दोष केवल मीडिया का नहीं बल्कि हमारा भी है

केवल मीडिया को दोष देने से कुछ भी हासिल नहीं होगा, हो सकता है आपकी बात में कुछ सत्य हो, लेकिन पूरा सत्य है, ऐसा मैं नहीं मानता हूँ. चाहे जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, तिल को तो ताड़ बनाया जा सकता है, लेकिन बिना तिल के ताड़ बनाना असंभव है. एक मुसलमान होने के नाते हमारा यह फ़र्ज़ है की हम अपने अन्दर फैली बुराईयों को दूर करने की कोशिश करें. केवल यह सोच कर संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है कि दुसरे समुदायों के अनुयायियों के द्वारा भी तो वही कार्य किया जा रहा है. हमारी कोशिश स्वयं को तथा अपने समाज को बुराइयों के दलदल से बाहर निकलने की होनी चाहिए, जिससे ना केवल भारत वर्ष बल्कि पुरे विश्व में शान्ति स्थापित हो सके.

आज हम माने अथवा ना माने लेकिन किसी ना किसी स्तर पर अवश्य पडौसी देश के द्वारा चलाए जा रहे दुष्प्रचार अथवा बेरोज़गारी के कारण हमारे देश के नौजवान इंसानियत के दुश्मनों की चालों का शिकार हो रहे हैं. यह एक खुली किताब है कि देश के दुश्मन चाहे वह पडौसी हो अथवा अपने ही देश के तथाकथित राष्ट्रवादी, आम जनों को इनकी चालों को समझ कर उनका मुंह-तोड़ जवाब देना अति आवश्यक है. और ऐसा केवल और केवल आपसी सद्भाव तथा भाई-चारे से ही संभव है.

दूसरों पर ऊँगली उठाना थोडा आसान कार्य है, लेकिन अपने अन्दर की गंदगी को साफ़ करना थोडा मुश्किल कार्य.


शरीफ खान जी का लेख:
muslims and media भारत में मुसलमानों की छवि और मीडिया का चरित्र sharif khan
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कहत शाहनवाज़ सुनो भाई कबीरा

"कहत कबीरा" ब्लॉग के संजय गोस्वामी जी और भांडाफोडू ब्लॉग के शर्मा जी आप इस बार की तरह अक्सर ही इस्लाम धर्म के बारे में कुछ झूटी और मन-गढ़त कहानिया लाते हो और उसे कुरआन की आयतों से जोड़ने की नाकाम कोशिश करते हो. बात को घुमाने की जगह अगर आपके पास अपनी बात की दलील है तो उसे पेश करिए, ताकि सार्थक बात हो सके.

लोगों ने कुरआन के महत्त्व तथा उसकी रुतबे को लोगो के दिल से कम करने के इरादे से कुरआन को शायरी कहना शुरू कर दिया था जबकि कुरआन शायरी नहीं बल्कि ईश्वर (अल्लाह) का ज्ञान है. शायरी में अक्सर महिमा मंडन करने के इरादे से झूटी और फरेबी बातों का भी प्रयोग किया जाता है, जबकि कुरआन इन सब बातों से पाक है. इस पर ईश्वर ने कुरआन में फ़रमाया:-

[36:69] हमने उस (नबी) को शायरी नहीं सिखाई और ना वह उसके लिए शोभनीय है बल्कि वह तो केवल अनुस्मृति और स्पष्ट कुरआन है.

[36:70] ताकि वह उसे सचेत कर दे जो जीवंत हो और इनकार करने वालो पर बात सत्यापित हो जाए.

वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि इस्लाम में शयरी की बिलकुल भी मनाही नहीं है. बल्कि इकबाल जैसे शायरों के नाम के साथ रहमतुल्लाह (अल्लाह की रहमत) लगाया जाता है, और उन जैसे अनेकों शायरी की बहुत इज्ज़त होती है. अक्सर दिनी मदारिस में शायरी के जलसे भी आयोजित होते हैं. स्वयं रसूल अल्लाह मुहम्मद (स.) के सामने लोगों ने उनकी तारीफ़ में ना`त तथा अल्लाह की तारीफ में हम्द पढ़ी जो की शायरी की शक्ल में ही थे, जिस पर रसूल अल्लाह (स.) बेहद खुश हुए थे. और आज भी ना`त तथा हम्द पढ़े तथा लिखे जाते हैं. हाँ यह बात अवश्य है कि झूटी तारीफों और झूट के पुलिंदो के द्वारा गठित शायरी की अवश्य ही मनाही है और झूटी बातों के लिए मनाही हर धर्म में होती है.

आप क्यों लोगो को गलत और बिना दलील की बातों से गुमराह करने की कोशिश करते हैं?
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किसने कह दिया कि गैर मुसलमानों से दोस्ती मना है?

