अच्छे कार्यो का स्वर्ग में क्या बदला मिलेगा?

अधिक अच्छी बात तो यह है कि अच्छे कार्यों के बदले में स्वर्ग की इच्छा की जगह ईश्वर को पाना ही मकसद होना चाहिए. जिसने स्वयं ईश्वर को पा लिया उसने सब कुछ पा लिया. यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे कि (उदहारण स्वरुप) एक राजा ने अपनी प्रजा में ऐलान किया कि बाज़ार सजाया जा रहा है, उसमें से कोई भी कुछ भी मुफ्त में ले सकता है. बस फिर क्या था, सब कुछ न कुछ लेने लगे. तभी एक महिला आई और उसने महाराज पर अपना हाथ रख दिया. सही भी है, जिसे राजा मिल गया उसे सभी कुछ मिल गया.

इसमें एक बात तो यह है कि परलोक में अच्छे कार्यों के बदले में जो मिलेगा वह ईश्वर का अहसान होगा, हमारा हक नहीं. और वहां सब उसके अहसान मंद होंगे, जैसे कि इसी धरती पर मनुष्यों को छोड़कर बाकी दूसरी जीव होते हैं.अक्सर सभी धर्मों के लोग परलोक की तुलना पृथ्वी लोक से करते हैं. अब क्योंकि मनुष्यों ने केवल पृथ्वी लोक के ही दर्शन किये हैं इसलिए इस लोक के ही उदहारण दिए जाते हैं, ताकि बात के महत्त्व को समझा जा सके. इस विषय में यह बात बहुत अहम् है कि परलोक का विधान अलग है इसलिए व्यवस्था भी अलग होगी. वहां किसी वस्तु की आवश्यकता इस धरती की तरह नहीं होगी, जैसे कि यहाँ जीवित रहने के लिए भोजन, जल एवं वायु की आवश्यकता होती है. ईश्वर कुरआन में कहता है कि (अर्थ की व्याख्या) उसने वहां का बंदोबस्त ऐसा किया है जिसको किसी आँख ने देखा नहीं होगा तथा जिसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं होगा. अर्थात परलोक की व्यवस्था हमारी सोच की पहुँच से बहुत दूर की बात है.

ईश्वर परलोक के बारे में कहता है कि:

और वहां तुम्हारे लिए वह सब कुछ होगा, जिसकी इच्छा तुम्हारे मन को होगी. और वहां तुम्हारे लिए वह सब कुछ होगा, जिसकी तुम मांग करोगे. [41:31-32]


पवित्र पैग़म्बर मुहम्मद (स.) ने फ़रमाया कि, "अल्लाह कहता है कि, मैंने अपने मानने वालो के लिए ऐसा बदला तैयार किया है जो किसी आँख ने देखा नहीं और कान ने सुना नहीं है. यहाँ तक कि इंसान का दिल कल्पना भी नहीं कर सकता है." (बुखारी 59:8)


पवित्र कुरआन भी ऐसे ही शब्दों में कहता है:

और कोई नहीं जानता है कि उनकी आँख की ताज़गी के लिए क्या छिपा हुआ है, जो कुछ अच्छे कार्य उन्होंने किएँ है यह उसका पुरस्कार है. (सुरा: अस-सज्दाह, 32:17)

स्वर्ग (जन्नत) के ईनाम महिलाओं और पुरुषों के लिए बराबर होंगे:
दूसरी बात यह है कि पृथ्वी की ही तरह स्वर्ग के ईनाम भी महिलाओं और पुरुषों के लिए एक जैसे हैं. वहाँ लिंग के आधार पर थोड़ा सा भी भेदभाव नहीं होगा. यह बात सुरा: अल-अह्जाब से स्पष्ट है:

