फौज़िया जी को मेंरा सलाम!

फौज़िया जी को मेंरा सलाम! आपने जिस तरह मर्दो की बुराईयों के खिलाफ आवाज़ उठाई, वह वाकई में काबिले-तारीफ है। और मर्दो में अक्सर होने वाली इन बुराईयों का विरोध अवश्य ही होना चाहिए। अब तक औरतें निरक्षरता की वजह से बेवकूफ बनती आई हैं और अक्सर मर्द अपने अहम के कारण उनको पैर की जूती समझते आए है। यह एक अमानवीय व्यवहार है और इसको बर्दाश्त करने वाले हम जैसे लोग भी इसके लिए उतने ही ज़िम्मेदार हैं जितने इस तरह की सोच रखने वाले अन्य मर्द।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं की कोई भी धर्म उनको ऐसा करने की इजाज़त देता है। दरअसल सारा मसला शुरू होता है अपने-अपने हिसाब से धर्मग्रन्थों की गई व्याख्याओं से। दुनिया को बेवकूफ बनाने के इरादे से कुछ धर्मगुरू चाहते ही नहीं थे कि धर्मग्रन्थों की शिक्षा आम हो ताकि उनकी दुकानें चलती रहें। लेकिन जिस तरह शिक्षा आम हुई और लोगो ने धर्मग्रन्थो को भी समझने की कोशिश शुरू की तो इन तथाकथित मुल्ला-पंडितो के अधकचरे ज्ञान भी सामने आने लगे। अगर ध्यान से देखा जाए और सही संक्षेप में समझा जाए तो सारी की सारी मिथ्या एवं भ्रामक बातें स्वतः समाप्त हो सकती हैं।

इस्लाम में पाक अथवा पाकी (पवित्रता) का सबसे अधिक महत्त्व है, यहां तक की इसको आधा ईमान बताया गया है। लेकिन यह पाकी आमतौर पर प्रयोग में आने वाले शब्द ‘पवित्र’ से कुछ अलग है, यहां ‘पाक’ का अर्थ शारीरिक स्वच्छता से है। जैसे कोई भी मर्द अथवा औरत अगर मल-मूत्र त्याग करने के बाद शरीर के संबधित हिस्से को पानी से अच्छी तरह से नहीं धोता है और गंदगी उसके शरीर में लगी रह जाती है तो वह शरीर उस समय पूजा के लायक नहीं होता है (हाँ अगर पानी उपलब्ध ही ना हो तो अलग बात है), इसी तरह औरत और मर्द दोनों के कुछ ‘पल’ नापाकी के होते हैं और नहाने के बाद ही पूजा करने की इजाज़त होती है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की औरत या मर्द तब अपवित्र हो जाते हैं, उन पलों में सामान्यतः प्रभु को याद करने तथा उसकी उपासना करने की पूरी इजाज़त होती है, केवल उन कार्यो की मनाही होती है जिन्हे करने के लिए स्वच्छता अतिआवश्यक होती है। और इसकी वजह कुछ शारीरिक बदलाव होने के कारण होने वाली अस्वच्छता के अलावा और कुछ भी नही होता, इसलिए इसे अन्यथा ना लेकर सामान्य प्रक्रिया समझना चाहिए।

नापाकी के समय औरत को अछूत समझना बेवकूफी ही नहीं बल्कि जाहिलियत है। ऐसे समय में तो औरत को और भी अधिक अपनों के साथ की आवश्यकता होती है। इस्लाम के मुताबिक जब औरत किसी बच्चे को जन्म देती है तो उस पर जन्नत (स्वर्ग) वाजिब (आवश्यक) हो जाती है। इसे एक औरत का दूसरा जन्म समझना चाहिए, क्योंकि औरत मौत के मूंह से वापिस आती है।


इस तरह की किसी भी बात से कोई भी औरत अथवा मर्द नापाक नहीं होता है और इसके लिए खुद को पानी की छींटों से पाक करने की कोई भी आवश्यकता नही होती है। यह तो कतई जाहिलियत की बात है और अगर कहीं ऐसा होता है तो हमें जमकर इसका विरोध करना चाहिए। इस्लाम की बुनियादी बातों में से एक यह भी है कि जिस कार्य के लिए अल्लाह का हुक्म नहीं है, उसे इस्लाम के नाम पर करने की सख्त मनाही है।

ईश्वर के लिए मर्द और औरत बराबर है और दोनो ही से उसने जीवन यापन के तरीको का हिसाब लेना है। दोनो के साथ एक जैसा ही इंसाफ होना है, यहां तक कि फेल और पास का फल भी दोनो के लिए एक जैसा है। स्वर्ग का आशीर्वाद महिलाओं और पुरुषों के लिए एक जैसा हैं] वहाँ दो लिंग के बीच एक छोटा सा भी अंतर नहीं है। यह सुरा: अल-अह्जाब से स्पष्ट है:

मुस्लिम पुरुष और मुस्लिम स्त्रियाँ, ईमानवाले पुरुष और ईमानवाली स्त्रियाँ, निष्ठापूर्वक आज्ञापालन करने वाले पुरुष और आज्ञापालन करने वाली स्त्रियाँ, सत्यवादी पुरुष और सत्यवादी स्त्रियाँ, धैर्यवान पुरुष और धैर्य रखने वाली स्त्रियाँ, विनर्मता दिखाने वाले पुरुष और विनर्मता दिखाने वाली स्त्रियाँ, सदका (दान) देने वाले पुरुष और सदका (दान) देने वाली स्त्रियाँ, रोज़ा रखने वाले पुरुष और रोज़ा रखने वाली स्त्रियाँ, अपने गुप्तांगों की रक्षा करने वाले पुरुष और रक्षा करने वाली स्त्रियाँ और अल्लाह को अधिक याद करने वाले पुरुष और याद करने वाली स्त्रियाँ - इनके लिए अल्लाह ने क्षमा और बड़ा प्रतिदान तैयार कर रखा है [सुर: अल-अहज़ाब, 33:35]

जहां तक बात हूर की है तो यह जानना आवश्यक है कि हूर शब्द का प्रयोग औरत और मर्द दोनो के लिए किया गया है, हूर शब्द का अर्थ शोभयमान आँखे वाला/वाली है (विस्तृत जानकारी के लिए मेंरा लेख शोभयमान आँखे वाली हूर’ पढें). शब्द हूर, अहवार (एक आदमी के लिए) और हौरा (एक औरत के लिए) का बहुवचन है। इसका मतलब ऐसे इंसान से हैं जिसकी आँखों को "हवार" शब्द से संज्ञा दी गयी है। जिसका मतलब है ऐसी आंखे जिसकी सफेदी अत्यधिक सफ़ेद और काला रंग अत्यधिक काला हो। शब्द अहवार (हूर का एकवचन) शुद्ध या शुद्ध ज्ञान का भी प्रतीक है। और स्वर्ग में औरत और मर्द दोनो को ही हूरे मिलने का वादा है तो इसका अर्थ नौकर, साथी अथवा मित्र इत्यादि हो सकता है। जहां तक स्वर्ग में अनछूई हूरों की बात है तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उनके साथ सहवास के लिए प्रेरित किया गया है। इसका अर्थ है जिन्हे दुनिया की किसी आँख ने कभी नहीं देखा और जो अपने मालिक / मित्र / साथी के प्रति वफादार हैं। और मेरे विचार में औरत और मर्द का एक दूसरे के प्रति वफादार होना कोई बुरा काम नहीं है, बल्कि यह तो मज़बूत रिश्ते की बुनियाद है।

- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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धर्म वही है जिसकी बातें हर युग में प्रासंगिक हों वर्ना वह साधारण ज्ञान है

प्रवीण जी ने कहा:

