एक ज्ञान वह है जो मनुष्य की आवश्यकताओं से सम्बंधित होता है, जिसे दुनिया का ज्ञान कहते हैं. इसके लिए ईश्वर ने कोई संदेशवाहक नहीं भेजा, बल्कि वह ज्ञान ईश्वर ने मस्तिष्क में पहले से सुरक्षित कर दिया है. जब किसी चीज़ की आवश्यकता होती है तो मनुष्य मेहनत करता है, उस पर रास्ते खुलते चले जाते हैं.
एक ज्ञान यह है जो जीवन के मकसद से सम्बंधित है कि "मनुष्य दुनिया में आया क्यों है?" अब यह स्वयं दुनिया में आया होता तो इसे मालूम होता कि वह क्यों आया है. अगर मनुष्य ने अपने आप को स्वयं बनाया होता तो इसे मालूम होता कि इसके बनने का मकसद क्या है? हम जब कहीं भी जाते हैं, तो हमारा वहां जाने का मकसद होता है, और हमें पता होता है कि हम वहां क्यों जा रहे हैं. ना तो मनुष्य स्वयं आया है और ना इसने अपने आप को स्वयं बनाया है. ना यह अपनी मर्ज़ी से अपना समय लेकर आया है और ना अपनी मर्ज़ी से अपनी शक्ल-सूरत लेकर आया है. पुरुष, पुरुष बना किसी और के चाहने से, महिला, महिला बनी किसी और के चाहने से. रंग-रूप, खानदान, परिवार, यानि जो भी मिला है इस सबका फैसला तो कहीं और से हुआ है. जीवन का समय तो किसी और ने तय किया हुआ है, वह कौन है यह सबसे पहला ज्ञान था.
खाना कैसे बनाना है, यह धीरे-धीरे अपने आप ही पता चल गया मनुष्य को. फसलें कैसे उगानी है, उद्योग कैसे चलने हैं, इसके लिए कोई संदेशवाहक नहीं भेजा ईश्वर ने. मनुष्य सोचता रहा, ईश्वर रहनुमाई करता रहा. यह ज्ञान भी ईश्वर ही देता है. बेशुमार, बल्कि अक्सर जो भी खोजें हुई वह अपने आप ही हो गई . इंसान कुछ और खोज रहा था, और कुछ और मिल गया. इस तरह वह ज्ञान भी ईश्वर ने ही दिया है.
लेकिन मेरे मित्रों, इंसान सारी ज़िन्दगी भी कोशिश करता रहे तो यह पता नहीं लगा सकता है कि मैं कहा से आया हूँ? मुझे किसने भेजा है? मुझे किसने पैदा किया है? यह मुझे मारता कौन है? मैं तो स्वास्थ्य से सम्बंधित हर बात पर अमल कर रहा था, फिर यह दिल का दौरा कैसे पड़ गया? और मैंने तो सुरक्षा के सारे बंदोबस्त कर रखे थे, फिर यह साँस किसने खींच ली? जीती जागती देह का अंत कैसे हो गया? यह वो प्रश्न है जिसका उत्तर इंसान के पास नहीं है, ना ही इसके मस्तिष्क में है. किसी इंसानी किताब में भी इसका उत्तर नहीं मिल सकता. यह वह प्रश्न है जिसका उत्तर बाहर से मिलता है. गाडी कैसे बनानी है इसका ज्ञान इंसान के अन्दर था, जो धीरे-धीरे बाहर आगया. एक मशहूर कहावत है कि "आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है". जब कार का आविष्कार हुआ तो उसकी शक्ल आज के घोड़े-तांगे जैसी थी, बनते-बनते आज इसकी शक्ल कैसी बन गई? करोडो रूपये की गाड़ियाँ भी बाज़ार में है. यह ऐसा ज्ञान है जो दिमाग में पहले से ही मौजूद है, इंसान मेहनत करता रहता है, उसको राहें मिलती रहती हैं.
लेकिन कुछ प्रश्न है, जिनका उत्तर मनुष्य के पास नहीं है. जैसे कि, मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? कहाँ जाऊंगा? किसने भेजा है? क्यों मरते हैं? मृत्यु के बाद क्या है? मृत्यु स्वयं क्या चीज़ है? मृत्यु के बारे में विज्ञानं की किताबों में 200 से भी अधिक उत्तर लिखे हुए हैं, सारे ही गलत हैं.