मुस्लिम पुरुष और मुस्लिम स्त्रियाँ, ईमानवाले पुरुष और ईमानवाली स्त्रियाँ, निष्ठापूर्वक आज्ञापालन करने वाले पुरुष और आज्ञापालन करने वाली स्त्रियाँ, सत्यवादी पुरुष और सत्यवादी स्त्रियाँ, धैर्यवान पुरुष और धरी रखने वाली स्त्रियाँ, विनर्मता दिखाने वाले पुरुष और विनर्मता दिखाने वाली स्त्रियाँ, सदका (दान) देने वाले पुरुष और सदका देने वाली स्त्रियाँ, रोज़ा रखने वाले पुरुष और रोज़ा रखने वाली स्त्रियाँ, अपने गुप्तांगों की रक्षा करने वाले पुरुष और रक्षा करने वाली स्त्रियाँ और अल्लाह को अधिक याद करने वाले पुरुष और यद् करने वाली स्त्रियाँ - इनके लिए अल्लाह ने क्षमा और बड़ा प्रतिदान तैयार कर रखा है. [सुर: अल-अहज़ाब, 33:35]

दोनों को उसने ही बनाया है इसलिए वह दोनों का उनकी जरूरतों और इच्छाओं के अनुसार ध्यान रखेगा. अगर हम ईश्वर को प्राप्त करने के मकसद से कार्य करेंगे तो उसका वादा है की वह हमारी संतुष्टि के लिए इंतजाम करेगा.

क्या स्वर्ग में ७२ पत्नियाँ अथवा हूर मिलेंगी?

इसमें पहली बात तो यह कि "हूर" का मतलब संगी-साथी से है, जो कि महिला तथा पुरुष दोनों हो सकते इसमें कुछ लोग हूर नामक स्त्री साथी से विवाह करने का इच्छुक भी हो सकते हूर" अथवा "अप्सरा" पर विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें: शोभायमान आँखों वाली हूर!

बात अगर एक से अधिक पत्नी के अधिकार की करें तो चाहे पृथ्वी हो अथवा स्वर्ग, बहु विवाह विशेषाधिकार नहीं बल्कि विशेष परिस्थितियों में समाधान भर है. जैसा कि आप को अच्छी तरह से पता होगा कि प्रत्येक कानून में कुछ अपवाद भी होते हैं, और अपवाद कभी भी सिद्धांत नहीं कहलाए जा जाते हैं. कोई भी किसी देश के कानून के बारे में अपवाद को देखकर राय नहीं बना सकता है. अगर दुसरे शब्दों में कहें तो इस्लाम बहुविवाह के दरवाज़े सभी पुरुषों के लिए नहीं खोलता है.

इसका आसान सा मतलब यह है कि यह सुविधा केवल उन्ही लोगों के लिए होगी जो ऐसा चाहते हों. क्योंकि स्वयं ईश्वर ने वादा किया है कि महिलाऐं और पुरुष जो भी चाहेंगे, वह सबकुछ उन्हें मिलेगा. इसमें यह बात भी ध्यान देने वाली है वहां इस बात को कुबूल करने अथवा इंकार करने की विवशता नहीं होगी.


- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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बी एन शर्मा जी (भंडाफोडू) के सवालों का जवाब

बी एन शर्मा जी, आपने लिखा कि अल्लाह के इतना करीब होते हुए भी उसने मुहम्मद (स.) को केवल एक ही लड़का दिया और वह भी कुछ समय बाद मृत्यु को प्राप्त हो गया.

शर्मा जी, क्या ईश्वर के करीब होने और लड़का ना होने का कोई ताल्लुक है? क्या आपकी सोच यह है कि लड़का होना इतनी अच्छी बात है कि जो ईश्वर के करीब होगा उसके घर में लड़कों की भरमार होगी और जो ईश्वर से दूर होगा उसे ईश्वर लड़कियां देगा? आपकी इस सोच पर मुझे गुस्सा नहीं अपितु दया आ रही है. वैसे आपको बताता चलूँ कि मेरे खुदा ने मुझे (माशाल्लाह) दो-दो प्यारी-प्यारी बेटियां दी हैं और यह उस परम-परमेश्वर का मुझपर एहसान है.