सभी धर्मों के धर्मग्रंथों में बहुत सी ऐसी बातें लिखी गई या बताई गई हैं जो उस युग के मनुष्य की अवैज्ञानिक धारणाओं, सीमित सोच, सीमित ज्ञान (या अज्ञान), तत्कालीन देश-काल की परिस्थितियों व लेखक के अपने अनुभवों या मजबूरियों पर आधारित हैं, आज के युग में इन मध्य युगीन या उससे भी प्राचीन बातों की कोई प्रासंगिकता या उपयोग नहीं रहा, यह सब बातें आज आदमी की कौम को जाहिलियत व वैमनस्य की ओर धकेल रही हैं व इन सब बातों को आप बेबुनियाद-बेकार-बकवास की श्रेणी में रख सकते हैं और अब समय आ गया है कि धर्माचार्यों को अपने अपने ग्रंथों की विस्तृत समीक्षा कर इन बातों को Disown कर देना चाहिये। "


प्रवीण जी मैं आपकी बातों से बिलकुल सहमत नहीं हूँ.  जो ज्ञान हर युग में प्रासंगिक हों वही तो धर्म है वर्ना वह साधारण ज्ञान कहलाता है. धर्म एक ईश्वरीय ज्ञान होता है और ईश्वर का ज्ञान सदा के लिए होता है. यह तो मनुष्य का ज्ञान है, जो एक अरसे बाद गलत साबित हो जाता है. ईश्वर का ज्ञान तो वही है जो कभी गलत साबित हो ही ना पाए. यह तो हो सकता है कि कोई धार्मिक बात हमारे समझ में ना आए, परन्तु यह नहीं हो सकता कि ईश्वरीय बात गलत हो जाए. इसलिए अगर कोई बात समझ में ना आए तो यह सोचना कि वह बात ही गलत है और यह सोच कर ज्ञानी पुरुषों से प्रश्न ही ना करना बेवकूफी है. इसलिए हर धर्म में कहा गया है कि ज्ञान का प्राप्त करना मनुष्य का फ़र्ज़ है.

धर्मग्रंथो में लिखी गई बाते अगर आज के युग के लिय अप्रासंगिक होती, तो आज भी वैज्ञानिक उनको खागालने में नहीं लगे होते? आज पूरी दुनिया योग की तरफ भाग रही है, अध्यात्म की और लौट रही है. पुरे विश्व में वह लोग जो किसी खुदा को नहीं मानते थे, आज आस्तिक बन रहे हैं. तो इसके पीछे हमारे धर्माचार्यों की मेहनत और उनकी मेहनत के फलस्वरूप ईश्वर की ओर से दिया हुआ ज्ञान ही है. बस ज़रूरत है उस ज्ञान को आत्मसात करने की.

अगर आप विज्ञान को देखोगे तो पाओगे कि कितनी ही बातें धार्मिक ग्रंथो से ली गई हैं. जो बातें अबसे हजारों वर्ष पहले महापुरुष लोगो को बता कर गए, आज जाकर विज्ञान उनको सिद्ध कर रहा है. आखिर कहाँ से उन महापुरुषों के पास इतना ज्ञान आया? आज अगर इन्टरनेट पर सर्च करोगे तो हजारों ऐसी रिसर्च मिल जाएंगी, क्या वह सब की सब गलत हैं?

आप कह रहे हैं कि धार्मिक बातें इन्सान को जाहिलियत और वैमनस्य की ओर धकेल रही हैं, और मेरा दावा है कि सिर्फ और सिर्फ धार्मिक बातें ही इंसान को जाहिलियत और वैमनस्य से रोक सकती हैं. यह जो जाहिलियत और वैमनस्य फ़ैलाने वाले लोग हैं, असल में यह अपने धर्म का पालन करने वाले लोग है ही नहीं, बल्कि धर्म का इस्तेमाल करने वाले लोग हैं. इन्हें आप धर्म के व्यापारी कह सकते हैं, जो कि अपने फायदे के लिए धार्मिक ग्रंथो को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं. मेरा मानना है कि इन लोगो को हलके में नहीं लेना चाहिए, यह पूरी एक मुहीम है और इसके पीछे कोई बहुत बड़ा संगठन काम कर रहा है.

जिसका मकसद अपना उल्लू सीधा करने के लिए लोगो को बेवक़ूफ़ बनाना हो सकता है. क्योंकि वह लोग जानते हैं, कि जिन्हें अपने धर्म के बारे में जानकारी नहीं है, उन्हें ही बेवक़ूफ़ बनाया जा सकता है. और इस समस्या से निजात पाने का तरीका भी यही है, कि पुराने ढर्रे पर ना चलकर लोगों को जागरूक बनाया जाए. धर्म की सही शिक्षाओं को सामने लाया जाए, ताकि अन्धकार दूर हो.

या फिर यह भी हो सकता है कि कैसे लोगो को उनके धर्म से दूर ले जाया जाए. ज़रा सोचिये क्यों नहीं पश्चिम के धर्मों के बारे में गलत बातें सामने आती? क्यों सिर्फ हमें ही निशाना बनाया जाता है?

रही बात समीक्षा की तो लोगो के द्वारा की जा रही अनावश्यक समीक्षा की वजह से ही तो सारा फसाद फ़ैल रहा है. मेरे विचार से तो समीक्षा उसकी की जानी चाहिए है जिसकी कोई बात गलत साबित हो.
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ब्लॉग निरस्त करवाने की धमकियाँ!

ब्लॉग "प्रेम रस" के लेख "एक-दूसरे के धर्म, आस्था अथवा लेखों की आलोचनाओं में व्यतीत होता समय" पर कुछ लोगों ने मुझे मेरा ब्लॉग निरस्त होने की धमकी दी!

उन लोगो को तो मैंने जवाब दे दिया. पर मैं आप लोगो से मालूम करना चाहता हूँ कि क्या गलतियाँ केवल एक तरफ से हो रही है? क्या चुप-चाप कमेंट्स करने वाले लोग वहीँ हैं जिन्हें आप सोच रहे हैं? यह भी तो हो सकता है, कि उनकी जगह एक-दुसरे को लड़वाने वाले लोग ऐसे कमेंट्स कर रहे हों?

मेरे ब्लॉग पर धमकी देने वालो को मेरा जवाब:
"आपने मेरा गैंग तो बता दिया, चलते-चलते अपना गैंग भी बता देते? वैसे यह गैंग-वैंग की सोच आप जैसों की हो सकती है.

वैसे आपको बताता चलूँ, कि मैं पक्का मुल्ला (एक इस्लामिक डिग्री धारक) तो नहीं हाँ पक्का मुसलमान अवश्य हूँ. और एक मुसलमान होने पर मुझे पूरा गर्व है, बिलकुल ऐसे ही जैसे किसी को भी अपने धर्म पर गर्व होता है.

रही बात ब्लॉग निरस्त होने की, तो यह धमकी किसी ओर को दीजियेगा, यहाँ ना तो धमकियों से डरने वाले लोग हैं और ना धमकियों के बदले में दूषित भाषा का प्रयोग करने वाले. वैसे आप हैं कौन धमकी देने वाले?

चलिए मैं आपको ही चैलेंज दिए देता हूँ, मेरा एक भी लेख अथवा टिप्पणी को ढूंड कर दिखा दीजिये, जिससे किसी की भी भावना आहत हुई है? है दम?


किसी की भावनाओं को नुक्सान पहुँचाना ना तो मेरे संस्कारों में है और ना ही मेरे धर्म के शिक्षाओं में. उलटे दूसरों की भावनाओ का ख्याल रखने की शिक्षा दी है मेरे गुरु मुहम्मद (स.) ने. विश्वास नहीं होता है तो "हमारी अंजुमन" में पब्लिश हुआ मेरा लेख पढ़कर देखिये, जहाँ सिर्फ लफ्फेबाज़ी नहीं बल्कि बल्कि सबूतों के साथ बातें हैं.