यह सबसे पहला ज्ञान यह है, कि मुझे भेजने वाला कौन है? मुझे क्यों भेजा गया है? अगर कोई इस प्रश्न में मात खा गया तो वह बहुत बड़े नुक्सान का शिकार हो जाएगा. ईश्वर ने इस प्रश्न का उत्तर बताने के लिए सवा लाख संदेशवाहकों को भेजा. उन्होंने आकर बताया कि हमारा पैदा करने वाला ईश्वर है, और उसने हमें एक मकसद देकर भेजा है, जीवन ईश्वर देता है और मौत ईश्वर लाता है, इंसान गंदे पानी से बना है और इससे पहले मिटटी से बना है. ईश्वर ने अपने संदेशवाहकों के ज़रिये बताया कि दुनिया परीक्षा की जगह हैं. यहाँ हर एक को अपने हिसाब से जीवन को यापन करने का हक है क्योंकि इसी जीवन के हिसाब से परलोक में स्वर्ग और नरक का फैसला होना है. हाँ यह बात अवश्य है, कि समाज सुचारू रूप से चलता रहे और किसी को किसी की वजह से परेशानी ना हो, इसलिए दुनिया का कानून भी बनाया.
ईश्वर ने मनुष्यों को दुनिया में भेजने से पहले स्वर्ग और नरक बनाये, तब सभी आत्माओं से आलम-ए-अरवा (आत्माओं के लोक) में मालूम किया क्या वह ईश्वर को ईश्वर मानते हैं, तो सभी ने एक सुर में कहा हाँ.
Imam Junayd, radiya'llahu anhu, said that Allah, subhanahu wa ta'ala, gathered before the creation of the world all of the spirits, all the arwah, and said, Qur'an 7:172:
Alastu bi-Rabbikum? (Am I not your Lord?)
They said, "We testify that indeed You are!"
[7:172] Recall that your Lord summoned all the descendants of Adam, and had them bear witness for themselves: "Am I not your Lord?" They all said, "Yes. We bear witness." Thus, you cannot say on the Day of Resurrection, "We were not aware of this."
तब ईश्वर ने कहा ऐसे नहीं, अपितु वह दुनिया में भेज कर परीक्षा लेगा कि कौन उसके बताये हुए रास्ते पर चलता है और कौन नहीं. ताकि कोई भी ईश्वर पर यह दोष न लगा सके की उसके साथ अन्याय हुआ. परीक्षा में सबको पता चल जायेगा की कौन फेल होगा और कौन पास, इसमें कुछ आंशिक रूप से भी फेल हो सकते हैं और कुछ पूर्ण रूप से भी फेल हो सकते हैं.
इसमें यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि ईश्वर किसी नियम के तहत बाध्यकारी नहीं हैं, चाहे वह नियम स्वयं उसने ही बनाये हों. लेकिन उसने कहा है कि न्याय के दिन वह सबके साथ न्याय करेगा, किसी के साथ अन्याय नहीं होगा. इसलिए जिसने भी उसको ईश्वर माना था (जबकि वह आत्मा के रूप में था, और आत्माओं के लोक का निवासी था), तो ईश्वर की वाणी के अनुरूप वह अगर उसको इस पृथ्वी में भी ईश्वर मानता है और अच्छे कर्म करता है, तो स्वर्ग का वासी होगा, अन्यथा नरक का वासी होगा.
ईश्वर ने सेहत एवं बीमारी, अमीर एवं गरीब तो सिर्फ परीक्षा लेने के लिए बनाये हैं ताकि पता चल सके कि अमीर और गरीब के लिए जो नियम बनाये हैं उन पर खरा उतरता है या नहीं. उदहारण: अमीर व्यक्ति ने पैसे सही कार्यों को करके कमाए हैं या गलत कार्यों द्वारा? उनको सही कार्यों में खर्च करता है या बुराई के कार्यो में? ईश्वर का धन्यवाद करता है या या कहता है कि "यह पैसा तो मैंने अपनी चतुराई से कमाया, इसमें ईश्वर से क्या लेना-देना?" वहीँ अगर कोई गरीब है तब भी ईश्वर देखता है कि यह इस हाल के लिए भी ईश्वर का धन्यवाद करता है या नहीं? मेहनत और इमानदारी से पैसा कमाने कि कोशिश करता है या फिर बुरे कार्यो के द्वारा अपनी आजीविका चलने की कोशिश करता है, इत्यादि....