सलीम भाई! आपसे किसने कह दिया कि अल्लाह ने काफिरों से दोस्ती को मना फ़रमाया है? पहली बात तो यह कि काफिर कौन है, इसका निर्धारण आप कैसे करोगे? दिलों के राज़ तो केवल अल्लाह ही जानता है..... दूसरी बात अगर कोई अपने-आप को काफ़िर मानता भी है तब भी उसके साथ दोस्ती करने की मनाही हरगिज़ नहीं है. ईश्वर (अल्लाह) तो स्वयं कुरआन में फरमाता है कि वह अपने नाफरमान बन्दे से भी एक माँ से भी करोडो गुना ज्यादा मुहब्बत करता है. बिना यह देखे के कि वह उसे अपना ईश मानता है अथवा नहीं, यहाँ तक कि उसकी आखिरी साँस तक उसका इंतज़ार करता है. बल्कि तुम जिस तरफ इशारा कर रहे हो अगर तफसील से और पूरा पढोगे तो पता चलेगा कि वह आदेश उनके लिए थे जिन्होंने मुसलमानों पर हमला किया था, अर्थात जो मुसलमानों के दुश्मन थे और उनको अपने घरों से निकालने पर अमादा थे.

उपरोक्त बातें केवल मेरी नहीं हैं, बल्कि देखिये अल्लाह स्वयं कुरआन में आपकी बात का क्या जवाब देता है:

[60:8] अल्लाह तुम्हे इससे नहीं रोकता है कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और ना तुम्हे तुम्हारे अपने घर से निकाला. निस्संदेह अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है.

[60:9] अल्लाह तो तुम्हे केवल उन लोगो से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हे तुम्हारे अपने घरों से निकला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की. जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम हैं.


अब आप क्या कहेंगे?

कुछ लोग कम अक्ली अथवा नफरत में इस्लाम की बातों को बिना पुरे परिप्रेक्ष में देखे, आधी-अधूरी बातों से लोगो को गुमराह करते हैं तथा लोगों को इस्लाम से दुश्मनी पर आमादा करते हैं, आपके उपरोक्त लेख में भी उसी तरह की बातें हैं. आपको मेरी बातें शायद कडवी लगें लेकिन इत्मिनान से गौर करोगे तो इंशाल्लाह आसानी से समझ जाओगे.

रही बात त्योहारों की तो, आपसी संबंधो को सदृढ़ करने के लिए एक-दुसरे के त्योहारों में शिरकत करना मना नहीं होता है, केवल उन कार्यों को करना मना होता है जिनका सम्बन्ध शिर्क से होता है अर्थात ईश्वर (अल्लाह) के अलावा किसी और की पूजा (इबादत) करना अथवा उससे सम्बंधित कार्यों में शामिल होना.

मेरे विचार से आपको किसी आलिम (इस्लामिक विद्वान) से सलाह लेने की आवश्यकता है. आशा है सलाह पर गौर करोगे.





सलीम भाई, इस विषय से सम्बंधित "हमारी अंजुमन" पर मेरा लेख अवश्य पढ़ें:

गैर-मुसलमानों के साथ संबंधों के लिए इस्लाम के अनुसार दिशानिर्देश
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दिखावे के लिए क्यों गंवाना चाहते हैं "वन्दे मातरम"?

तारकेश्वर जी आपने यह बात सही लिखी है की केवल बोल देने से कुछ नहीं होता है, बेशक केवल बोल देने से कुछ नहीं होता है, लेकिन आप केवल बोल देने के लिए ही क्यों "वन्दे मातरम" गंवाना चाहते हैं? बहुत से मुसलमान इसी सोच को ध्यान में रखते हुए वन्दे मातरम बोलते हैं. लेकिन क्या केवल दिखाने के लिए इसे गाना धौखा नहीं है? आप जिसकी पूजा करते हैं, उनकी मैं इज्ज़त करूँ यह बात तो समझ में आती है, लेकिन जिनकी मैं पूजा नहीं करता, केवल अपने मित्रों को दिखाने अथवा महान कहलवाने के लिए दिखावे उनकी पूजा क्या सही कहलाई जा सकती है?

वैसे इस बहाने इस पर चर्चा की जाए तो यह एक अच्छा प्रयास कहा जाएगा. विचारों के आदान प्रदान से ही एक-दुसरे को समझने तथा एक-दुसरे के नजरिया को जानने का मौका मिलता है. मेरा यह विचार है कि किसी भी मुद्दे पर केवल अपनी सोच के हिसाब से धारणा बनाने की जगह जिन्हें ऐतराज़ है उनके नज़रिए से भी मुद्दे को देखना चाहिए. क्योंकि एक ही नज़रिए से देखने से किसी भी मसले का हल मुश्किल होता है.

