इस्लाम धर्म से सम्बंधित प्रश्न एवं उनके उत्तर

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  • Saturday, June 13, 2009
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  • Shah Nawaz
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  • प्रश्न: जिस व्यक्ति ने इस्लाम स्वीकार नहीं किया किन्तु कभी कोई पाप व्यभिचार भी नहीं किया उसकी क्या गति है इस्लाम के अनुसार?

    उत्तर: दुनिया में तो सब बराबर हैं, जो भी पुन्य करेगा वह उसका अच्छा बदला पायेगा. क्योंकि ईश्वर ने सभी को अपने हिसाब से जीवन को यापन करने का अवसर दिया है. वह हर व्यक्ति से किसी माँ से 70 गुना से भी ज्यादा प्रेम करता है, बिना यह देखे कि वह व्यक्ति उसको यानि ईश्वर को मानता है या नहीं.

    लेकिन परलोक में हिसाब-किताब इस बात पर होगा कि किसने ईश्वर को ईश्वर माना और किसने ईश्वर के साथ किसी और को शामिल किया, जैसे की मूर्ति / पत्थर / तस्वीर या फिर इंसान / जानवर / पेड़ इत्यादि. अर्थात अगर किसी ने ईश्वर के साथ किसी और को ताकत माना तो यह शिर्क कहलाता है. और अल्लाह ने कुरान में कहा है कि वह कुफ्र और शिर्क के अलावा जिस पाप को चाहेगा माफ़ कर देगा या फिर पाप की सजा भुगतने के बाद नर्क से निकाल देगा और शिर्क और कुफ्र करने वालो कि जगह नरक है, जहाँ वह हमेशा रहेंगे.

    प्रश्न: ईश्वर के अलावा किसी और को ईश्वर मानने की सजा देने पर तो ईश्वर अन्यायी हो जाता है?

    उत्तर: ईश्वर ने स्वर्ग और नरक बनाये, तब सभी आत्माओं से मालूम किया क्या वह उस ईश्वर को ईश्वर मानते हैं, तो सभी ने एक सुर में कहा हाँ. तब ईश्वर ने कहा ऐसे नहीं, अपितु तुम्हे दुनिया में भेज कर परीक्षा लूँगा. कि कौन मेरे बताये हुए रास्ते पर चलता है और कौन नहीं. ताकि कोई भी मुझ पर यह दोष न लगा सकते की उसके साथ अन्याय किया. परीक्षा में सबको पता चल जायेगा की कौन फेल होगा और कौन पास, इसमें कुछ आंशिक रूप से भी फेल हो सकते हैं और कुछ पूर्ण रूप से भी फेल हो सकते हैं.

    प्रश्न: ये किसी न्यायकारी ईश्वर का फरमान नहीं, किसी सुलतान की भाषा लगती है जो जिस पाप को चाहे माफ़ कर दे, जिस पाप की चाहे जितनी लम्बी सजा दे, जो इस बात से भी डरता है की उसके अलावा किसी और को न पूजा या माना जाए, कर्म की अवधि और फल की अवधि का भी कोई मेल नहीं है?

    उत्तर: मैं भी यह मानता हूँ कि ईश्वर किसी नियम के तहत बाध्यकारी नहीं हैं, चाहे वह नियम स्वयं उसने ही बनाये हों. लेकिन उसने कहा है कि न्याय के दिन वह सबके साथ न्याय करेगा, किसी के साथ अन्याय नहीं होगा. इसलिए जिसने भी उसको ईश्वर माना था (जबकि वह आत्मा के रूप में था, और आत्माओं के लोक का निवासी था), तो ईश्वर की वाणी के अनुरूप वह अगर उसको इस पृथ्वी में भी ईश्वर मानता है और अच्छे कर्म करता है, तो स्वर्ग का वासी होगा, अन्यथा नरक का वासी होगा.

    आपने सही कहा कि कर्म की अवधि और फल की अवधि का कोई मेल नहीं हो सकता है. हो सकता है किसी ने सिर्फ एक पल के लिए ही उसको ईश्वर माना, और अपने पापो कि माफ़ी चाही (जबकि पूरी ज़िन्दगी इनकार करता रहा हो) और वह पल उसकी ज़िन्दगी का आखिरी पल हो, तो वह हर पाप से माफ़ होगा, और ईश्वर पर विश्वास करने वालो में उसकी गिनती होगी.



