अधिकतर मान्यताओं के अनुसार इस्लाम में संगीत हराम है

अपने ब्लॉग महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर (Suresh Chiplunkar) जी ने एक लेख लिखा जो कि गुजरात के भरूच जिले में चल रहे एक रहत शिविर पर आधारित था.

"अरे?!!!… मोदी के गुजरात में ऐसा भी होता है? ...... Gujrat Riots, Relief Camp and NGOs in India"

जिस पर मेरा कमेंट्स था कि :
"चिपलूनकर साहब, संगीत इस्लाम में हराम है और अगर इस्लामिक शरियत के हिसाब से इकट्ठे लोगो के खून पसीने से कमाए हुए पैसे से किसी की मदद की जाती है तो क्या उस पैसे का प्रयोग ग़ैर-इस्लामी तरीके से हो सकता है? मैं स्वयं भी ज़कात देता हूँ, लेकिन कभी भी ऐसी जगह ज़कात नहीं दे सकता हूँ जहाँ ग़ैर-इस्लामी कार्य होते हों. वैसे मैं तो हमेशा शिक्षण संस्थानों में ही अपनी ज़कात देता हूँ.



हाँ ज़बरदस्ती टोपी पहनना या दाढ़ी रखवाने बिलकुल ही गलत कार्य है, इसकी निंदा अवश्य ही होनी चाहिए. क्योंकि ऐसे कार्य मनुष्य और प्रभु के प्रेम पर आधारित होते हैं, इस तरह के कार्यों पर ज़बरदस्ती की इजाज़त शरियत कानून में भी नहीं होती है. ऐसा कानून शरियत का नहीं अपितु तालिबान का ही हो सकता है.

और रही शरियत कानून की बात तो मुसलमान शरियत के तहत ही अपनी ज़िन्दगी बसर करते हैं. बार-बार क्यों यह बात लिख कर कि इन पर शरियत कानून लागु कर दो, आप लोग शरियत कानून का हौव्वा खड़ा करते हैं?
हमने तो स्वयं अपने ऊपर शरियत कानून लागु कर रखा है. क्या आपको पता भी है कि शरियत कानून क्या है? या सिर्फ तालिबानी कानूनों को शरियत कानून मान कर बैठे हैं?
 
इस पर सुरेश जी ने दो प्रश्न लिखे:
@ शाहनवाज़ - आपने कहा कि
1) "संगीत इस्लाम में हराम है"

इसे साबित करने के लिये हदीस या कुरान का कोई पैराग्राफ़ बतायें, कि इस्लाम में संगीत क्यों हराम है?, कैसे हराम है? इन बातों की डीटेल्स, मोहम्मद रफ़ी, नौशाद से लेकर एआर रहमान तक सभी मुस्लिम संगीतकारों-गायकों को ध्यान में रखकर दीजिये… या तो यहाँ टिप्पणी करके मेरा (सबका) ज्ञान बढ़ाईये या आपकी अंजुमन पर एक विस्तृत पोस्ट लिखिये…।


2) आपने कहा कि - "रही शरियत कानून की बात तो मुसलमान शरियत के तहत ही अपनी ज़िन्दगी बसर करते हैं"

 
क्या दाऊद इब्राहीम, अबू सलेम, अब्दुल करीम तेलगी, अजमल कसाब और अफ़ज़ल गुरु भी शरीयत के अनुसार जीवन-यापन करते हैं? यदि हां तो कैसे और यदि नहीं, तो इन लोगों पर शरीयत के अनुसार सजा मुकर्रर की जाये, क्या आप सहमत हैं?