"गैर-मुसलमानों के साथ संबंधों के लिए इस्लाम के अनुसार दिशानिर्देश"

Wednesday, April 14, 2010


हमें विस्तार से पता होना चाहिए कि इस्लाम के अनुसार मुसलमानों को गैर-मुसलमानों के साथ कैसे संबंध रखने चाहिए और कैसे उनके साथ इस्लामी शरी'अह के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए?


सब तारीफें अल्लाह के ही लिए हैं.
पहली बात तो यह कि इस्लाम दया और न्याय का धर्म है. इस्लाम के लिए इस्लाम के अलावा अगर कोई और शब्द इसकी पूरी व्याख्या कर सकता है तो वह है न्याय".

मुसलमानों को आदेश है कि ग़ैर-मुसलमानों को ज्ञान, सुंदर उपदेश तथा बेहतर ढंग से वार्तालाप से बुलाओ.  ईश्वर कुरआन में कहता है (अर्थ की व्याख्या):


[29: 46] और किताबवालों से बस उत्तम रीति से वाद-विवाद करो - रहे वे लोग जो उनमे ज़ालिम हैं, उनकी बात दूसरी है. और कहो: "हम ईमान लाए उस चीज़ पर जो हमारी और अवतरित हुई और तुम्हारी और भी अवतरित हुई. और हमारा पूज्य और तुम्हारा पूज्य अकेला ही है और हम उसी के आज्ञाकारी हैं."

[9:6] और यदि मुशरिकों (जो ईश्वर के साथ किसी और को भी ईश्वर अथवा शक्ति मानते हैं) में से कोई तुमसे शरण मांगे, तो तुम उसे शरण दे दो, यहाँ तक कि वह अल्लाह की वाणी सुन ले. फिर उसे उसके सुरक्षित स्थान पर पंहुचा दो; क्यों वे ऐसे लोग हैं, जिन्हें ज्ञान नहीं है.

इस्लाम यह अनुमति नहीं देता है कि एक मुसलमान किसी भी परिस्थिति में किसी गैर-मुस्लिम (जो इस्लाम के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार नहीं करता) के साथ बुरा व्यवहार करे. इसलिए मुसलमानों को किसी ग़ैर-मुस्लिम के खिलाफ आक्रमण की, या डराने की, या आतंकित करने, या उसकी संपत्ति गबन करने की, या उसे उसके सामान के अधिकार से वंचित करने की, या उसके ऊपर अविश्वास करने की, या उसे उसकी मजदूरी देने से इनकार करने की, या उनके माल की कीमत अपने पास रोकने की जबकि उनका माल खरीदा जाए. या अगर साझेदारी में व्यापार है तो उसके मुनाफे को रोकने की अनुमति नहीं है.

इस्लाम के अनुसार यह मुसलमानों पर अनिवार्य है गैर मुस्लिम पार्टी के साथ किया करार या संधियों का सम्मान करें. एक मुसलमान अगर किसी देश में जाने की अनुमति चाहने के लिए नियमों का पालन करने पर सहमत है (जैसा कि वीसा इत्यादि के समय) और उसने पालन करने का वादा कर लिया है, तब उसके लिए यह अनुमति नहीं है कि उक्त देश में शरारत करे, किसी को धोखा दे, चोरी करे, किसी को जान से मार दे अथवा किसी भी तरह की विनाशकारी कार्रवाई करे. इस तरह के किसी भी कृत्य की अनुमति इस्लाम में बिलकुल नहीं है.

जहाँ तक प्यार और नफरत की बात है, मुसलमानों का स्वाभाव ग़ैर-मुसलमानों के लिए उनके कार्यो के अनुरूप अलग-अलग होता है. अगर वह ईश्वर की आराधना करते हैं और उसके साथ किसी और को ईश्वर अथवा शक्ति नहीं मानते तो इस्लाम उनके साथ प्रेम के साथ रहने का हुक्म देता है. और अगर वह किसी और को ईश्वर का साझी मानते हैं, या ईश्वर पर विश्वास नहीं करते, या धर्म के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं और ईश्वर की सच्चाई से नफरत करते है, तो ऐसा करने के कारणवश उनके लिए दिल में नफरत का भाव आना व्यवहारिक है.

[अल-शूरा 42:15, अर्थ की व्याख्या]:
"और मुझे तुम्हारे साथ न्याय का हुक्म है. हमारे और आपके प्रभु एक ही है. हमारे साथ हमारे कर्म हैं और आपके साथ आपके कर्म."

इस्लाम यह अनुमति अवश्य देता  है कि अगर ग़ैर-मुस्लिम मुसलमानों के खिलाफ युद्ध का एलान करें, उनको उनके घर से बेदखल कर दें अथवा इस तरह का कार्य करने वालो की मदद करें, तो ऐसी हालत में मुसलमानों को अनुमति है ऐसा करने वालो के साथ युद्ध करे और उनकी संपत्ति जब्त करें.

[60:8] अल्लाह तुम्हे इससे नहीं रोकता है कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और ना तुम्हे तुम्हारे अपने घर से निकाला. निस्संदेह अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है.

[60:9] अल्लाह तो तुम्हे केवल उन लोगो से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हे तुम्हारे अपने घरों से निकला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की. जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम हैं.


क्या इस्लाम काफिरों का क़त्ल करने का हुक्म देता है?

कुछ लोग इस्लाम के बारे में भ्रान्तिया फ़ैलाने के लिए कहते हैं, कि इस्लाम में गैर-मुसलमानों को क़त्ल करने का हुक्म है. इस baren में ईश्वर के अंतिम संदेष्ठा, महापुरुष मौहम्मद (स.) की कुछ बातें लिख रहा हूँ, इन्हें पढ़ कर फैसला आप स्वयं कर सकते हैं:

"जो ईश्वर और आखिरी दिन (क़यामत के दिन) पर विश्वास रखता है, उसे हर हाल में अपने मेहमानों का सम्मान करना चाहिए, अपने पड़ोसियों को परेशानी नहीं पहुंचानी चाहिए और हमेशा अच्छी बातें बोलनी चाहिए अथवा चुप रहना चाहिए." (Bukhari, Muslim)


"जिसने मुस्लिम राष्ट्र में किसी ग़ैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, उसने मुझे ठेस पहुंचाई." (Bukhari)

"जिसने एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, मैं उसका विरोधी हूँ और मैं न्याय के दिन उसका विरोधी होउंगा." (Bukhari)

"न्याय के दिन से डरो; मैं स्वयं उसके खिलाफ शिकायतकर्ता रहूँगा जो एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के साथ गलत करेगा या उसपर उसकी जिम्मेदारी उठाने की ताकत से अधिक जिम्मेदारी डालेगा अथवा उसकी किसी भी चीज़ से उसे वंचित करेगा." (Al-Mawardi)

"अगर कोई किसी गैर-मुस्लिम की हत्या करता है, जो कि मुसलमानों का सहयोगी था, तो उसे स्वर्ग तो क्या स्वर्ग की खुशबू को सूंघना तक नसीब नहीं होगा." (Bukhari).