    प्रश्न: तो फिर ईश्वर ने किसी को अमीर, किसी को गरीब, किसी को मनुष्य, किसी को गधा, किसी को बुद्धिमान, किसी को मूर्ख, किसी को तिलचट्टा, किसी को मक्खी क्यों बनाया? सब को कुरान रटा कर क्यों नहीं भेजा? किसी की परीक्षा २ साल के लिए, किसी की १०० साल तक क्यों लेता है| किसी को जन्म के तुरत बाद कोमा में दाल देता है| किसी को बचपन से पागल बना देता है| आत्माओं ने ऐसे क्या कर्म किये थे की किसी को इस धरती पर ही स्वर्ग मिलता है एवं किसी का जीवन जहन्नुम के जैसा होता है?

    उत्तर: ईश्वर ने सेहत एवं बीमारी, अमीर एवं गरीब तो सिर्फ परीक्षा लेने के लिए बनाये हैं ताकि पता चल सके कि अमीर और गरीब के लिए जो नियम बनाये हैं उन पर खरा उतरता है या नहीं.

    उदहारण: अमीर व्यक्ति ने पैसे सही कार्यों को करके कमाए हैं या गलत कार्यों द्वारा? उनको सही कार्यों में खर्च करता है या बुराई के कार्यो में? ईश्वर का धन्यवाद करता है या या कहता है कि "यह पैसा तो मैंने अपनी चतुराई से कमाया, इसमें ईश्वर से क्या लेना-देना?" वहीँ अगर कोई गरीब है तब भी ईश्वर देखता है कि यह इस हाल के लिए भी ईश्वर का धन्यवाद करता है या नहीं? मेहनत और इमानदारी से पैसा कमाने कि कोशिश करता है या फिर बुरे कार्यो के द्वारा अपनी आजीविका चलने की कोशिश करता है, इत्यादि....

    ईश्वर बीमारियाँ देता है कि व्यक्ति उसको (यानि ईश्वर को) पहचान सके कि सेहत और बीमारी दोनों ईश्वर के हाथ में हैं. वह जब चाहता है सेहत देता है जब चाहता है बीमारी. वही, वह बिमारियों के बदले में पापो को क्षमा कर देता है. यहाँ परीक्षा होती है कि बीमार व्यक्ति यह कहता है कि "हे ईश्वर, इस हाल में भी तेरा शुक्र है!", या फिर यह कहता है "हाय! हाय! कैसा निर्दयी ईश्वर है जिसने मुझे इस परेशानी में डाल दिया?".

    आप अगर यह समझते हैं की अमीर के लिए दुनिया में ही स्वर्ग है, तो यह आपकी ग़लतफ़हमी है. पैसे मिलने या गरीब होने भर से कभी सुख नहीं मिल सकता, अपितु सुख और शांति तो ईश्वर के ही हाथ में हैं. जितने भी संत पुरुष और ऋषि-मुनि गुज़रे हैं, अधिकतर ने माया के त्याग में सुख-शांति की प्राप्ति की है.

    प्रश्न: जन्म लेने से पहले सभी आत्माओं ने करार किया था के एक अल्लाह की इबादत ही करेंगे ... क्या इस बात का कोई प्रमाण कुरान से दे सकते हैं?

    उत्तर: Imam Junayd, radiya'llahu anhu, said that Allah, subhanahu wa ta'ala, gathered before the creation of the world all of the spirits, all the arwah, and said, Qur'an 7:172:
    Alastu bi-Rabbikum? (Am I not your Lord?)
    They said, "We testify that indeed You are!"

    [7:172] Recall that your Lord summoned all the descendants of Adam, and had them bear witness for themselves: "Am I not your Lord?" They all said, "Yes. We bear witness." Thus, you cannot say on the Day of Resurrection, "We were not aware of this."

    प्रश्न: किन्तु मेरा प्रश्न ये है के यदि ऐसा कोई करार हुआ भी था तो हमको याद क्यूँ नहीं? और जो याद से मिटा दिया गया उस करार के आधार पर हमको आखिरत में सजायें दे जाएँगी, ये कैसा इन्साफ हुआ?

    उत्तर: इसीलिए ही ईश्वर समय-समय पर एवं पृथ्वी के हर कोने में महापुरुषों को अपना संदेशवाहकों बना कर भेजता है, जैसे कि श्री इब्राहीम (उन पर शांति हो), श्री नुह (उन पर शांति हो), श्री शीश (उन पर शांति हो) इत्यादि, (हो सकता है इस क्रम में श्री राम और श्री कृष्ण को भी हों) और आखिर में प्यारे महापुरुष मुहम्मद (उन पर शांति हो) को भेजा और उनके साथ अपनी वाणी कुरान को भेजा. कुरान में ईश्वर ने कहा कि उसने इस पृथ्वी पर एक लाख और 25 हज़ार के आस-पास संदेशवाहकों को भेजा है, जिसमे से कई को अपनी पुस्तक के साथ भेजा है. लेकिन कुछ स्वार्थी लोगो ने केवल कुछ पैसे या फिर अपनी प्रिसिद्धि के कारणवश उन पुस्तकों में से काफी श्लोकों को बदल दिया. तब ईश्वर ने कुरान के रूप में अपनी वाणी को आखिरी संदेशवाहक मुहम्मद (उन पर शांति हो) के पास भेजा और क्योंकि वह आखिरी दूत थे इसलिए यह ज़िम्मेदारी ईश्वर ने स्वयं अपने ऊपर ली कि इस पुस्तक में कोई बदलाव नहीं कर पायेगा.