आपने मुहम्मद (स.) के वंशजो पर दु:ख की और उनके शहीद होने पर सवाल उठाया, क्योंकि आपका मानना है कि अच्छे लोगों को दुःख नहीं मिलते जबकि हमारा मानना है कि ईश्वर हमेशा अच्छे लोगों को ही दुःख देखर उनकी परीक्षा लेता है कि वह इस हाल में भी ईश्वर का शुक्र अता करते हैं कि नहीं. वैसे परीक्षा उसी की ली जाती है जो इस काबिल होता है और दुःख: झेलकर भी ईश्वर का शुक्र अता करने वाले विरले ही होते हैं. और ऐसे ही विरलों का ज़िक्र आपने अपने लेख में किया है, जिसपर मैं आपका शुक्रगुज़ार हूँ.

आप जानना चाहते हैं कि ईश्वर ने अपने रसूल (संदेशवाहक) के वंशजो को शहीद होने से क्यों नहीं बचाया? आपके कहने का मतलब शायद यह है कि अगर कोई परम गुरु मुहम्मद (स.) जैसे महापुरुष के परिवार का सदस्य या उनका वंशज है तो ईश्वर को उनके लिए पृथ्वी के नियम बदल देने चाहिए? जबकि स्वयं ईश्वर कहता है कि वह मनुष्य पर नहीं अपितु उसके कार्यों पर नज़र डालकर फैसला करता है. रही बात युद्ध में मदद की तो उस ज़माने में ही नहीं बल्कि आज भी ईश्वर सत्य के साथ होता है. और अपने लोगों और अपनी धरती की रक्षा करने वालों की मदद करता है. शायद तुम्हे याद नहीं कि उसकी मदद से ही हमने पाकिस्तान को 4 बार युद्ध के मैदान में धुल चटाई है.

शर्मा जी, आपकी यह बात बिलकुल सही है कि किसी दुसरे मज़हब को मानने वाले अथवा शायरी करने वाले नर्क के वासी नहीं हो सकते हैं. नर्क में जाने का यह कोई कारण है ही नहीं, बल्कि ईश्वर ने कुरआन में कहा कि हमेशा हक का साथ दो चाहे हक बात कोई तुम्हारा दुश्मन ही क्यों ना करे. फिर शायरी तो बड़े-बड़े दीनदार लोगो ने की हैं. आपसे किसने कह दिया कि वह दोजखी हो जाएगा? हाँ अगर कोई ईश्वर अथवा उसके विधान की खुलेआम शब्दों अथवा शायरी के द्वारा खिलाफत करे और मौत तक उसको अपनी गलतियों का पछतावा ना हो तो अवश्य हो सकता है.

आपकी शिकायत है कि मुसलमान मुहम्मद (स.) के वंशजो के कातिलों को रज़िअल्लाहू कह कर आदर करते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है, जिन पर यह बात साबित है उनका आदार नहीं किया जाता है, बल्कि उन पर लानत भेजी जाती है, जैसा की यजीद. रही बात 'रज़िअल्लाहू' कहने की, तो ऐसा मुहम्मद (स.) के उन साथियों को कहा जाता है जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी में ईश्वर के आखिरी संदेशवाहक और मेरे परम गुरु मुहम्मद (स.) को ईमान की हालत में देखा और ईमान की हालत में ही मौत हो गई. अब आप ही बताइए किसी को कैसे पता कि किसकी मौत ईमान की हालत में हुई और किसकी नहीं? यह तो केवल ईश्वर ही जानता है. रही बात इमान की तो अगर किसी ने पूरी दुनिया के इंसानों को भी एक साथ क़त्ल किया हो, तथा उसे अपनी ज़िन्दगी में ही अपनी गलती का एहसास हो गया हो और उसने ईश्वर से अपनी गलतियों की माफ़ी मांग ली हो तो ईश्वर रहीम है और उसका वादा है कि वह उसके गुनाह को माफ़ कर देगा. हाँ यह बात अवश्य है कि जिन लोग के हक को मारा अर्थात जिनको क़त्ल किया वह लोग चाहेंगे तो अवश्य ही अपना हक अल्लाह (ईश्वर) की बारगाह में इन्साफ के दिन मांग ले लेंगे. अर्थात दुनिया में एक-दुसरे के हक माफ़ नहीं होंगे.