एवं पवित्र कुरआन में ईश्वर कहता है कि:

इसी कारण हमने इसराईल की सन्तान के लिए लिख दिया था, कि जिसने किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या धरती में फ़साद फैलाने के के जुर्म के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे ही इंसानों की हत्या कर डाली। और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो सारे इंसानों को जीवन प्रदान किया। उनके पास हमारे रसूल (संदेशवाहक) स्पष्‍ट प्रमाण ला चुके हैं, फिर भी उनमें बहुत-से लोग धरती में ज़्यादतियाँ करनेवाले ही हैं [5:32]

- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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डॉ. अनवर जमाल साहब अब बहुत हो गया - शाहनवाज़ सिद्दीकी

आखिर कब तक उकसावे में आकर अपनी उर्जा को बर्बाद करते रहोगे! जैसे लेखन का प्रयोग आपने अपनी पुस्तक "दयानंद जी ने क्या खोया क्या पाया" में किया था, अपनी प्रतिभा को वैसे ही प्रयोग करिए, ताकि लोगो ने जो इस्लाम के बारे में मिथ्या प्रचार फैला रखा है, उसका अंत हो. वैसे भी इंसान को हमेशा मधुर वाणी  का प्रयोग करना चाहिए, कटु- वाणी के प्रयोग से कभी भी बात के महत्त्व का पता नहीं चलता है. कुछ लोग आपको विषाक्त विषयों में उलझाए रखना चाहते हैं, इन लोगो का मकसद ही यह हो सकता है की आपको झगड़ो में उलझाए रखा जा सके. मेरे विचार से तो आपको हिन्दू-मुस्लिम एकता पर लिखना चाहिए, क्योंकि प्रेम और शांति से बढ़कर विश्व में कोई भी विषय नहीं हो सकता है. आपके ब्लॉग का नाम वेद और कुरआन है, तो क्यों ना इन दोनों धर्मों के ग्रंथो के बीच यक्सू (एक जैसी) बातों को दुनिया के सामने लाया जाए.

मेरा भी यही मानना है, की सबसे पुराना धर्म सनातन धर्म ही है. यह धर्म आदम (अ.) के धरती पर पैदा होने के समय से चला आ रहा है. इस्लाम कोई नया धर्म नहीं अपितु वही पुराना सनातन धर्म ही है.

इस्लाम कभी भी इस बात की इजाज़त नहीं देता है, कि किसी के भी मज़हब के बारे में उल्टा-सीधा लिखा जाए. इस्लाम तो शांति और भाई-चारे का सन्देश देता है. मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ, कि यहाँ लोग दोगले सिधांत पर चलते हैं, जब कोई कुरआन के बारें में गलत बातें लिखता हैं, (जिन का कोई सर-पैर भी नहीं होता) तो वही लोग वहां जाकर उस लेख की तारीफों में कसीदे पढ़ते हैं. परन्तु जब कोई हिन्दू धर्म के बारे में लिखता है, तो लोग धमकियां देने लगते हैं.

फिरदौस बहन क्या आपने कभी इन लोगो के खिलाफ भी आवाज़ उठाने का प्रयास किया है? जब अमित शर्मा ने श्लोको का उल्लेख करते हुए ऐसे भाष्य का प्रयोग किया जिसे स्वयं हिन्दू समाज स्वीकार नहीं करता (अर्थात स्वामी दयानंद जी द्वारा रचित वेदों का भाष्य) तो आप स्वयं वहां जाकर उनकी तारीफ करती है, लेकिन जब तारकेश्वर जी, अमित शर्मा जी और चिपलूनकर जी जैसे महानुभव स्वयं कुरआन के बारे में लिखे गए उलटे-सीधे लेखों का समर्थन करते हैं, तब आपकी कलम क्यों रुक जाती है?

वैसे आपके और डॉ. अनवर जमाल के लेखों में फर्क क्या है? आप इस्लाम कि तत्कथित कुरीतियों के बारें में लिख रही है और वह हिन्दू धर्म की. मेरे विचार से तो दोनों ही गलत हैं. होना तो यह चाहिए, कि अगर हमें लगता है कि समाज में कोई गलत बात चल रही है, तो समाज के सामने सही बात को पेश किया जाए. उधाहरणत: अगर आपको लगता है, कि बुरखा इस्लाम की प्रथा नहीं है, तो आपको कुरआन या हदीस का उदहारण पेश करके लोगो को शिक्षित करने का प्रयास करना चाहिए था. जैसा कि मेरे विचार से इस्लाम दुसरे धर्म का पालन करने वालो के साथ क्षत्रुता नहीं अपितु मित्रता और इन्साफ का व्यवहार करने का हुक्म देता है, तो मैंने कुरआन-ए-करीम और हदीसों का हवाला देते हुए लेख लिखा. "गैर-मुसलमानों के साथ संबंधों के लिए इस्लाम के अनुसार दिशानिर्देश"

जब अंजुम शेख ने आपसे कुछ सवाल किये तो आपने उन सवालों का जवाब देने कि जगह उसके होने पर ही सवाल खड़ा कर दिया. हालाँकि उसके होने या न होने से समाज का कोई ताल्लुक ही नहीं था, आपके सामने किसी ने सवाल लिखे थे तो आपका फ़र्ज़ था कि उनके प्रश्नों का उत्तर अगर आपके पास है तो लिखा जाए. वैसे उनके सवालों का जवाब आपके पास होगा भी नहीं, क्योंकि उनके सवाल एकदम जायज़ है. मानता हूँ कि औरतों के साथ गलत व्यवहार होता है, उनके ऊपर ज़बरदस्ती धर्म को थोपा जाता है, परन्तु आप अगर उस ज़बरदस्ती का विरोध करती और यह मुहीम चलाती कि "ज़बरदस्ती पर्दा गलत है" या औरतों के साथ ज़बरदस्ती कोई भी कार्य नहीं होना चाहिए" तो मैं स्वयं ही नहीं अपितु सारा शिक्षित मुस्लिम समाज आपका तहे-दिल से समर्थन करता. परन्तु आप तो स्वयं किसी देश की उस ज़बरदस्ती का समर्थन कर रही थी, जो कि स्वयं एक औरत को ज़बरदस्ती उसके धर्म को मानने से रोक रही थी, क्या यह सही था?

अंत में फिर से डॉ. अनवर जमाल से गुज़ारिश करता हूँ, कि अपनी प्रतिभा को बेकार की बहस में ज़ाया करने की जगह उचित जगह पर और समाज और देश का भला करने में लगाएं. और यही अनुरोध फिरदौस बहन से भी है कि चाटुकारों की बातों में आने की जगह मुस्लिम समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने कि कोशिश करें. पर इसके लिए पहले समस्या का अध्यन करके उसका हल बताना आवश्यक है


- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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जीवन का उद्देश्य क्या है?

एक ज्ञान वह है जो मनुष्य की आवश्यकताओं से सम्बंधित होता है, जिसे दुनिया का ज्ञान कहते हैं. इसके लिए ईश्वर ने कोई संदेशवाहक नहीं भेजा, बल्कि वह ज्ञान ईश्वर ने मस्तिष्क में पहले से सुरक्षित कर दिया है. जब किसी चीज़ की आवश्यकता होती है तो मनुष्य मेहनत करता है, उस पर रास्ते खुलते चले जाते हैं.

एक ज्ञान यह है जो जीवन के मकसद से सम्बंधित है कि "मनुष्य दुनिया में आया क्यों है?" अब यह स्वयं दुनिया में आया होता तो इसे मालूम होता कि वह क्यों आया है. अगर मनुष्य ने अपने आप को स्वयं बनाया होता तो इसे मालूम होता कि इसके बनने का मकसद क्या है? हम जब कहीं भी जाते हैं, तो हमारा वहां जाने का मकसद होता है, और हमें पता होता है कि हम वहां क्यों जा रहे हैं. ना तो मनुष्य स्वयं आया है और ना इसने अपने आप को स्वयं बनाया है. ना यह अपनी मर्ज़ी से अपना समय लेकर आया है और ना अपनी मर्ज़ी से अपनी शक्ल-सूरत लेकर आया है. पुरुष, पुरुष बना किसी और के चाहने से, महिला, महिला बनी किसी और के चाहने से. रंग-रूप, खानदान, परिवार, यानि जो भी मिला है इस सबका फैसला तो कहीं और से हुआ है. जीवन का समय तो किसी और ने तय किया हुआ है, वह कौन है यह सबसे पहला ज्ञान था.