    इसके अलावा इंसानों को खुली चेतावनी भी दी कि अगर तुम्हे यह लगता है कि यह पुस्तक स्वयं मुहम्मद (उन पर शांति हो) ने लिखी है अर्थात किसी इंसान के द्वारा लिखी गयी है, तो ऐसी पुस्तक तुम भी लिख कर दिखा दो, अगर लिख पाए तो समझना कि यह पुस्तक (अर्थात कुरान) किसी इंसान ने लिखी है अन्यथा मान लेना कि यह खुद परम परमेश्वर ने लिखी है और यह किताब पहले भेजी गयी किताबो को सही भी कहती है.

    प्रश्न: स्मरण रहे! परीक्षा वही लेता है जिसका ज्ञान पूरा नहीं है| ईश्वर को जीव के सामर्थ्य का बखूबी अंदाजा है, भला वह क्यूँ लेने लगा किसी की परीक्षा?

    उत्तर: ईश्वर तो स्वयं जानता है की कौन कैसा है, आप सही कह रहे हैं की उसे परीक्षा लेने की ज़रूरत नहीं है. परीक्षा तो वह इसलिए लेता है कि कोई उसपर यह आरोप या आक्षेप न लगा सके कि उसे तो मौका ही नहीं मिला, वर्ना वह तो ज़रूर उसके बताये हुए रस्ते पर चलता. क्योंकि ईश्वर को साक्षात् अपने सामने पा कर तो कोई भी उससे इनकार नहीं करेगा.

    परीक्षा तो यही है कि उसकी निशानियों (जैसे की उसकी प्रकृति, ताकत एवं सूचनाओं) पर ध्यान लगा कर उसको अपना ईश मानता है या फिर अपने आप को बड़ा समझता है, या फिर शैतान की बातो में आकर शैतान को ही अपना पालने वाला मानने लगता है.

    प्रश्न: ईश्वर सबकी अलग अलग तरीके से परीक्षा क्यों लेता है? जब एक ही जन्म है तो परीक्षा का तरीका भी एक ही होना चाहिए| अगर बोर्ड एक्साम में किसी को २ घंटे का पेपर मिले, किसी को चार घंटे का, किसी को सिर्फ एक प्रश्न पूछा जाये, किसी को २००, किसी को यह कहकर पास कर दिया जाये कि बीमार था इसलिए परीक्षा नहीं दे पाया, किसी को परीक्षा के सारे प्रश्नों के उत्तर याद करवा दिए, किसी को यह भी नहीं बताया कि किस विषय कि परीक्षा है, तो यह परीक्षक के पक्षपातीपन के सिवाय और क्या सिद्ध करता है?

    उत्तर: अगर आप इसे दुनिया की परीक्षाओं की तरह लेते हो तो आपको ज्ञात होगा की दुनिया में भी हजारों ऐसी परीक्षाएं होती हैं, कहीं प्रश्न सिर्फ एक होता है, तो कहीं परीक्षा बहुत अधिक कठिन होती है. परीक्षार्थी हमेशा अपने सामर्थ्य अनुसार परीक्षा पद्धति को अपनाता है. और पास होने पर परीक्षा अनुरूप ही फल मिलता है. मेरे ख्याल से यहाँ भी यही बात है. जो व्यक्ति ईश्वर के जितने अधिक सानिध्य होने का दावा करता है, उसकी परीक्षा उतनी ही अधिक होती है. युवावस्था में पहुँचने के बाद मौका तो सभी को बराबर मिलता है. किसी को प्रभु की प्राप्ति एक पल में ही हो जाती है और किसी को पूरा जीवन लग जाता है.

    रही बात किसी की आयु कम और किसी की ज्यादा होने की तो यह तो ईश्वर ने धरती को बनाया ही ऐसे है ताकि लोगो को पता रहे की जीवन के बाद मृत्यु है, और यह भी की वह यह न समझने लगे की मृत्यु तो अमुक आयु के बाद ही आएगी और ईश्वर का वादा है की मृत्यु से पहले अगर पाप की ह्रदय से माफ़ी मांग ली और फिर न करने की शपथ भी ले ली, इसलिए अमुक आयु तक कुकर्म किये जाओ, जब मृत्यु का समय आएगा तो माफ़ी मांग कर फिर सु:कर्म ही करेंगे.

