सलीम भाई! आपसे किसने कह दिया कि अल्लाह ने काफिरों से दोस्ती को मना फ़रमाया है? पहली बात तो यह कि काफिर कौन है, इसका निर्धारण आप कैसे करोगे? दिलों के राज़ तो केवल अल्लाह ही जानता है..... दूसरी बात अगर कोई अपने-आप को काफ़िर मानता भी है तब भी उसके साथ दोस्ती करने की मनाही हरगिज़ नहीं है. ईश्वर (अल्लाह) तो स्वयं कुरआन में फरमाता है कि वह अपने नाफरमान बन्दे से भी एक माँ से भी करोडो गुना ज्यादा मुहब्बत करता है. बिना यह देखे के कि वह उसे अपना ईश मानता है अथवा नहीं, यहाँ तक कि उसकी आखिरी साँस तक उसका इंतज़ार करता है. बल्कि तुम जिस तरफ इशारा कर रहे हो अगर तफसील से और पूरा पढोगे तो पता चलेगा कि वह आदेश उनके लिए थे जिन्होंने मुसलमानों पर हमला किया था, अर्थात जो मुसलमानों के दुश्मन थे और उनको अपने घरों से निकालने पर अमादा थे.
उपरोक्त बातें केवल मेरी नहीं हैं, बल्कि देखिये अल्लाह स्वयं कुरआन में आपकी बात का क्या जवाब देता है:
[60:8] अल्लाह तुम्हे इससे नहीं रोकता है कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और ना तुम्हे तुम्हारे अपने घर से निकाला. निस्संदेह अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है.
[60:9] अल्लाह तो तुम्हे केवल उन लोगो से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हे तुम्हारे अपने घरों से निकला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की. जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम हैं.
अब आप क्या कहेंगे?
कुछ लोग कम अक्ली अथवा नफरत में इस्लाम की बातों को बिना पुरे परिप्रेक्ष में देखे, आधी-अधूरी बातों से लोगो को गुमराह करते हैं तथा लोगों को इस्लाम से दुश्मनी पर आमादा करते हैं, आपके उपरोक्त लेख में भी उसी तरह की बातें हैं. आपको मेरी बातें शायद कडवी लगें लेकिन इत्मिनान से गौर करोगे तो इंशाल्लाह आसानी से समझ जाओगे.
रही बात त्योहारों की तो, आपसी संबंधो को सदृढ़ करने के लिए एक-दुसरे के त्योहारों में शिरकत करना मना नहीं होता है, केवल उन कार्यों को करना मना होता है जिनका सम्बन्ध शिर्क से होता है अर्थात ईश्वर (अल्लाह) के अलावा किसी और की पूजा (इबादत) करना अथवा उससे सम्बंधित कार्यों में शामिल होना.
मेरे विचार से आपको किसी आलिम (इस्लामिक विद्वान) से सलाह लेने की आवश्यकता है. आशा है सलाह पर गौर करोगे.
उपरोक्त बातें केवल मेरी नहीं हैं, बल्कि देखिये अल्लाह स्वयं कुरआन में आपकी बात का क्या जवाब देता है:
[60:8] अल्लाह तुम्हे इससे नहीं रोकता है कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और ना तुम्हे तुम्हारे अपने घर से निकाला. निस्संदेह अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है.
[60:9] अल्लाह तो तुम्हे केवल उन लोगो से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हे तुम्हारे अपने घरों से निकला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की. जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम हैं.
अब आप क्या कहेंगे?
कुछ लोग कम अक्ली अथवा नफरत में इस्लाम की बातों को बिना पुरे परिप्रेक्ष में देखे, आधी-अधूरी बातों से लोगो को गुमराह करते हैं तथा लोगों को इस्लाम से दुश्मनी पर आमादा करते हैं, आपके उपरोक्त लेख में भी उसी तरह की बातें हैं. आपको मेरी बातें शायद कडवी लगें लेकिन इत्मिनान से गौर करोगे तो इंशाल्लाह आसानी से समझ जाओगे.
रही बात त्योहारों की तो, आपसी संबंधो को सदृढ़ करने के लिए एक-दुसरे के त्योहारों में शिरकत करना मना नहीं होता है, केवल उन कार्यों को करना मना होता है जिनका सम्बन्ध शिर्क से होता है अर्थात ईश्वर (अल्लाह) के अलावा किसी और की पूजा (इबादत) करना अथवा उससे सम्बंधित कार्यों में शामिल होना.
