फौज़िया जी को मेंरा सलाम! आपने जिस तरह मर्दो की बुराईयों के खिलाफ आवाज़ उठाई, वह वाकई में काबिले-तारीफ है। और मर्दो में अक्सर होने वाली इन बुराईयों का विरोध अवश्य ही होना चाहिए। अब तक औरतें निरक्षरता की वजह से बेवकूफ बनती आई हैं और अक्सर मर्द अपने अहम के कारण उनको पैर की जूती समझते आए है। यह एक अमानवीय व्यवहार है और इसको बर्दाश्त करने वाले हम जैसे लोग भी इसके लिए उतने ही ज़िम्मेदार हैं जितने इस तरह की सोच रखने वाले अन्य मर्द।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं की कोई भी धर्म उनको ऐसा करने की इजाज़त देता है। दरअसल सारा मसला शुरू होता है अपने-अपने हिसाब से धर्मग्रन्थों की गई व्याख्याओं से। दुनिया को बेवकूफ बनाने के इरादे से कुछ धर्मगुरू चाहते ही नहीं थे कि धर्मग्रन्थों की शिक्षा आम हो ताकि उनकी दुकानें चलती रहें। लेकिन जिस तरह शिक्षा आम हुई और लोगो ने धर्मग्रन्थो को भी समझने की कोशिश शुरू की तो इन तथाकथित मुल्ला-पंडितो के अधकचरे ज्ञान भी सामने आने लगे। अगर ध्यान से देखा जाए और सही संक्षेप में समझा जाए तो सारी की सारी मिथ्या एवं भ्रामक बातें स्वतः समाप्त हो सकती हैं।
इस्लाम में पाक अथवा पाकी (पवित्रता) का सबसे अधिक महत्त्व है, यहां तक की इसको आधा ईमान बताया गया है। लेकिन यह पाकी आमतौर पर प्रयोग में आने वाले शब्द ‘पवित्र’ से कुछ अलग है, यहां ‘पाक’ का अर्थ शारीरिक स्वच्छता से है। जैसे कोई भी मर्द अथवा औरत अगर मल-मूत्र त्याग करने के बाद शरीर के संबधित हिस्से को पानी से अच्छी तरह से नहीं धोता है और गंदगी उसके शरीर में लगी रह जाती है तो वह शरीर उस समय पूजा के लायक नहीं होता है (हाँ अगर पानी उपलब्ध ही ना हो तो अलग बात है), इसी तरह औरत और मर्द दोनों के कुछ ‘पल’ नापाकी के होते हैं और नहाने के बाद ही पूजा करने की इजाज़त होती है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की औरत या मर्द तब अपवित्र हो जाते हैं, उन पलों में सामान्यतः प्रभु को याद करने तथा उसकी उपासना करने की पूरी इजाज़त होती है, केवल उन कार्यो की मनाही होती है जिन्हे करने के लिए स्वच्छता अतिआवश्यक होती है। और इसकी वजह कुछ शारीरिक बदलाव होने के कारण होने वाली अस्वच्छता के अलावा और कुछ भी नही होता, इसलिए इसे अन्यथा ना लेकर सामान्य प्रक्रिया समझना चाहिए।
नापाकी के समय औरत को अछूत समझना बेवकूफी ही नहीं बल्कि जाहिलियत है। ऐसे समय में तो औरत को और भी अधिक अपनों के साथ की आवश्यकता होती है। इस्लाम के मुताबिक जब औरत किसी बच्चे को जन्म देती है तो उस पर जन्नत (स्वर्ग) वाजिब (आवश्यक) हो जाती है। इसे एक औरत का दूसरा जन्म समझना चाहिए, क्योंकि औरत मौत के मूंह से वापिस आती है।
जैसा कि फौज़िया जी ने कहा किः "अगर आप की हंसी की गूँज किसी गैर मर्द को सुनाई दे गयी या आप पर किसी मर्द की नज़र पड़ गयी तो आप अपवित्र हो गयी. अब अगर सजदे में झुकना है तो फिर से खुद को पानी की छींटों से पवित्र कीजिये.