ईश्वर बीमारियाँ देता है कि व्यक्ति उसको (यानि ईश्वर को) पहचान सके कि सेहत और बीमारी दोनों ईश्वर के हाथ में हैं. वह जब चाहता है सेहत देता है जब चाहता है बीमारी. वही, वह बिमारियों के बदले में पापो को क्षमा कर देता है. यहाँ परीक्षा होती है कि बीमार व्यक्ति यह कहता है कि "हे ईश्वर, इस हाल में भी तेरा शुक्र है!", या फिर यह कहता है "हाय! हाय! कैसा निर्दयी ईश्वर है जिसने मुझे इस परेशानी में डाल दिया?". अगर कोई यह समझता हैं कि अमीर के लिए दुनिया में ही स्वर्ग है, तो यह उसकी ग़लतफ़हमी है. पैसे मिलने या गरीब होने भर से कभी सुख नहीं मिल सकता, अपितु सुख और शांति तो ईश्वर के ही हाथ में हैं. जितने भी संत पुरुष और ऋषि-मुनि गुज़रे हैं, अधिकतर ने माया के त्याग में सुख-शांति की प्राप्ति की है.
हालाँकि ईश्वर तो स्वयं जानता है की कौन कैसा है, उसे परीक्षा लेने की ज़रूरत नहीं है. परीक्षा तो वह इसलिए लेता है कि कोई उसपर यह आरोप या आक्षेप न लगा सके कि उसे तो मौका ही नहीं मिला, वर्ना वह तो ज़रूर उसके बताये हुए रस्ते पर चलता. क्योंकि ईश्वर को साक्षात् अपने सामने पा कर तो कोई भी उससे इनकार नहीं करेगा. परीक्षा तो यही है कि उसकी निशानियों (जैसे की उसकी प्रकृति, ताकत एवं सूचनाओं) पर ध्यान लगा कर उसको अपना ईश मानता है या फिर अपने आप को बड़ा समझता है, या फिर शैतान की बातो में आकर शैतान को ही अपना पालने वाला मानने लगता है.
इसीलिए ही ईश्वर समय-समय पर एवं पृथ्वी के हर कोने में महापुरुषों को अपना संदेशवाहक बना कर भेजता है, जैसे कि श्री इब्राहीम (अ.), श्री नुह (अ.), श्री शीश (अ.) इत्यादि. बहुत से इस्लामिक विद्वान यह मानते हैं कि इस क्रम में श्री राम और श्री कृष्ण जैसे महापुरुष भी शामिल हो सकते हैं. शीश (अ.) का जन्म अयोध्या में बताया जाता है और अक्सर विद्वान इस बात पर विश्वास करते हैं, कि श्री नुह (अ.) ही मनु हैं. नुह और मनु की कहानी में बहुत सी समानताएं भी पाई जाती हैं.
ईश्वर ने आखिर में प्यारे महापुरुष मुहम्मद (उन पर शांति हो) को भेजा और उनके साथ अपनी वाणी कुरआन को भेजा. कुरआन में ईश्वर ने कहा कि उसने इस पृथ्वी पर एक लाख और 25 हज़ार के आस-पास संदेशवाहकों को भेजा है, जिसमे से कई को अपनी पुस्तक (अर्थात ज्ञान और नियम) के साथ भेजा है. लेकिन कुछ स्वार्थी लोगो ने केवल कुछ पैसे या फिर अपनी प्रिसिद्धि के कारणवश उन पुस्तकों में से काफी श्लोकों को बदल दिया. तब ईश्वर ने कुरआन के रूप में अपनी वाणी को आखिरी संदेशवाहक मुहम्मद (उन पर शांति हो) के पास भेजा और क्योंकि वह आखिरी दूत थे और कुरआन को ईश्वर ने अंतिम दिन तक के लिए बनाया था इसलिए यह ज़िम्मेदारी ईश्वर ने स्वयं अपने ऊपर ली कि इस पुस्तक में धरती के अंतिम दिन तक कोई बदलाव नहीं कर पायेगा.