मेरे विचार से आपको किसी आलिम (इस्लामिक विद्वान) से सलाह लेने की आवश्यकता है. आशा है सलाह पर गौर करोगे.
सलीम भाई, इस विषय से सम्बंधित "हमारी अंजुमन" पर मेरा लेख अवश्य पढ़ें:
गैर-मुसलमानों के साथ संबंधों के लिए इस्लाम के अनुसार दिशानिर्देश
23 comments:
:कुछ लोग कम अक्ली अथवा नफरत में इस्लाम की बातों को बिना पुरे परिप्रेक्ष में देखे, आधी-अधूरी बातों से लोगो को गुमराह करते हैं तथा लोगों को इस्लाम से दुश्मनी पर आमादा करते हैं, आपके उपरोक्त लेख में भी उसी तरह की बातें हैं. आपको मेरी बातें शायद कडवी लगें लेकिन इत्मिनान से गौर करोगे तो इंशाल्लाह आसानी से समझ जाओगे.
saleem bhai shahnawaz bhai ki in baaton mein dam hai
अल्लाह तो तुम्हे केवल उन लोगो से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हे तुम्हारे अपने घरों से निकला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की. जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम हैं.
SALEEM BHAI SE JO BHOOL HUI HAI...BESHAK NAADIM HONE KI BAT HAI.ISLIYE HAMESHA YE DHYAN ME RAKHA JAYE KI DEENI MAMLE MEIN BINA TAHQEEQ KE SIRF COPY PEST SE KAM NA CHALAYA JAY.
दूसरी बात अगर कोई अपने-आप को काफ़िर मानता भी है तब भी उसके साथ दोस्ती करने की मनाही हरगिज़ नहीं है. ईश्वर (अल्लाह) तो स्वयं कुरआन में फरमाता है कि वह अपने नाफरमान बन्दे से भी एक माँ से भी करोडो गुना ज्यादा मुहब्बत करता है. बिना यह देखे के कि वह उसे अपना
[60:8] अल्लाह तुम्हे इससे नहीं रोकता है कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और ना तुम्हे तुम्हारे अपने घर से निकाला. निस्संदेह अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है.
[60:9] अल्लाह तो तुम्हे केवल उन लोगो से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हे तुम्हारे अपने घरों से निकला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की. जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम हैं.
अब आप क्या कहेंगे?
भाई सलीम साहब का ब्लाग बहुत भारी है उधर कमेंटस नहीं हो पा रहा उधर का कमेंटस इधर, कल इसे उधर करने की कोशिश करूंगा
@प्रवीण शाह जी जितना यह पोस्ट देख कर मुझे दुख हुआ उससे कहीं ज्यादा आपके द्वारा दोस्त कह कर पुकारने ने बेहद खुशी दी, यह आपने यूं ही नहीं कह दिया हमारे आपके खटटे मिठे अनुभव हैं, यह उसका फल है, इसी में छुपा संदेश मुझे मिलता है कि मैंने अपनी बात गलत तरीके से नहीं रखी, गलत बातों को हवा नहीं दी
हिन्दू मुस्लिम त्यौहारों पर शानहनवाज भाई और अनवर जमाल की बातों से मैं इत्तफाक रखता हूं
सलीम साहब से रात में ही जगाकर बात की तो उनकी बातों से लगा वह कल इस पोस्ट पर ध्यान देंगें, दोस्तों को कमेंटस देखकर निर्णय लेंगे
उम्मीद करनी चाहिये सब अच्छा अच्छा रहेगा
रही बात आपकी लाइन से निकलने वाले दूसरे मकसद की यानि मैं कहा हूँ तो भाई उसका सच्चा जवाब तो यह है कि ब्लागिंग में मेरा रोल अदा हो चुका दोस्तों ने सब संभाल रखा है मैं तो अब कुछ फुरसत वाले काम में लगा हूं लेकिन सच्चाई यह भी है कि यही दोस्त रोज ब्लागस में खेंच लाते हैं जैसे कि आज यह जुमला खेंच लाया
'कहाँ हो दोस्त मोहम्मद उमर कैरानवी !'