इस तरह की किसी भी बात से कोई भी औरत अथवा मर्द नापाक नहीं होता है और इसके लिए खुद को पानी की छींटों से पाक करने की कोई भी आवश्यकता नही होती है। यह तो कतई जाहिलियत की बात है और अगर कहीं ऐसा होता है तो हमें जमकर इसका विरोध करना चाहिए। इस्लाम की बुनियादी बातों में से एक यह भी है कि जिस कार्य के लिए अल्लाह का हुक्म नहीं है, उसे इस्लाम के नाम पर करने की सख्त मनाही है।
ईश्वर के लिए मर्द और औरत बराबर है और दोनो ही से उसने जीवन यापन के तरीको का हिसाब लेना है। दोनो के साथ एक जैसा ही इंसाफ होना है, यहां तक कि फेल और पास का फल भी दोनो के लिए एक जैसा है। स्वर्ग का आशीर्वाद महिलाओं और पुरुषों के लिए एक जैसा हैं] वहाँ दो लिंग के बीच एक छोटा सा भी अंतर नहीं है। यह सुरा: अल-अह्जाब से स्पष्ट है:
मुस्लिम पुरुष और मुस्लिम स्त्रियाँ, ईमानवाले पुरुष और ईमानवाली स्त्रियाँ, निष्ठापूर्वक आज्ञापालन करने वाले पुरुष और आज्ञापालन करने वाली स्त्रियाँ, सत्यवादी पुरुष और सत्यवादी स्त्रियाँ, धैर्यवान पुरुष और धैर्य रखने वाली स्त्रियाँ, विनर्मता दिखाने वाले पुरुष और विनर्मता दिखाने वाली स्त्रियाँ, सदका (दान) देने वाले पुरुष और सदका (दान) देने वाली स्त्रियाँ, रोज़ा रखने वाले पुरुष और रोज़ा रखने वाली स्त्रियाँ, अपने गुप्तांगों की रक्षा करने वाले पुरुष और रक्षा करने वाली स्त्रियाँ और अल्लाह को अधिक याद करने वाले पुरुष और याद करने वाली स्त्रियाँ - इनके लिए अल्लाह ने क्षमा और बड़ा प्रतिदान तैयार कर रखा है [सुर: अल-अहज़ाब, 33:35]
जहां तक बात हूर की है तो यह जानना आवश्यक है कि हूर शब्द का प्रयोग औरत और मर्द दोनो के लिए किया गया है, हूर शब्द का अर्थ शोभयमान आँखे वाला/वाली है (विस्तृत जानकारी के लिए मेंरा लेख ‘शोभयमान आँखे वाली हूर’ पढें). शब्द हूर, अहवार (एक आदमी के लिए) और हौरा (एक औरत के लिए) का बहुवचन है। इसका मतलब ऐसे इंसान से हैं जिसकी आँखों को "हवार" शब्द से संज्ञा दी गयी है। जिसका मतलब है ऐसी आंखे जिसकी सफेदी अत्यधिक सफ़ेद और काला रंग अत्यधिक काला हो। शब्द अहवार (हूर का एकवचन) शुद्ध या शुद्ध ज्ञान का भी प्रतीक है। और स्वर्ग में औरत और मर्द दोनो को ही हूरे मिलने का वादा है तो इसका अर्थ नौकर, साथी अथवा मित्र इत्यादि हो सकता है। जहां तक स्वर्ग में अनछूई हूरों की बात है तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उनके साथ सहवास के लिए प्रेरित किया गया है। इसका अर्थ है जिन्हे दुनिया की किसी आँख ने कभी नहीं देखा और जो अपने मालिक / मित्र / साथी के प्रति वफादार हैं। और मेरे विचार में औरत और मर्द का एक दूसरे के प्रति वफादार होना कोई बुरा काम नहीं है, बल्कि यह तो मज़बूत रिश्ते की बुनियाद है।
- शाहनवाज़ सिद्दीकी