    प्रश्न: अगर कर्मो का फल किसी और दुनिया में किसी और दिन मिलना हैं तो फिर फिर इश्वर का न्याय कैसे तर्कसंगत हुआ मतलब मैंने किसी गरीब की हाय ली बद्दुआ ली और अगर मैं निश्चिंन्त हूँ की मुझे उस कुकर्म की सजा किसी और दिन मिलनी हैं और वोह भी १ ऐसी जगह जिसके अस्तित्व के बारे में मैंने सुना हैं,पढ़ा हैं देखा या महसूस तो किया भी नहीं, १ ऐसी जगह जिसके अस्तित्व का कोई अकाट्य प्रमाण नहीं वह सुख भोगने क लिए मैं यहाँ क्यों आसान और अनैक्तिक रास्तो को त्यागु?

    उत्तर: आमतौर पर कर्मो का फल तो इसी जीवन में भोगना पड़ता है. मृत्यु उपरांत सिर्फ फल नहीं अपितु पारितोषिक मिलता है. दोनों में फर्क है. उदाहरणत: किसी पुलिस कर्मी ने किसी आतंकवादी को पकड़ लिया या मार गिराया, तो यह उसका कर्म था और उसके कर्म का फल तो उसको मेहनताने के रूप में मिलता ही है, लेकिन साथ में अलग से ईनाम भी दिया जाता है, जो की मेहनताने से बहुत अधिक होता है..

    प्रश्न: अगर कर्मो का फल यही झेल लिया तो फिर उसका हिसाब ऊपर जा कर क्यों? अगर कर्म यही सब के सामने हुआ तो फल हो या पारितोषक जो भी मिले यही मिलना चाहिए. तभी तो बुरा कर्म करने वाले को पत्ता चलेगा की उसने अनैतिक कार्य करके क्या खोया हैं?

    उत्तर: मित्र, जीवन एक परीक्षा कक्ष की तरह है, और परीक्षा का परिणाम तो परीक्षा के बाद ही मिलता है, हाँ यह ज़रूर है कि परीक्षा के समय परीक्षार्थी प्रश्नों को हल करते समय अगर सही से हल करता है तो उसे स्वयं में हर्ष का एहसास होता है. उसको महसूस हो जाता है कि वह पास हो जायेगा. वह कहता है कि प्रश्न पत्र बहुत आसान था. यह उसके लिए फौरी तौर पर उसका फल होता है. वहीँ किसी और को वह प्रश्न पत्र बहुत मुश्किल लगता है. परीक्षा कक्ष में तो कभी भी परिणाम का पता नहीं चलता है, वह तो सदेव ही परीक्षा समाप्त होने के बाद प्राप्त होता है. जीवन में मिलने वाली सजा या फल तो केवल प्रोत्साहन अथवा हतोथ्साहन के लिए होती है.

    प्रश्न: १ बात और मैंने १०० बुरे कर्म किया और ५० अच्छे काम किये, तो क्या इश्वर यह कैसे तय करेगा की मुझे जन्नत मिलेगी या दोज़ख की आग?

    उत्तर: जिस व्यक्ति ने ईश्वर को ही ईश्वर माना उसे अपने कर्मो के बदले में 1 दिन या इससे अधिक, (करोडो वर्ष भी हो सकती है) के लिए नरक में जाना पड़ता है, जहाँ उसके कुकर्मो के अनुरूप सजा मिलती है. सजा के उपरांत उसे स्वर्ग में लाया जाता है और सुकर्मो के अनुरूप पारितोषिक दिए जाते हैं जो हमेशा-हमेशा कि लिए रहेंगे.

    इसमें एक बात और है, इंसान ने अगर ईश्वर के किसी अधिकार का हनन किया तो, ईश्वर ने कहा है कि वह बहुत बड़ा "माफ़ करने वाला है", लेकिन अगर किसी इंसान ने दुसरे इंसान के अधिकार का हनन किया तो उस पाप की तो हो सकता है माफ़ी हो जाए, परन्तु वह अधिकार बाकी रहेगा और वह तो खुद उसी इंसान को चुकाना पड़ेगा. जैसे किसी को बिला किसी वजह के थप्पड़ मारा, तो हो सकता है उसके अच्छे कार्यो के बदले ईश्वर उसके पाप को माफ़ करदे लेकिन मारे गए थप्पड़ के बदले में अपने अच्छे कर्म उसको देने पड़ेंगे. मैंने पेट भर खाया और पडोसी भूखा सोया (चाहे पडोसी कितना ही पापी क्यों ना हो), उसका जो हक़ मुझ पर था, मैंने उसका हनन किया. हो सकता है मैं अपने अपराध कि अमुक व्यक्ति से मैं अपने अपराध कि माफ़ी मांग लूँ और वह माफ़ करदे. अन्यथा इस अपराध का बदला तो मुझे उसको ही चुकाना पड़ेगा.