मसलन अगर किसी ने किसी से पैसे उधार लिए और नहीं लौटाए तो इन्साफ के दिन उसके बदले में उसे अपने सद्कर्म पैसे के बदले में देने होंगे. इसमें भी अगर उसको दुनिया में ही अपनी गलती का एहसास होगा गया लेकिन पैसे लौटने के लिए उसके पास बचे नहीं तो वह जिससे पैसे उधर लिए थे उससे वह पैसे माफ़ करने की बार-बार गुज़ारिश कर सकता है. और अगर उसने ऐसा किया और पैसे ना होने की वजह से नहीं लौटा पाया तो इन्साफ के दिन ईश्वर स्वयं अपनी तरफ से उधार देने वाले के दफ्तर में पैसे के बदले अच्छाइयां भर देगा.

- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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आत्मा क्या है?

सबसे पहले, हमें 'जीवन' और आत्मा (रूह) का भेद पता करना पड़ेगा। जीवन एक शक्ति है जो प्राणी को रहने के विभिन्न भागों में कार्य करने के योग्य बनाता है। जब तक शरीर में ''जीवन" (अर्थात ऊर्जा है), विभिन्न भाग काम कर सकते हैं। जब शरीर, ऊर्जा (अर्थात जीवन) को खो देता है (एक बैटरी की शक्ति की तरह), उसके सभी भाग कार्य करना बंद कर देते हैं, तब उसका शरीर मृत हो जाता है। मृत्यु का होना ऊर्जा का अभाव है, जिसके बिना शरीर कार्य नहीं कर सकता हैं। सभी प्राणियों (पशुओं और पौधों) को 'जीवन' या ऊर्जा प्राप्त है, जब तक कि उन में जीवन, ऊर्जा की अभिव्यक्ति के रूप में है। कुरआन की आयत (श्लोक) 15:29, 32:9 और 38:72 में निर्दिष्ट है कि रूह जीवन से अलग है।

[15:29] तो तब मैं उसे पूरा बना चुकुं और उसमें अपनी रूह (आत्मा) फुक दूँ तो तुम उसके आगे सजदे में गिर जाना!"

[32:9] फिर उसे ठीक-ठाक कर दिया और उसमें अपनी रूह (आत्मा) फूंकी. और तुम्हे कान और आँखे और दिल दिए. तुम आभारी थोड़े ही होते हो।

[38:72] तो जब मैं उसको ठीक-ठाक कर दूँ और उसमें अपनी रूह (आत्मा) फूँक दूँ, तो तुम उसके आगे सजदे में गिर जाना।"


आत्मा की विशेषता की वजह से फरिश्तो को हुक्म हुआ था कि वह आदम को सजदा करें। आदम के अलावा फ़रिश्ते सिर्फ अल्लाह को सजदा करते हैं - [16:49] और आकाशों और धरती में जितने भी जीवधारी हैं वे सब अल्लाह ही को सजदा करते हैं और फ़रिश्ते भी और वे घमंड बिलकुल नहीं करते। इससे पता चलता है कि आत्मा, ईश्वर के एक गुण का सार है, जब मनुष्य में साँस आई तो उसे फरिश्तो की श्रद्धा के योग्य बना दिया।

इसको ऐसे भी समझ सकते हैं, कि 'रूह' एक 'सॉफ्टवेयर' की तरह है, हम इसके प्रदर्शन को देख तो कर सकते हैं या अनुभव तो कर सकते हैं लेकिन शरीर (अर्थात हार्डवेयर) की तरह छू नहीं सकते।

- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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