'वन्दे मातरम' पर जो मुस्लिम समुदाय को जो एतराज़ है, उसमे सबसे पहली बात तो 'वन्दे' अर्थात 'वंदना' शब्द के अर्थ पर है. अक्सर इसका अर्थ 'पूजा' लगाया जाता है और आप सभी को यह पता होगा कि केवल एक ईश्वर की ही पूजा करने का नाम "इस्लाम" है यहाँ तक कि ईश्वर को छोड़ कर किसी और को पूज्य मानने वाला शख्स मुसलमान हो ही नहीं सकता है। इस्लाम के कलिमे "ला-इलाहा इलल्लाह" का मतलब ही यही है कि "नहीं है कोई पूज्य सिवा अल्लाह के"।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि ईश्वर के अलावा किसी और की प्रंशंसा भी नहीं की जा सकती है या प्रेम नहीं किया जा सकता. बेशक किसी भी अच्छी चीज़ की प्रशंसा करना अथवा प्रेम करना किसी भी धर्म में अपराध नहीं होता है. इससे पता चलता है कि मुसलमान धरती माँ की प्रशंसा तो कर सकते हैं, उससे अपार प्रेम तो कर सकते हैं लेकिन पूजा नहीं.
तो क्या किसी को उसके ईश के अलावा किसी और की पूजा करने के लिए बाध्य करना तर्क-सांगत कहलाया जा सकता है?

वैसे एक कटु सत्य यह भी है कि वन्देमातरम गाने भर से कोई देशप्रेमी नहीं होता है और देश के गद्दार वन्देमातरम गाकर देशप्रेमी नहीं बन सकते हैं. बंधू, आप मुसलमानों से क्या चाहते हैं? देश प्रेम या फिर वन्देमातरम? देश से प्यार देश की पूजा नहीं हो सकती है, और न ही देश की पूजा-अर्चना का मतलब देश से प्यार हो सकता है. हम अपनी माँ से प्यार करते हैं, परन्तु उस प्रेम को दर्शाने के लिए उनकी पूजा नहीं करते हैं. यह हमारी श्रद्धा नहीं है कि हम ईश्वर के सिवा किसी और को नमन करें, यहाँ तक कि माँ को भी नमन नहीं कर सकते हैं. जब कि ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा है कि अगर वह मनुष्यों में से किसी को नमन करने की अनुमति देता तो वह पुत्र के लिए अपनी माँ और पत्नी के लिए अपने पति को नमन करने की अनुमति देता. ईश्वर की पूजा ईश्वर के लिए ही विशिष्ट है और ईश्वर के सिवा किसी को भी इस विशिष्टता के साथ साझा नहीं किया जा सकता हैं, न ही अपने शब्दों से और न कामों से.

भारत वर्ष को अपना देश मानने के लिए मुझे कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती है 'वन्देमातरम' जैसे किसी गीत को गाने की. यह मेरा देश है क्योंकि मैं इसको प्रेम करता हूँ, यहाँ पैदा हुआ हूँ, और इसके कण-कण मेरी जीवन की यादें बसी हुई हैं. इसके दुश्मन के दांत खट्टे करने की मुझमे हिम्मत एवं जज्बा है. इसकी कामयाबी के गीत मैं गाता हूँ एवं पुरे तौर पर प्रयास भी करता हूँ. चाहे कोई मुझे गद्दार कहे, या मेरे समुदाय को गद्दार कहे, उससे मुझे कोई फरक नहीं पड़ता. क्योंकि यह मेरा देश है और किसी के कहने भर से कोई इसे मुझसे छीन नहीं सकता है.

रही बात उलेमा अर्थात (इस्लामिक शास्त्री) के द्वारा 'वन्दे मातरम' के खिलाफ फतवे की, तो यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि उलेमाओं का कार्य किसी भी प्रश्न पर इस्लाम के एतबार से सलाह देना है. और जब भी किसी क़ानूनी सलाह देने वाले से सलाह मांगी जाती है तो यह उसका फ़र्ज़ बनता है कि वह जिस परिप्रेक्ष में सलाह मांगी गई है, उसमें सही स्थिति के अनुसार उचित क़ानूनी सलाह दे. कोई भी उलेमा अपनी मर्ज़ी के एतबार से फतवा (अर्थात इस्लामिक कानूनों के हिसाब से सलाह) दे ही नहीं सकता है. और जितनी बार भी किसी मुद्दे पर प्रश्न किया जाता है तो उनका फ़र्ज़ है कि उतनी बार ही वह उक्त मुद्दे पर उचित सलाह (अर्थात फतवा) दें. वैसे उलेमा का कार्य सिर्फ शिक्षण देना भर है. उनको मानना या मानना इंसान की इच्छा है. अगर कोई उलेमा इसलाम की आत्मा के विरूद्व कुछ भी कहता है, तो उसकी बात का पालन करना भी धर्म विरुद्ध है.


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