    प्रश्न: क्या ईश्वर भी मनुष्यों की तरह मान अपमान और , आरोप ,प्रत्यारोप से डरता है ? कौन उसपे आरोप लगा सकता है?

    उत्तर: मित्र! प्रश्न मान-अपमान या आरोप-प्रत्यारोप से डरने का तो है ही नहीं, बल्कि इन्साफ का है. जैसे मैंने पहले भी कहा कि स्वयं इश्वर को तो परीक्षा लेने की भी ज़रूरत नहीं है वह तो हर छुपी हुई बात का ज्ञाता है. यह परीक्षा तो सिर्फ इसलिए है कि जब सबके सामने हिसाब होगा तो कोई यह न कह सके कि मुझे तो मौका ही नहीं मिला वर्ना मैं तो मानने वालो में होता.

    प्रश्न: खुदा क़यामत के दिन का इंतजार क्यों करता है, आदमी इधर हलाक हुआ उधर उसका हिसाब करे, किसी सरकारी बाबु की तरह एक ही दिन सारे कम निपटने की क्यों सोचता है

    उत्तर: इसमें एक तो यह बात है कि ईश्वर ने इन्साफ का दिन तय किया है ताकि इन्साफ सबके सामने हो और दूसरी बात यह है कि कुछ कर्म इंसान ऐसा करते हैं जिनका पाप या पुन्य इस दुनिया के समाप्त होने तक बढ़ता रहता है. जैसे कि जिस इंसान ने पहली बार किसी दुसरे इंसान की अकारण हत्या की होगी, तो उसके खाते में जितने भी इंसानों कि हत्या होगी सबका पाप लिखा जायेगा. क्योंकि उसने क़यामत तक के इंसानों को कुकर्म का एक नया रास्ता बताया. इसी तरह अगर कोई भलाई का काम किया जैसे कि पानी पीने के लिए प्याऊ बनाया तो जब तक वह प्याऊ है, तब तक उसका पुन्य अमुक व्यक्ति को मिलता रहेगा, चाहे वह कब का मृत्यु को प्राप्त हो गया हो. या फिर कोई किसी एक व्यक्ति को भलाई की राह पर ले कर आया, तो जो व्यक्ति भलाई कि राह पर आया वह आगे जितने भी व्यक्तियों को भलाई कि राह पर लाया और भले कार्य किये, उन सभी के अच्छे कार्यो का पुन्य पहले व्यक्ति को और साथ ही साथ सम्बंधित व्यक्तियों को भी पूरा पूरा मिलता रहेगा, यहाँ तक कि इस पृथ्वी के समाप्ति का दिन आ जाये.

    प्रश्न: "इसमें एक तो यह बात है कि ईश्वर ने इन्साफ का दिन तय किया है ताकि इन्साफ सबके सामने हो." - आपकी ये बात भी ईश्वर के डरपोक या दुनियाबी होने का घोतक लगती है, ईश्वर बहुत से कार्य सबके सामने नहीं करता, और यदि सबके सामने न करे, जो मृत्यु को प्राप्त हुआ उसका न्याय करता जाए तो क्या उसकी बात मानने से मनुष्य इंकार कर देगा, उसके न्याय पे शक करेगा? अपनी साख और इज्जत की चिंता करता है खुदा?

    उत्तर: मित्र इन्साफ के दिन पर डरपोक या दुनियावी होने की बात पर स्वयं ईश्वर कहता है कि इन्साफ करने के लिए उसे किसी की ज़रूरत नहीं है, वह स्वयं ही काफी है :-

    “We shall set up scales of justice for the Day of Judgment so that not a soul will be dealt with unjustly in the least. And if there be (no more than) the weight of a mustard seed We will bring it (to account): and enough are We to take account..”(Chapter Embiya, 21/47.)

    "और हम वजनी, अच्छे न्यायपूर्ण कार्यो को इन्साफ के दिन (क़यामत) के लिए रख रहे हैं. फिर किसी व्यक्ति पर कुछ भी ज़ुल्म न होगा, यद्दपि वह (कर्म) राइ के दाने ही के बराबर हो, हम उसे ला उपस्थित करेंगे. और हिसाब करने के लिए हम काफी हैं. (21/47)"

    रही बात इन्साफ का दिन तय करने की तो जैसे की मैंने पहले भी बताया था, यह इसलिए भी हो सकता है, क्योंकि बहुत से पुन्य और पाप ऐसे होते हैं जिनका सम्बन्ध दुसरे व्यक्ति या व्यक्तियों से होता है. इसलिए "इन्साफ के दिन" उन सभी लोगो का इकठ्ठा होना ज़रूरी है. जब इन्साफ होगा तब ईश्वर गवाह भी पेश करेगा. कई बार तो हमारे शरीर के अंग ही बुरे कर्मो के गवाह होंगे.