खाना कैसे बनाना है, यह धीरे-धीरे अपने आप ही पता चल गया मनुष्य को. फसलें कैसे उगानी है, उद्योग कैसे चलने हैं, इसके लिए कोई संदेशवाहक नहीं भेजा ईश्वर ने. मनुष्य सोचता रहा, ईश्वर रहनुमाई करता रहा. यह ज्ञान भी ईश्वर ही देता है. बेशुमार, बल्कि अक्सर जो भी खोजें हुई वह अपने आप ही हो गई . इंसान कुछ और खोज रहा था, और कुछ और मिल गया. इस तरह वह ज्ञान भी ईश्वर ने ही दिया है.

लेकिन मेरे मित्रों, इंसान सारी ज़िन्दगी भी कोशिश करता रहे तो यह पता नहीं लगा सकता है कि मैं कहा से आया हूँ? मुझे किसने भेजा है? मुझे किसने पैदा किया है? यह मुझे मारता कौन है? मैं तो स्वास्थ्य से सम्बंधित हर बात पर अमल कर रहा था, फिर यह दिल का दौरा कैसे पड़ गया? और मैंने तो सुरक्षा के सारे बंदोबस्त कर रखे थे, फिर यह साँस किसने खींच ली? जीती जागती देह का अंत कैसे हो गया? यह वो प्रश्न है जिसका उत्तर इंसान के पास नहीं है, ना ही इसके मस्तिष्क में है. किसी इंसानी किताब में भी इसका उत्तर नहीं मिल सकता. यह वह प्रश्न है जिसका उत्तर बाहर से मिलता है. गाडी कैसे बनानी है इसका ज्ञान इंसान के अन्दर था, जो धीरे-धीरे बाहर आगया. एक मशहूर कहावत है कि "आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है". जब कार का आविष्कार हुआ तो उसकी शक्ल आज के घोड़े-तांगे जैसी थी, बनते-बनते आज इसकी शक्ल कैसी बन गई? करोडो रूपये की गाड़ियाँ भी बाज़ार में है. यह ऐसा ज्ञान है जो दिमाग में पहले से ही मौजूद है, इंसान मेहनत करता रहता है, उसको राहें मिलती रहती हैं.

लेकिन कुछ प्रश्न है, जिनका उत्तर मनुष्य के पास नहीं है. जैसे कि, मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? कहाँ जाऊंगा? किसने भेजा है? क्यों मरते हैं? मृत्यु के बाद क्या है? मृत्यु स्वयं क्या चीज़ है? मृत्यु के बारे में विज्ञानं की किताबों में 200 से भी अधिक उत्तर लिखे हुए हैं, सारे ही गलत हैं.

यह सबसे पहला ज्ञान यह है, कि मुझे भेजने वाला कौन है? मुझे क्यों भेजा गया है? अगर कोई इस प्रश्न में मात खा गया तो वह बहुत बड़े नुक्सान का शिकार हो जाएगा. ईश्वर ने इस प्रश्न का उत्तर बताने के लिए सवा लाख संदेशवाहकों को भेजा. उन्होंने आकर बताया कि हमारा पैदा करने वाला ईश्वर है, और उसने हमें एक मकसद देकर भेजा है, जीवन ईश्वर देता है और मौत ईश्वर लाता  है, इंसान गंदे पानी से बना है और इससे पहले मिटटी से बना है. ईश्वर ने अपने संदेशवाहकों के ज़रिये बताया कि दुनिया परीक्षा की जगह हैं. यहाँ हर एक को अपने हिसाब से जीवन को यापन करने का हक है क्योंकि इसी जीवन के हिसाब से परलोक में स्वर्ग और नरक का फैसला होना है. हाँ यह बात अवश्य है, कि समाज सुचारू रूप से चलता रहे और किसी को किसी की वजह से परेशानी ना हो, इसलिए दुनिया का कानून भी बनाया.

ईश्वर ने मनुष्यों को दुनिया में भेजने से पहले स्वर्ग और नरक बनाये, तब सभी आत्माओं से आलम-ए-अरवा (आत्माओं के लोक) में मालूम किया क्या वह ईश्वर को ईश्वर मानते हैं, तो सभी ने एक सुर में कहा हाँ.

Imam Junayd, radiya'llahu anhu, said that Allah, subhanahu wa ta'ala, gathered before the creation of the world all of the spirits, all the arwah, and said, Qur'an 7:172:
Alastu bi-Rabbikum? (Am I not your Lord?)
They said, "We testify that indeed You are!"

[7:172] Recall that your Lord summoned all the descendants of Adam, and had them bear witness for themselves: "Am I not your Lord?" They all said, "Yes. We bear witness." Thus, you cannot say on the Day of Resurrection, "We were not aware of this."

तब ईश्वर ने कहा ऐसे नहीं, अपितु वह दुनिया में भेज कर परीक्षा लेगा कि कौन उसके बताये हुए रास्ते पर चलता है और कौन नहीं. ताकि कोई भी ईश्वर पर यह दोष न लगा सके की उसके साथ अन्याय हुआ. परीक्षा में सबको पता चल जायेगा की कौन फेल होगा और कौन पास, इसमें कुछ आंशिक रूप से भी फेल हो सकते हैं और कुछ पूर्ण रूप से भी फेल हो सकते हैं.

इसमें यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि ईश्वर किसी नियम के तहत बाध्यकारी नहीं हैं, चाहे वह नियम स्वयं उसने ही बनाये हों. लेकिन उसने कहा है कि न्याय के दिन वह सबके साथ न्याय करेगा, किसी के साथ अन्याय नहीं होगा. इसलिए जिसने भी उसको ईश्वर माना था (जबकि वह आत्मा के रूप में था, और आत्माओं के लोक का निवासी था), तो ईश्वर की वाणी के अनुरूप वह अगर उसको इस पृथ्वी में भी ईश्वर मानता है और अच्छे कर्म करता है, तो स्वर्ग का वासी होगा, अन्यथा नरक का वासी होगा.

ईश्वर ने सेहत एवं बीमारी, अमीर एवं गरीब तो सिर्फ परीक्षा लेने के लिए बनाये हैं ताकि पता चल सके कि अमीर और गरीब के लिए जो नियम बनाये हैं उन पर खरा उतरता है या नहीं. उदहारण: अमीर व्यक्ति ने पैसे सही कार्यों को करके कमाए हैं या गलत कार्यों द्वारा? उनको सही कार्यों में खर्च करता है या बुराई के कार्यो में? ईश्वर का धन्यवाद करता है या या कहता है कि "यह पैसा तो मैंने अपनी चतुराई से कमाया, इसमें ईश्वर से क्या लेना-देना?" वहीँ अगर कोई गरीब है तब भी ईश्वर देखता है कि यह इस हाल के लिए भी ईश्वर का धन्यवाद करता है या नहीं? मेहनत और इमानदारी से पैसा कमाने कि कोशिश करता है या फिर बुरे कार्यो के द्वारा अपनी आजीविका चलने की कोशिश करता है, इत्यादि....