मेरे उपरोक्त दोनो "नादान" सवालों के जवाब अवश्य दीजियेगा, आपको न पता हों तो अपने "गुरुजी" से पूछकर ही दीजियेगा, लेकिन पूरे विस्तार से दीजियेगा, ताकि हमें भी तो पता चले।


इसमें पहली बात तो यह कि गाना इस्लाम में प्रतिबंधित नहीं है, मुसलमान ना`त (मुहम्मद स. की तारीफ़) इत्यादि जैसे गीत गाते हैं. लेकिन कई प्रकार के संगीत है जो कुरान और हदीस (मुहम्मद स. की बताई हुई बातें) के द्वारा निषिद्ध है, जैसे कि मनोरंजन के लिए बजने वाला संगीत. लेकिन "सभी प्रकार के संगीत निषिद्ध हैं" इस विषय पर इस्लामिक विद्वानों की अलग-अलग राय हैं. इसलिए इस विषय पर बहस करना अनुचित है.

शैख़-अल-इस्लाम इब्न-तय्मियाह (रह.) ने फ़रमाया: "चारों इमामों (सुन्नी इमाम) का नजरिया संगीत के प्रति यह है कि हर तरह के संगीत का यंत्र हराम है. किसी भी इमाम अथवा उनके शिष्यों में संगीत से सम्बंधित मामले में कोई विरोधाभास नहीं है." (अल-मजमू, 11/576).

अल-अल्बानी (रह.) ने फ़रमाया: "इस्लाम के चारों मज़हब इस बात पर सहमत हैं, कि संगीत का सारे यंत्र हराम हैं. (अल-सहीहः, 1/145).
 
उपरोक्त उदहारण से यह पता चलता है कि इस्लाम में अधिकतर लोग संगीत को हराम (निषिद्ध) मानते हैं. परन्तु कौन क्या मानता है, यह आस्था का प्रश्न है. आप किसी को भी अच्छी बातें बता तो सकते हैं, परन्तु वह माने अथवा नहीं इसका फैसला तो उक्त व्यक्ति पर ही निर्भर होना चाहिए. मेरा धर्म किसी पर भी ज़बरदस्ती की इजाज़त नहीं देता है. क्योंकि धर्म का रिश्ता आस्था से है और आस्था पर केवल और केवल ह्रदय का ही वश चलता है.

अगर कोई यह मानता है कि इस्लाम में संगीत हराम है, तो वह अपने खून-पसीने की कमाई में से दी गई ज़कात को ऐसे कार्यों अथवा ऐसी जगह पर लगते हुए नहीं देख सकता है, जहाँ संगीत के प्रयोग जैसे बड़े धार्मिक नियमों का उल्लंघन होता हो.  इसमें एक बात और महत्वपूर्ण है, कि ज़कात और मदद में फर्क होता है. मदद की कोई कम या अधिक सीमा नहीं होती है, जबकि ज़कात अर्थात अपनी बचत में से 2.5 प्रतिशत देना हर एक के लिए आवश्यक होता है. जहाँ मदद किसी को भी कुछ भी देखे बिना दी जा सकती है, वहीँ ज़कात पूरी तरह छान-बीन करके ही दी जाती है, कि वह सही और आवश्यकता की जगह पहुँच रही है अथवा नहीं. इसमें यह भी देखना आवश्यक होता है कि जो व्यक्ति ज़कात मांग रहा है वह इसका हक़दार है भी अथवा नहीं, कहीं ऐसा तो नहीं कि वह खुद अपनी आजीविका चलाने का सामर्थ्य रखता हो तथा जो सामर्थ्य नहीं रखते उनका हक मार रहा हो. ऐसा पाए जाने पर उतने हिस्से की ज़कात दुबारा दिया जाना आवश्यक है.

अब ऐसे में ज़कात के पैसे से चलने वाले किसी 'शिविर' में अगर कोई व्यक्ति किसी प्रतिबंधित कार्य को करता है तो यह बिलकुल ऐसा है जैसे कोई मांसाहार को अनुचित समझने वाला व्यक्ति गरीब लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था करे और भोजन ग्रहण करने वाले लोग मांसाहार की मांग करें और कहें कि हमारे देश में मांसाहार की इजाज़त है. तो क्या उनकी मांग उचित होगी???