    जिस व्यक्ति ने पहली बार कोई "पाप" किया होगा, तो उस "पाप" को अमुक व्यक्ति कि बाद जितने भी लोग करेंगे उन सभी के पापो की सजा उस पहले व्यक्ति को भी होगी, इसलिए धरती के आखिरी पापी तक की पेशी वहां होगी.

    प्रश्न: मान लो अगर कोई राजा अथवा न्यायपालिका यह कहे कि जब तक "सौ कैदी" इकट्ठे नहीं हो जाएँगे तब तक वह न्याय नहीं करेगा, तो यह बड़ा ही अन्याय होगा| क्यूंकि एक व्यक्ति के गुनाहों का दुसरे व्यक्ति के गुनाहों से कोई लेना देना नहीं है| इसलिए उनका इकट्ठे न्याय करना सही नहीं| ठीक इसी तरह क़यामत के दिन तक सब को इकट्ठे न्याय के लिए रोक के रखना गलत है|

    उत्तर: बिलकुल लेना-देना है, उदहारण स्वरुप अगर किसी व्यक्ति ने दुसरे व्यक्ति की हत्या के इरादे से किसी सड़क पर गड्ढा खोदा और उसमें कई और व्यक्ति गिर कर मर गए तो उसके इस पाप के लिए जितने व्यक्तियों की मृत्यु होगी उन सभी का पाप गड्ढा खोदने वाले व्यक्ति पर होगा. ऐसे ही अगर किसी ने कोई बुरा रास्ता किसी दुसरे व्यक्ति को दिखाया तो जब तक उस रास्ते पर चला जायेगा, अर्थात दूसरा व्यक्ति तीसरे को, फिर दूसरा और तीसरा क्रमशः चोथे एवं पांचवे को तथा दूसरा, तीसरा, चोथा एवं पांचवा व्यक्ति मिलकर आगे जितने भी व्यक्तियों को पाप का रास्ता दिखेंगे उसका पाप पहले व्यक्ति को भी मिलेगा, पहला व्यक्ति सभी के चलने का जिम्मेदार होगा. क्योंकि उसी ने वह रास्ता दिखाया है. और इस ज़ंजीर में से जो भी व्यक्ति जानबूझ कर और लोगो को पाप के रास्ते पर डालेगा वह भी उससे आगे के सभी व्यक्तियों के पापो का पूरा पूरा भागीदार होगा.

    इसमें अन्याय कैसे है? वह अगर बुराई की कोई राह दुसरे को दिखता ही नहीं तो दूसरा व्यक्ति तीसरे और चोथे व्यक्तियों तक वह बुराई पहुंचाता ही नहीं. इसलिए उनका इकट्ठे न्याय करना सही है.

    ठीक यही क्रम अच्छाई की राह दिखने वाले व्यक्ति के लिए है. उसको भी उसी क्रम में पुन्य प्राप्त होता रहेगा. क्या तुम यह कहना चाहते हो की अगर किसी व्यक्ति ने पूजा करने के लिए मंदिर का निर्माण किया तो उसके मरने के बाद उसका पुन्य समाप्त हो जायेगा? जब तक उस मंदिर के द्वारा पुन्य के काम होते रहेंगे, मंदिर का निर्माण करवाने वाले को पुन्य मिलता रहेगा.



    प्रश्न: शैतान को किसने बनाया है?

    उत्तर: शैतान अर्थात इब्लीस फरिश्तो के एक संघ का सरदार था, जब ईश्वर ने आदम यानि मनु (उन पर शांति हो) को मिटटी से पैदा किया और ईश्वर ने सभी को कहा कि आदम के सामने नतमस्तक हो जाओ तो इब्लीस ने अपने अहम् में आकर कहा कि यह तो मिटटी से बना है और मैं आग से बना हूँ, मैं इससे ऊपर हूँ, इसलिए मैं इसे सजदा नहीं करूँगा.

    ईश्वर ने उसके इस अपराध पर उसे स्वर्ग से निकाल दिया, तब उसने आदम (अ) को बहकाना शुरू किया ताकि उन्हें भी स्वर्ग से निकलवा सके और आखिर एक दिन आदम को बहकाने में सफल हो गया. ईश्वर ने आदम को उनकी पत्नी के साथ पृथ्वी पर भेज दिया. हम सब उन्ही कि संतान हैं. तब इब्लीस ने यह कहा था कि मैं आदम की संतानों को बहकाऊंगा ताकि यह सब नरक में जा सकें. इस पर ईश्वर ने कहा कि जो मुझे मानने वाला होगा वह तेरी बातो में नहीं आएगा.