ईश्वर बीमारियाँ देता है कि व्यक्ति उसको (यानि ईश्वर को) पहचान सके कि सेहत और बीमारी दोनों ईश्वर के हाथ में हैं. वह जब चाहता है सेहत देता है जब चाहता है बीमारी. वही, वह बिमारियों के बदले में पापो को क्षमा कर देता है. यहाँ परीक्षा होती है कि बीमार व्यक्ति यह कहता है कि "हे ईश्वर, इस हाल में भी तेरा शुक्र है!", या फिर यह कहता है "हाय! हाय! कैसा निर्दयी ईश्वर है जिसने मुझे इस परेशानी में डाल दिया?". अगर कोई यह समझता हैं कि अमीर के लिए दुनिया में ही स्वर्ग है, तो यह उसकी ग़लतफ़हमी है. पैसे मिलने या गरीब होने भर से कभी सुख नहीं मिल सकता, अपितु सुख और शांति तो ईश्वर के ही हाथ में हैं. जितने भी संत पुरुष और ऋषि-मुनि गुज़रे हैं, अधिकतर ने माया के त्याग में सुख-शांति की प्राप्ति की है.

हालाँकि ईश्वर तो स्वयं जानता है की कौन कैसा है, उसे परीक्षा लेने की ज़रूरत नहीं है. परीक्षा तो वह इसलिए लेता है कि कोई उसपर यह आरोप या आक्षेप न लगा सके कि उसे तो मौका ही नहीं मिला, वर्ना वह तो ज़रूर उसके बताये हुए रस्ते पर चलता. क्योंकि ईश्वर को साक्षात् अपने सामने पा कर तो कोई भी उससे इनकार नहीं करेगा. परीक्षा तो यही है कि उसकी निशानियों (जैसे की उसकी प्रकृति, ताकत एवं सूचनाओं) पर ध्यान लगा कर उसको अपना ईश मानता है या फिर अपने आप को बड़ा समझता है, या फिर शैतान की बातो में आकर शैतान को ही अपना पालने वाला मानने लगता है.

इसीलिए ही ईश्वर समय-समय पर एवं पृथ्वी के हर कोने में महापुरुषों को अपना संदेशवाहक बना कर भेजता है, जैसे कि श्री इब्राहीम (अ.), श्री नुह (अ.), श्री शीश (अ.) इत्यादि. बहुत से इस्लामिक विद्वान यह मानते हैं कि इस क्रम में श्री राम और श्री कृष्ण जैसे महापुरुष भी शामिल हो सकते हैं. शीश (अ.) का जन्म अयोध्या में बताया जाता है और अक्सर विद्वान इस बात पर विश्वास करते हैं, कि श्री नुह (अ.) ही मनु हैं. नुह और मनु की कहानी में बहुत सी समानताएं भी पाई जाती हैं.

ईश्वर ने आखिर में प्यारे महापुरुष मुहम्मद (उन पर शांति हो) को भेजा और उनके साथ अपनी वाणी कुरआन को भेजा. कुरआन में ईश्वर ने कहा कि उसने इस पृथ्वी पर एक लाख और 25 हज़ार के आस-पास संदेशवाहकों को भेजा है, जिसमे से कई को अपनी पुस्तक (अर्थात ज्ञान और नियम) के साथ भेजा है. लेकिन कुछ स्वार्थी लोगो ने केवल कुछ पैसे या फिर अपनी प्रिसिद्धि के कारणवश उन पुस्तकों में से काफी श्लोकों को बदल दिया. तब ईश्वर ने कुरआन के रूप में अपनी वाणी को आखिरी संदेशवाहक मुहम्मद (उन पर शांति हो) के पास भेजा और क्योंकि वह आखिरी दूत थे और कुरआन को ईश्वर ने अंतिम दिन तक के लिए बनाया था इसलिए यह ज़िम्मेदारी ईश्वर ने स्वयं अपने ऊपर ली कि इस पुस्तक में धरती के अंतिम दिन तक कोई बदलाव नहीं कर पायेगा.

इसके अलावा इंसानों को खुली चेतावनी भी दी कि अगर तुम्हे यह लगता है कि यह पुस्तक स्वयं मुहम्मद (उन पर शांति हो) ने लिखी है अर्थात किसी इंसान के द्वारा लिखी गयी है, तो ऐसी पुस्तक तुम भी लिख कर दिखा दो, अगर लिख पाए तो समझना कि यह पुस्तक (अर्थात कुरआन) किसी इंसान ने लिखी है अन्यथा मान लेना कि यह खुद परम परमेश्वर ने लिखी है और यह किताब पहले भेजी गयी किताबो को सही भी कहती है.


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गैर-मुसलमानों के साथ संबंधों के लिए इस्लाम के अनुसार दिशानिर्देश

हमें विस्तार से पता होना चाहिए कि इस्लाम के अनुसार मुसलमानों को गैर-मुसलमानों के साथ कैसे संबंध रखने चाहिए और कैसे उनके साथ इस्लामी शरी'अह के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए?


सब तारीफें अल्लाह के ही लिए हैं.
पहली बात तो यह कि इस्लाम दया और न्याय का धर्म है. इस्लाम के लिए इस्लाम के अलावा अगर कोई और शब्द इसकी पूरी व्याख्या कर सकता है तो वह है न्याय".

मुसलमानों को आदेश है कि ग़ैर-मुसलमानों को ज्ञान, सुंदर उपदेश तथा बेहतर ढंग से वार्तालाप से बुलाओ.  ईश्वर कुरआन में कहता है (अर्थ की व्याख्या):


[29: 46] और किताबवालों से बस उत्तम रीति से वाद-विवाद करो - रहे वे लोग जो उनमे ज़ालिम हैं, उनकी बात दूसरी है. और कहो: "हम ईमान लाए उस चीज़ पर जो हमारी और अवतरित हुई और तुम्हारी और भी अवतरित हुई. और हमारा पूज्य और तुम्हारा पूज्य अकेला ही है और हम उसी के आज्ञाकारी हैं."

[9:6] और यदि मुशरिकों (जो ईश्वर के साथ किसी और को भी ईश्वर अथवा शक्ति मानते हैं) में से कोई तुमसे शरण मांगे, तो तुम उसे शरण दे दो, यहाँ तक कि वह अल्लाह की वाणी सुन ले. फिर उसे उसके सुरक्षित स्थान पर पंहुचा दो; क्यों वे ऐसे लोग हैं, जिन्हें ज्ञान नहीं है.

इस्लाम यह अनुमति नहीं देता है कि एक मुसलमान किसी भी परिस्थिति में किसी गैर-मुस्लिम (जो इस्लाम के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार नहीं करता) के साथ बुरा व्यवहार करे. इसलिए मुसलमानों को किसी ग़ैर-मुस्लिम के खिलाफ आक्रमण की, या डराने की, या आतंकित करने, या उसकी संपत्ति गबन करने की, या उसे उसके सामान के अधिकार से वंचित करने की, या उसके ऊपर अविश्वास करने की, या उसे उसकी मजदूरी देने से इनकार करने की, या उनके माल की कीमत अपने पास रोकने की जबकि उनका माल खरीदा जाए. या अगर साझेदारी में व्यापार है तो उसके मुनाफे को रोकने की अनुमति नहीं है.

इस्लाम के अनुसार यह मुसलमानों पर अनिवार्य है गैर मुस्लिम पार्टी के साथ किया करार या संधियों का सम्मान करें. एक मुसलमान अगर किसी देश में जाने की अनुमति चाहने के लिए नियमों का पालन करने पर सहमत है (जैसा कि वीसा इत्यादि के समय) और उसने पालन करने का वादा कर लिया है, तब उसके लिए यह अनुमति नहीं है कि उक्त देश में शरारत करे, किसी को धोखा दे, चोरी करे, किसी को जान से मार दे अथवा किसी भी तरह की विनाशकारी कार्रवाई करे. इस तरह के किसी भी कृत्य की अनुमति इस्लाम में बिलकुल नहीं है.


[अल-शूरा 42:15, अर्थ की व्याख्या]:
"और मुझे तुम्हारे साथ न्याय का हुक्म है. हमारे और आपके प्रभु एक ही है. हमारे साथ हमारे कर्म हैं और आपके साथ आपके कर्म."