मुसलमानों में भी मुनाफ़िक़ अर्थात कपटाचारी होते हैं और ग़ैरमुस्लिमोँ मेँ भी सही को सही कहने वाले बन्दे होते हैं । हरेक का दर्जा अलग है और उसी ऐतबार से उनका हुक्म भी अलग है । जो हमलावर मुन्किर हैं उनके लिए एक हुक्म है और जिन मुन्किरों से संधि है उनके लिए दूसरा । हमलावर और दुश्मन राष्ट्र के जासूसों और सहायकोँ से मित्रता की इजाज़त कहीं नहीं दी जाती । इस्लाम भी नहीं देता । लेकिन यह हुक्म खास हालात के लिए है , आम नहीं है ।
Bahut badhiya
जिन काफ़िरों अर्थात नास्तिकों से दोस्ती के लिए मना किया गया है वे युद्ध की आग भड़काने वाले काफ़िर हैं जो जासूसी करने और मुसलमानों में फूट डालने के लिए मुसलमानों से दोस्ती करते थे
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@ दोस्त मोहम्मद उमर कैरानवी,
"कहाँ हो दोस्त मोहम्मद उमर कैरानवी !"
यकीन जानिये कल रात सवा नौ बजे अपनी टिप्पणी में जब मैंने यह पुकार लगाई थी तो दो बातों का भरोसा था मुझे:-
१- आप आओगे जरूर।
२- और मेरा साथ भी दोगे इस मामले में!
यह भरोसा सलामत रखा आपने, तहे-दिल से शुक्रगुजार हूँ आपका... और हाँ ब्लॉगिंग में आपका रोल अभी अदा नहीं हुआ है... ब्लॉगिंग में एक बुजुर्ग का रोल करना ही होगा आपको आगे आने वाले जोश में कभी-कभी होश खोने वाले ब्लॉगर्स के लिये!
आभार!
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''कुछ लोग कम अक्ली अथवा नफरत में इस्लाम की बातों को बिना पुरे परिप्रेक्ष में देखे, आधी-अधूरी बातों से लोगो को गुमराह करते हैं तथा लोगों को इस्लाम से दुश्मनी पर आमादा करते हैं, आपके उपरोक्त लेख में भी उसी तरह की बातें हैं. आपको मेरी बातें शायद कडवी लगें लेकिन इत्मिनान से गौर करोगे तो इंशाल्लाह आसानी से समझ जाओगे.'' isi dishaa me socana chahiye. badhai.
क्या दोस्ती मज़हब, जाति, रंग, नस्ल, भाषा के किसी दायरे में बंधने की मोहताज है...सिर्फ़ आंखों पर पट्टी बांध कर अपनी ही दुनिया में गुम रहने वाले लोग ऐसी छोटी बात सोच सकते हैं...शाहनवाज़ ब्लॉगवुड को तुम्हारे विचारों पर नाज़ है...
जय हिंद...
KOOL
जिन काफ़िरों अर्थात नास्तिकों से दोस्ती के लिए मना किया गया है वे युद्ध की आग भड़काने वाले काफ़िर हैं जो जासूसी करने और मुसलमानों में फूट डालने के लिए मुसलमानों से दोस्ती करते थे.
इस बात को अपने लेख़ मैं भी स्पष्ट करें..
शहनवाज जी आज हम सब को एकजुट होकर इंसानियत को बचाने का प्रयास करने की जरूरत है ,बाकि सब बकबास है ,ये जात- पात,हिन्दू-मुसलमान उन हरामियों ने अपने फायदे के लिए बनाये है जिनका इंसानियत से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है ,वास्ता है तो सिर्फ और सिर्फ लोभ-लालच,पैसा,बेईमानी व भ्रष्टाचार से | ऐसे हरामियों ने इंसानियत को शर्मसार कर रखा है | इसलिए इन धर्मों की चर्चा में न पड़कर हम सब को उन लोगों को बेनकाब करने का काम करना चाहिए जो इंसानियत के दुश्मन हैं | सलीम भाई से भी मेरा यही आग्रह है |
कुछ लोग कम अक्ली अथवा नफरत में एक-दूसरे के धर्म की बातों को बिना पुरे परिप्रेक्ष में देखे, आधी-अधूरी बातों से लोगो को गुमराह करते हैं तथा लोगों को मजहबी दुश्मनी पर आमादा करते हैं
लाख टके की बात
गर्व है आप पर कि "आपका लिखा मुझे पढने को मिलता है", आपका बहुत-बहुत शुक्रिया
शाह नवाज़ साहब,
इसी प्रकार तत्क्षण प्रतिक्रिया देकर,भ्रांतियो को नियम बनते रोकने का आपका प्रयास सराहनीय है।
शुद्धधर्म की सलामती के लिये जागृत रहना आवश्यक है।
जिस जिस जगह शान्त धर्म में नफ़रत के अर्थ बोए है,उन्हे दूर करने की आवश्यकता है।
अपके इन नेक विचारों से असहमत होने का तो किसी के लिए भी कोई सवाल ही नहीं पैदा हो सकता......