    प्रश्न: तो क्या एक दिन शैतान, ईश्वर से जीत जाएगा?

    उत्तर: "(Iblis) said: 'Allow me respite till the Day they are raised up (i.e. the Day of Resurrection).' (Allah) said: 'You are one of those respited.' (Iblis) said: 'Because You have sent me astray, surely I will sit in wait against them (human beings) on Your Straight Path. Then I will come to them from before them and behind them, from their right and from their left, and You will not find most them as thankful ones (i.e. they will not be dutiful to You).' (Allah) said (to Iblis): 'Get out from this (Paradise), disgraced and expelled. Whoever of them (mankind) will follow you, then surely I will fill Hell with you all.'" (Qur'an 7: 14-18).

    [7: 14-18] - (इब्लीस) बोला: "मुझे उस दिन तक मुहलत दे, जबकि लोग उठाएं जाएँगे." (ईश्वर ने) कहा: "निसंदेह तुझे मुहलत है". (इब्लीस) बोला: "अच्छा, इस कारण तुने मुझे गुमराही में डाला है (अर्थात तेरे सजदे के लिए आदेश देने के कारण में गुमराही में पड़ गया). मैं भी तेरे सीधे मार्ग पर उनके (आदम और उसकी औलाद) लिए घात में अवश्य बैठूँगा. फिर उनके आगे और उनके पीछे और उनके दाएं और उनके बाएँ से उनके पास जाऊंगा. और तू उनमे से अधिकतर को क्रतग्य न पाएगा". (ईश्वर ने) कहा: "निकल जा यहाँ से! निन्दित, ठुकराया हुआ. उनमे से जिस किसी ने भी तेरा अनुसरण किया, मैं अवश्य तुम सबसे जहन्नुम को भर दूंगा.".

    इब्लीस के लिए तो ईश्वर ने पहले ही नर्क का फैसला कर दिया है इसलिए उसके जीतने - ना-जीतने का कोई प्रश्न ही यहाँ नहीं है. यह तो उसका विधान है कि इन्साफ का दिन तब आएगा जब सब मानने वाले ख़त्म हो जाएँगे.

    दूसरी बात यह की ईश्वर ने जितनी भी आत्माओं को बनाया है, उसमें किसने उसकी बात को मानना है और किसने नहीं मानना, यह तो ईश्वर को पहले से ही मालूम है. बस बात यह है कि वह उनको सबसे आखिर में भेजेगा. और परीक्षा में तब तक की ही मोहलत देगा जब तक कि आखिरी मानने वाले इंसान की मृत्यु नहीं होती.

    एक बात यह भी है कि गुमराह होने में सिर्फ इब्लीस का ही हाथ नहीं होता, वह तो सिर्फ अनेक कारणों में से एक कारण भर है, दूसरा कारण इंसान का अहम् भी है. इसके अलावा और भी कारण हो सकते हैं.

    कुरान-ए-करीम की ऊपर लिखी आयत से यह भी ज़ाहिर हो गया की इब्लीस के गुमराह होने से पहले ही इन्साफ के दिन का निर्धारण हो गया था.



    प्रश्न: रूह क्या है?

    उत्तर: रूह अथवा आत्मा:
    सबसे पहले, हमें 'जीवन' और आत्मा का भेद पता करना पड़ेगा. जीवन एक शक्ति है जो प्राणी को रहने के विभिन्न भागों में कार्य करने के योग्य बनाता है. जब तक शरीर में ''जीवन" (अर्थात ऊर्जा है), विभिन्न भाग काम कर सकते हैं. जब शरीर, ऊर्जा (अर्थात जीवन) को खो देता है (एक बैटरी की शक्ति की तरह), उसके सभी भाग कार्य करना बंद कर देते हैं. और तब उसका शरीर मृत हो जाता है. मृत्यु का होना ऊर्जा का अभाव है, जिसके बिना शरीर कार्य नहीं कर सकता हैं. सभी प्राणियों (पशुओं और पौधों) को 'जीवन' या ऊर्जा प्राप्त है, जब तक कि उन में जीवन, ऊर्जा की अभिव्यक्ति के रूप में है. 15:29, 38:72 और 32:9 में निर्दिष्ट है कि रूह जीवन से अलग है.