इस्लाम यह अनुमति अवश्य देता  है कि अगर ग़ैर-मुस्लिम मुसलमानों के खिलाफ युद्ध का एलान करें, उनको उनके घर से बेदखल कर दें अथवा इस तरह का कार्य करने वालो की मदद करें, तो ऐसी हालत में मुसलमानों को अनुमति है ऐसा करने वालो के साथ युद्ध करे और उनकी संपत्ति जब्त करें.

[60:8] अल्लाह तुम्हे इससे नहीं रोकता है कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और ना तुम्हे तुम्हारे अपने घर से निकाला. निस्संदेह अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है.

[60:9] अल्लाह तो तुम्हे केवल उन लोगो से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हे तुम्हारे अपने घरों से निकला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की. जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम हैं.


क्या इस्लाम काफिरों का क़त्ल करने का हुक्म देता है?

कुछ लोग इस्लाम के बारे में भ्रान्तिया फ़ैलाने के लिए कहते हैं, कि इस्लाम में गैर-मुसलमानों को क़त्ल करने का हुक्म है. इस baren में ईश्वर के अंतिम संदेष्ठा, महापुरुष मौहम्मद (स.) की कुछ बातें लिख रहा हूँ, इन्हें पढ़ कर फैसला आप स्वयं कर सकते हैं:

"जो ईश्वर और आखिरी दिन (क़यामत के दिन) पर विश्वास रखता है, उसे हर हाल में अपने मेहमानों का सम्मान करना चाहिए, अपने पड़ोसियों को परेशानी नहीं पहुंचानी चाहिए और हमेशा अच्छी बातें बोलनी चाहिए अथवा चुप रहना चाहिए." (Bukhari, Muslim)


"जिसने मुस्लिम राष्ट्र में किसी ग़ैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, उसने मुझे ठेस पहुंचाई." (Bukhari)

"जिसने एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के दिल को ठेस पहुंचाई, मैं उसका विरोधी हूँ और मैं न्याय के दिन उसका विरोधी होउंगा." (Bukhari)

"न्याय के दिन से डरो; मैं स्वयं उसके खिलाफ शिकायतकर्ता रहूँगा जो एक मुस्लिम राज्य के गैर-मुस्लिम नागरिक के साथ गलत करेगा या उसपर उसकी जिम्मेदारी उठाने की ताकत से अधिक जिम्मेदारी डालेगा अथवा उसकी किसी भी चीज़ से उसे वंचित करेगा." (Al-Mawardi)

"अगर कोई किसी गैर-मुस्लिम की हत्या करता है, जो कि मुसलमानों का सहयोगी था, तो उसे स्वर्ग तो क्या स्वर्ग की खुशबू को सूंघना तक नसीब नहीं होगा." (Bukhari).



एवं पवित्र कुरआन में ईश्वर कहता है कि:

इसी कारण हमने इसराईल की सन्तान के लिए लिख दिया था, कि जिसने किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या धरती में फ़साद फैलाने के के जुर्म के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे ही इंसानों की हत्या कर डाली। और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो सारे इंसानों को जीवन प्रदान किया। उनके पास हमारे रसूल (संदेशवाहक) स्पष्‍ट प्रमाण ला चुके हैं, फिर भी उनमें बहुत-से लोग धरती में ज़्यादतियाँ करनेवाले ही हैं [5:32]

- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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क्या धरती पहाडो की वजह से टिकी है?

वैज्ञानिक पर्वतों के महत्व को समझाते हुए कहते हैं कि यह पृथ्वी को स्थिर रखने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं:


'पर्वतों में अंतर्निहित जड़ें होती है. यह जड़ें गहरी मैदान में घुसी हुई होती हैं, अर्थात, पर्वतों का आकार खूंटो अथवा कीलों की तरह होता है. पृथ्वी की पपड़ी 30 से 60 किलोमीटर गहरी है, यह seismograph (स्वचालित रूप से तीव्रता, दिशा रिकॉर्डिंग और जमीन की हलचल की अवधि बताने वाले उपकरण) से ज्ञात होता है. इसके अलावा इस मशीन से यह ज्ञात होता है कि हर एक पर्वत में एक अंतर्निहित जड़ होती है, जो अपनी अंतर्निहित परतों की वजह से पृथ्वी की पपड़ी को स्थिर बनाती है, और पृथ्वी को हिलने से रोकता है. अर्थात, एक कील के समान है, जो लकड़ी के विभिन्न टुकड़ों को एकजुट रखे हुए है.


ईश्वर कुरआन में कहता है:

क्या ऐसा नहीं है कि हमने धरती को बिछौना बनाया और पहाडो को खूंटे? [78:6-7]

"Have We not made the earth as a wide expanse. And the mountains as pegs?" [The Holy Qur'an, Chapter 78, Verse 6-7]

- शाहनवाज़ सिद्दीकी



Isostacy: mountain masses deflect a pendulum away from the vertical, but not as much as might be expected. In the diagram, the vertical position is shown by (a); if the mountain were simply a load resting on a uniform crust, it ought to be deflected to (c). However because it has a deep of relatively non-dense rocks, the observed deflection is only to (b). Picture courtesy of Building Planet Earth, Cattermole pg. 35
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क्या कुरआन के अनुसार पृथ्वी गोल नहीं समतल है?

कुछ लोगो को लगता है कि कुरआन के अनुसार पृथ्वी समतल है जबकि  कुरआन की एक भी आयत यह नहीं कहती है कि पृथ्वी समतल (फ्लैट) है. कुरआन केवल एक कालीन के साथ पृथ्वी की पपड़ी की तुलना करता है. कुछ लोगों को लगता है की कालीन को केवल एक निरपेक्ष समतल सतह पर ही रखा जा सकता हैं. लेकिन ऐसा नहीं है, किसी कालीन को पृथ्वी जैसे किसी बड़े क्षेत्र पर फैलाया जा सकता है. पृथ्वी के एक विशाल मॉडल को किसी कालीन से साथ  ढक कर आसानी से इस बात को समझा  जा सकता है.

वही है जिसने तुम्हारे लिए धरती को पालना (बिछौना) बनाया और उसमें तुम्हारे लिए रास्ते निकाले और आकाश से पानी उतरा. फिर हमने उसके द्वारा विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे निकाले [कुरआन 20:53].


कालीन को आम तौर पर किसी ऐसी सतह पर पर डाला जाता है, जो चलने mein  बहुत आरामदायक नहीं होती है. पवित्र कुरआन तार्किक आधार पर एक कालीन के रूप में पृथ्वी की पपड़ी का वर्णन करता है, जिसके  नीचे गर्म तरल पदार्थ हैं एवं  जिसके बिना मनुष्य के लिए प्रतिकूल वातावरण में जीवित रहना सक्षम नहीं होता. कुरआन का यह ज्ञान भूवैज्ञानिकों के द्वारा सदियों की खोज के बाद उल्लेख किया गया एक वैज्ञानिक तथ्य भी है.

इसी तरह, कुरआन के कई श्लोक कहते है कि पृथ्वी को फैलाया गया है.

और धरती को हमने बिछाया, तो हम क्या ही खूब बिछाने वाले हैं. [कुरआन 51:48]
क्या ऐसा नहीं है कि हमने धरती को बिछौना बनाया और पहाडो को खूंटे? [कुरआन 78:6-7]


कुरआन की इन आयात में कुछ ज़रा सा भी निहितार्थ नहीं है कि पृथ्वी फ्लैट हैं. यह केवल इंगित करता है कि पृथ्वी विशाल है और पृथ्वी के इस फैलाव वाले स्वाभाव का कारण उल्लेख करते हुए शानदार कुरआन कहता हैं:

ऐ मेरे बन्दों, जो ईमान लाए हो! निसंदेह मेरी धरती विशाल है, अत: तुम मेरी ही बंदगी करो. [कुरआन 29:56]


कुरआन की उपरोक्त आयात से यह भी पता चलता है कि किसी का यह बहाना भी नहीं चल सकेगा कि वह परिवेश और परिस्थितियों की वजह से अच्छे कर्म नहीं सका और बुराई करने पर मजबूर हुआ था.


- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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क्‍या इस्लाम अनुसार बच्चा गोद लेना सही है?

प्रश्न: क्या इस्लाम के अनुसार बच्चा गोद लेना सही नहीं है? क्या किसी को बेटा अथवा बेटी माना जा सकता है?

उत्तर: बच्चे को गोद लिया जा सकता है, बल्कि  गरीब बच्चों का पालन-पोषण करना पुन्य का काम है. परन्तु बालिग़ होने पर उनको सामान्यत: घर में प्रवेश की अनुमति नहीं दी जा सकती हैं. यही नियम चचेरे-ममेरे भाईओं के लिए भी है. अर्थात उनके घर में प्रवेश से पहले घर की औरतों को अपने शरीर को सामान्य: नियमानुसार ढकना आवश्यक है.

जहाँ तक जायदाद में हिस्से की बात है, तो कोई भी किसी को भी अपनी जायदाद में हिस्सा दे सकता है, हाँ ऐसा हिस्सा अपने-आप नहीं होता है. अर्थात पिता की मृत्यु के पश्चात् (अगर उसके नाम जायदाद नहीं की गयी है) गोद लिए बच्चा जायदाद में हिस्से की मांग नहीं कर सकता है.

इस्लाम अनुसार किसी भी महिला के लिए मर्द की स्थिति दो तरह की होती हैं: महरम और ना-महरम. सामान्यत: ना-महरम वह होते हैं जिनके सामने परदे की आवश्यकता होती है (अर्थात मुंह और हाथ को छोड़ कर शरीर के सभी अंगो को ढकना आवश्यक होता है). ना-महरम उस श्रेणी में आते हैं जिनसे विवाह जायज़ होता है.

जिनसे खून अथवा दूध का रिश्ता होता है वह महरम की श्रेणी में आते हैं, और उनसे वैवाहिक सम्बन्ध नहीं बनाए जा सकते हैं. जैसे कि माता-पिता, सास-ससुर, बेटें-बेटियां, पति के बेटें-बेटियां, भाई-बहन, भतीजे-भतीजियाँ, भांजे-भांजियां इत्यादि.

Allah says : (Interpretation of Qur'an Surah An-Noor)


"And say to the faithful women to lower their gazes, and to guard their private parts, and not to display their beauty except what is apparent of it, and to extend their headcoverings (khimars) to cover their bosoms (jaybs), and not to display their beauty except to their husbands, or their fathers, or their husband's fathers, or their sons, or their husband's sons, or their brothers, or their brothers' sons, or their sisters' sons, or their womenfolk, or what their right hands rule (slaves), or the followers from the men who do not feel sexual desire, or the small children to whom the nakedness of women is not apparent, and not to strike their feet (on the ground) so as to make known what they hide of their adornments. And turn in repentance to Allah together, O you the faithful, in order that you are successful".


अल्लाह कुरआन में फरमाता है (जिसका मतलब है):


और ईमान वाली स्त्रियों से कह दो कि वे भी अपनी निगाहें बचाकर रखे और अपनी शर्मगाहों की रक्षा करें. और अपने श्रृंगार प्रकट न करें, सिवाय उसके जो उनमें खुला रहता है (अर्थात महरम) और अपने सीनों (वक्षस्थलों) पर दुपट्टे डाले रहे और अपना श्रृंगार किसी पर प्रकट न करे सिवाह अपने पति के या अपने पिता के या अपने पति के पिता के या अपने बेटों के अपने पति के बेटों के या अपने भाइयों के या अपने भतीजों के या अपने भांजो के या अपने मेल-जोल की स्त्रियों के या जो उनकी अपनी मिलकियत में हो उनके, या उन अधीनस्थ पुरुषों के जो उस अवस्था को पार कर चुकें हो, जिसमें स्त्री की ज़रूरत होती है,.या उन बच्चो के जो औरतों के परदे की बातों से परिचित ना हो. ..............[सुर: अन-नूर, 24:31] 

इस्लाम के अनुसार "माना हुआ" जैसे किसी रिश्ते की क़ानूनी मान्यता नहीं है. इस शब्द के जाल में आज भी चोरी-छिपे गुनाह होते हैं, कितने ही प्रेमी-प्रेमिका अपने पाप को समाज से छुपाने के लिए एक दुसरे को राखी बांध कर, दिखावे के बहन-भाई बन जाते हैं और "राखी" जैसी पवित्र भावना को बदनाम करते हैं.

"मुंह बोले" अथवा "माने हुए" रिश्ते को अगर मान्यता मिलती तो वह घर की अन्य महिलाओं के लिए "महरम" होते परन्तु खून अथवा दूध का सीधा रिश्ता ना होने की स्थिति के कारणवश व्यभिचार को बढ़ावा मिलता.
अंजुम जी ने बहुत ही ज़बरदस्त बात की तरफ इशारा किया है.

@ Anjum Sheikh ने कहा…
"जब हज़रत ज़ैद (रज़ी.) को हुजुर (स.) ने गोद लिया तो अल्लाह ने कुरान के ज़रिये बताया कि गोद लिए बच्चे का दर्जा महरम का नहीं हो सकता है. इसलिए आप (स.) उसको अपना नाम नहीं दे सकते हैं."


दर-असल प्यारे नबी (स.) ने गुलामों के हक की बात उठाई और लोगो को अपने गुलामों को आज़ाद करने के लिए प्रेरित करने हेतु अपने गुलाम हज़रत ज़ैद (र.) को आज़ाद किया. इसके साथ ही उन्होंने हज़रत ज़ैद (र.) को अपने मुंहबोले बेटे का दर्जा भी दिया तो अल्लाह ने कुरआन की आयत उतार कर उनको ऐसा करने से रोक दिया. ईश्वर ने कहा कि तुम उनको (अर्थात आज़ाद किये हुए गुलामों को) उनके बाप के नाम के साथ पुकारों और अगर तुम्हे उनके बाप का नाम नहीं पता है, तो उनको अपना भाई समझो.

[सुर: अल-अहज़ाब 33:4] ..... और ना उसने तुम्हारे मुंह बोले बेटों को तुम्हारे वास्तविक बेटे बनाए. ये तो तुम्हारे मुँह की बातें हैं. किन्तु अल्लाह सच्ची बात कहता है और वही मार्ग दिखता है.



[33:5] उन्हें (अर्थात मुँह बोले बेटों को) उनके बापों का बेटा कहकर पुकारो. अल्लाह के यहाँ यही अधिक न्यायसंगत बात है. और यदि तुम उनके बापों को न जानते हो, तो धर्म में वे तुम्हारे भाई तो हैं ही और तुम्हारे सहचर भी. इस सिलसिले में तुमसे जो गलती हुई हो उसमें तुमपर कोई गुनाह नहीं, कुन्तु जिसका संकल्प तुम्हारे दिलों ने कर लिया, उसकी बात और है. वास्तव में अल्लाह अत्यंत क्षमाशील, दयावान है.

क्योंकि दोनों में खून अथवा दूध का रिश्ता नहीं है, इसलिए मुँह बोले बेटों के घर की औरतों के लिए ना-महरम की स्तिथि होती और वहीँ उसके घर में भी गोद लेने वाले की स्तिथि ना-महरम की ही होती. इसलिए बेटों की जगह धर्म भाई मानना अधिक अच्छा है.

- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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