्र कुरआन में कहता है कि:

"अगर कोई मनुष्य मेरी तरफ एक हाथ बढ़ता है, तो मैं उसकी तरफ दो हाथ बढ़ता हूँ, अगर कोई चल कर आता है तो मैं दौड़ कर आता हूँ."

मित्रो! हर धर्म की कसौटी पर यह बात सौ प्रतिशत सही उतरती है. इसलिए अगर इस राह पर चला जाय तो आपस के झगडे-फसाद हमेशा-हमेश के लिए समाप्त हो जाएँगे.

- शाहनवाज़ सिद्दीकी
Read More...