इसके अलावा इंसानों को खुली चेतावनी भी दी कि अगर तुम्हे यह लगता है कि यह पुस्तक स्वयं मुहम्मद (उन पर शांति हो) ने लिखी है अर्थात किसी इंसान के द्वारा लिखी गयी है, तो ऐसी पुस्तक तुम भी लिख कर दिखा दो, अगर लिख पाए तो समझना कि यह पुस्तक (अर्थात कुरआन) किसी इंसान ने लिखी है अन्यथा मान लेना कि यह खुद परम परमेश्वर ने लिखी है और यह किताब पहले भेजी गयी किताबो को सही भी कहती है.
12 comments:
Nice post Shah ji!
क्या बात है शाहनवाज़ भाई! आपने सही कहा है, हमें अपने जीवन का मकसद पता होना चाहिए. लेकिन यह पता कैसे चलेगा?
एक ज्ञान वह है जो मनुष्य की आवश्यकताओं से सम्बंधित होता है, जिसे दुनिया का ज्ञान कहते हैं. इसके लिए ईश्वर ने कोई संदेशवाहक नहीं भेजा, बल्कि वह ज्ञान ईश्वर ने मस्तिष्क में पहले से सुरक्षित कर दिया है. जब किसी चीज़ की आवश्यकता होती है तो मनुष्य मेहनत करता है, उस पर रास्ते खुलते चले जाते हैं.
एक ज्ञान यह है जो जीवन के मकसद से सम्बंधित है कि "मनुष्य दुनिया में आया क्यों है?" अब यह स्वयं दुनिया में आया होता तो इसे मालूम होता कि वह क्यों आया है. अगर मनुष्य ने अपने आप को स्वयं बनाया होता तो इसे मालूम होता कि इसके बन्ने का मकसद क्या है? हम जब कहीं भी जाते हैं, तो हमारा वहां जाने का मकसद होता है, और हमें पता होता है कि हम वहां क्यों जा रहे हैं. ना तो मनुष्य स्वयं आया है और ना इसने अपने आप को स्वयं बनाया है. ना यह अपनी मर्ज़ी से अपना समय लेकर आया है और ना अपनी मर्ज़ी से अपनी शक्ल-सूरत लेकर आया है. पुरुष, पुरुष बना किसी और के चाहने से, महिला, महिला बनी किसी और के चाहने से. रंग-रूप, खानदान, परिवार, यानि जो भी मिला है इस सबका फैसला तो कहीं और से हुआ है. जीवन का समय तो किसी और ने तय किया हुआ है, वह कौन है यह सबसे पहला ज्ञान था.
Achha likhte hain Shahnawaz ji, aise hi likhte rahe aur desh ke andar bhaichara badhane ke liye bhi kaam karen. dhanywad!
Badhiya Likha hai, parantu kya Krishan aur Ram ko Allah ka Nab maanaa jaa sakta hai?
एक ज्ञान यह है जो जीवन के मकसद से सम्बंधित है कि "मनुष्य दुनिया में आया क्यों है?" अब यह स्वयं दुनिया में आया होता तो इसे मालूम होता कि वह क्यों आया है. अगर मनुष्य ने अपने आप को स्वयं बनाया होता तो इसे मालूम होता कि इसके बन्ने का मकसद क्या है?
Mashallah aap kafi achha likhte hain. Lekin kya Ram, Krishn aur Nuh ke Manu hone ki batein theek hain?
Maaf kijiyega magar mujhe thora doubt hai.
nice post
शाहनवाज़ जी
मैने अभी फिरदौस जी की पोस्ट (वंदे मातरम) पर आपका कमेंट पढ़ा। असल में मेरा मानना है कि तमाम लोग ख़ुद को ज़्यादा देशभक्त साबित करने के जोश में संघ परिवार की साजिश के शिकार हो जाते हैं।
वंदे मातरम को समझने के लिये आनंद मठ को समझना होगा, समझना होगा कि क्यों सरकारी अधिकारी बंकिम उस दौर में 1857 का विरोध करते हैं और अंग्रेज़ों की जगह मुसलमानों के विरोध में उठी सन्यासी सेना का गान गाते हैं।
आपने सही स्टैण्ड लिया है।
Dhanywad Ashok Kumar ji!
संभव हो तो कभी http://jantakapaksh.blogspot.com/ जनपक्ष पर आईये…
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