शाह नवाज़ भाई,
कहते हैं इंसान की भूल उसका कभी पीछा नहीं छोड़ती है. इंसान को इंसान मुआफ़ कर सकता है, कभी कभी रहमान (अल्लाह) भी मुआफ़ कर देता है !! लेकिन इन्सान की भूल उसे कभी मुआफ़ नहीं करती है!
मैंने अपनी पोस्ट डिलीट कर दी है... बल्कि मैंने अपना पूरा का पूरा स्वच्छ सन्देश ब्लॉग ही बदल डाला है. यहाँ तक कि उसमें मेरी पिछले डेढ़ साल की लगभग 250 पोस्टें थीं... सब डिलीट कर डाली है...
मैंने हमारी अन्जुमन से स्वेच्छा से बतौर मेम्बर और पोस्ट-कर्ता के इस्तीफ़ा दे दिया है... अब मेरी कोई पोस्ट नहीं रहेगी उस पर !! साथ ही मैंने हमारी अन्जुमन पर लिखी अपनी 50 से अधिक पोस्टें भी डिलीट कर डालीं हैं...लिंक इन को डिसेबिल कर पुनह लगा दूंगा जिससे उसमें से मेरे द्वारा लिखे गए पोस्ट की एक भी पोस्ट नहीं दिखेगी इंशा अल्लाह !!!
और हाँ अब जो किया है वह परमानेंट किया है अर्थात "नदी पार करके नाव ही जला दी"
अब गेंद आपके पाले में है...! आपका विवेक क्या कहता है... !!
shaah nvaaz bhaai aadaab islaah ke liyen uthaayaa gyaa aapkaa qdm sraahniy he mubaaark ho aapne bhi sch likha or slim bhaai ne bhi sch likha he dono apni apni jgh shi hen ekin slim bhaai ko islaah ki baat pr naaraaz nhin honaa chaahiye. akhtar khan akela kota rajsthan meraa hindi blog akhtarkhanakela.blogspot.com he
सलीम भाई, मेरा मकसद आपको गलत साबित करना नहीं था, मैं तो केवल आपको हकीकत से रु-बरु करना चाहता था, कई बार हम अक्सर बात को पूरा समझे बिना अपने मन में विचार बना लेते हैं. दर-असल इसी कारण आपस में गलत फहमियां फैलती हैं. और हमारा यही तो प्रयास और कर्तव्य है, कि लोगों में धर्म के बारे में फैली भ्रांतियां दूर हों.
मेरे अज़ीज़ दोस्त, तुम खुद गवाह हो कि ब्लॉग जगत में आने के बाद जितने फोन और जितनी बात मैंने तुम्हारे और उमर कैरानवी भाई के साथ की हैं, विश्वास कीजिये इतनी बात मैंने कभी किसी से नहीं की. मेरे कहने का मतलब केवल इतना है कि अगर आपको मेरी कोई बात गलत लगी हो, या मुझसे आपकी कोई बात समझने में गलती हुई तो आपको मुझे बताना चाहिए था. इस तरह के कदम उठाना तो अविश्वास को दर्शाता है दोस्त. और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि कभी भी आपको अविश्वास का मौका नहीं दूंगा, बल्कि आपको ही क्या, मैं कभी भी किसी के साथ ऐसा कार्य करना पसंद नहीं करता हूँ कि उसके ह्रदय में मेरे विरुद्ध अविश्वास की भावना जागे.
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