रही बात मौहम्मद रफ़ी अथवा ए. आर. रहमान अथवा इन जैसे गायकों अथवा संगीतकारों की तो में किसी भी मनुष्य के ऊपर उसके कार्यों के द्वारा कमेंट्स नहीं कर सकता हूँ. वैसे भी केवल संगीत का प्रयोग करने भर से कोई इस्लाम से बाहर नहीं हो जाता है. इस्लाम से बाहर केवल वही हो सकता है जो कि ईश्वर को ना माने एवं उसके आदेशो को अपनी अक्ल से गलत ठहराए. और यह भी आवश्यक नहीं कि इंसान खुले-आम ईश्वर को मानने का ऐलान करे. इसलिए दुनिया में कौन काफिर है, यह तो केवल ईश्वर ही जानता है. इसलिए कुरआन में उसने दूसरों को काफ़िर बोलने से मना फ़रमाया है.

लेकिन किसी भी धार्मिक संस्था को उसके धर्म के अनुरूप राहत शिविर चलाने कि आज्ञा अवश्य होनी चाहिए. मेरा एक मित्र पास के ही एक वैदिक आश्रम में योग शिविर में हिस्सा लेने के लिए गया, परन्तु वहां उसको एक फॉर्म दिया गया जिसमें लिखा था कि वह अपनी इच्छा से 'ॐ' शब्द का उच्चारण तथा सूर्य नमस्कार करेगा, जिस पर उसको एतराज़ हुआ. हालाँकि उपरोक्त आश्रम को हमारी सरकार से भी अनुदान मिलता है, फिर भी मेरी उस मित्र को सलाह यही थी, कि उक्त आश्रम को अपने धर्म के हिसाब से 'योग शिविर' चलने का पूरा हक है. अगर तुम्हे उसके नियम पसंद नहीं आते हैं, तो उसमे हिस्सा लेने की कोई आवश्यकता नहीं है, परन्तु उसका विरोध करना अनुचित है.

फिर सबसे बड़ी बात तो यह है, कि जिस लोगो का आपने ज़िक्र किया वह एक शरणार्थी शिविर में रह रहे हैं, जहाँ पैसे की कमी की वजह से बहुत सी आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध नहीं होंगी. ऐसे में अपने थोड़े से पैसो को जीवन के लिए बहुत सी आवश्यक वस्तुओं पर खर्च करने की जगह टी.वी. जैसी वस्तुओं पर खर्च करना कोई अक्लमंदी का काम नहीं है. पैसे को बचा कर जल्द से जल्द ऐसे शिविरों की जगह अपने स्वयं के खर्च से अपने रहने का इंतजाम करना क्या अधिक अकलमंदी का कार्य नहीं है?

बात अगर दाऊद इब्राहीम, अबू सलेम, अब्दुल करीम तेलगी, अजमल कसाब और अफ़ज़ल गुरु जैसे अपराधियों एवं मानवता के दुश्मनों के बारे में की जाए है तो इनको अवश्य ही सख्त से सख्त सजा होनी चाहिए. अगर यह शरियत के तहत ज़िन्दगी बसर करते तो यह इतने जघंन्य अपराध करते ही नहीं. माननिये सुरेश जी, कृपया करके तालिबानी कानूनों को शरियत का कानून मानने की गलती नहीं करें.

अंत में एक बात कहना अति-आवश्यक है, सुरेश जी मेरे प्यारे वतन के निवासी होने के नाते मेरे भाई हैं तथा मुझसे बड़े होने के नाते उनकी इज्ज़त करना मेरा धर्म है. इसलिए अगर कहीं भी, कुछ भी गलत लिख दिया हो तो क्षमा का प्रार्थी हूँ और चाहता हूँ कि वह अवश्य ही मेरी गलती को मेरे संज्ञान में लाएं.

-शाहनवाज़ सिद्दीकी
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