    आत्मा की विशेषता की वजह से फरिश्तो को हुक्म हुआ था कि वह आदम को सजदा करें. आदम के अलावा फ़रिश्ते सिर्फ अल्लाह को सजदा करते हैं [16:49]. इससे पता चलता है कि आत्मा, ईश्वर के गुण का सार है, जब मनुष्य में साँस है तो उसे फरिश्तो की श्रद्धा के योग्य बना दिया.
    यह 'रूह' एक सॉफ्टवेयर' की तरह है, तुम इसके प्रदर्शन को देख या अनुभव तो कर सकते हो लेकिन शरीर (अर्थात हार्डवेयर) की तरह छू नहीं सकते.
    Question: When does the rooh enter the body?

    Answere: After 120 days.

    Refrence:
    Abu Abd al-Rahman Abdullah bin Mas’ud (R.A.), reported: Rasulullah (Peace be upon him), the most truthful, the most trusted, told us:

    “Verily the creation of any one of you takes place when he is assembled in his mother’s womb; for forty days he is as a drop of fluid, then it becomes a clot for a similar period. Thereafter, it is a lump looking like it has been chewed for a similar period. Then an angel is sent to him, who breathes the ruh (spirit) into him. This Angel is commanded to write Four decrees: that he writes down his provision (rizq), his life span, his deeds, and whether he will be among the wretched or the blessed.

    I swear by Allah – there is no God but He – one of you may perform the deeds of the people of Paradise till there is naught but an arm’s length between him and it, when that which has been written will outstrip him so that he performs the deeds of the people of the Hell Fire; one of you may perform the deeds of the people of the Hell Fire, till there is naught but an arm’s length between him and it, when that which has been written will overtake him so that he performs the deeds of the people of Paradise and enters therein.”

    [Al-Bukhari & Muslim]

    प्रश्न: कुरान में परस्पर विरोधी बाते: 1 - पक्ष =
    "जब हम किसी चीज को चाहते है तो हमारा कहना उसके बारे में बस इतना ही होता है की हम फरमा देते है की "हो " और वो हो जाता है " -कुरान ,सुरा- अल नहल, आयात-४० ( १६:४०)

    विरोध = "वही है जिसने असमान और जमीन को ६ दिनों में बनाया और उसका तख्त पानी पर था ताकि तुम लोगो को जाचे की तुम लोगो में किसके कर्म अच्चे है ." कुरान , सूरा- अल हूद , आयात -७ (११:७)

    (ये देखिये जैसे पहले तो खुदा बड़ी बड़ी हांक रहा था और जब करने की बारी आई तो ६ दिन लगे क्यों नहीं कहा की हो और सब हो जाता एक पल में अब ये मत कहना की वो कर तो सकता था पर वो विनम्र बन रहा था अगर उसको विनम्रता दिखानी ही थी तो ६ दिन ही क्यों लगे १० दिन या एक महिना क्यों नहीं?)


    उत्तर: मित्र, [16:40] में क्या यह लिखा है कि वह उसी पल में हो जाती है? हालाँकि ईश्वर की ताकत समय की पाबन्द नहीं है, लेकिन हर चीज़ के होने में वह अलग अलग समय का निर्धारण करता है, जैसे कि किसी बच्चे को पैदा होने में 9 माह के करीब का समय निर्धारित है, हालाँकि वह चाहता तो 1 दिन या इससे कम में भी पैदा हो सकता था.



    प्रश्न: कुरान में परस्पर विरोधी बाते: 2 - पक्ष =
    "यह किताब कुरान इस किस्म का नहीं की खुदा के सिवाय और कोई इसे अपनी तरफ से बना लावे " - कुरान, सूरा युनुस आयात (10:37)

    विरोध = " खुदा के सिवाय किसी की पूजा मत करो में उसी की ओर से तुम्हे डराता हूँ " कु० सु० हूद ,आ० २ (११:२)
    = "खुदा इनको गारत करे किधर को भटके चले जा रहे है " कु० सू० तौवा आ० ३० .
    = " खुदा की कसम तुमसे पहले हमने बहुत सी उम्मतों की तरफ पैगम्बर भेजे " कु०सू० हल आ० ६९
    (इनमें खुदा की ओर से डराने वाला, खुदा से गारत करने की प्रार्थना करने वाला, खुदा की कसम खाने वाला व्यक्ति कुरान का लेखक खुदा से प्रथक कोई और है, यह स्पष्ट है )


    उत्तर: अगर आप कापी पेस्ट करने की जगह स्वयं पढ़ते तो शायद बात तुम्हे स्वयं ही समझ में आ जाती.
    मैं सुर: हूद की आयात 1 से 4 तक का अनुवाद निचे लिखा रहा हूँ. और इससे तुम्हे समझ आ जाएगा कि कोष्टक ("xx") में लिखे वाक्य मुहम्मद (स.) से लोगो को कहने के लिए कहें गए हैं.

    [11:1] अलिफ़. लाम. रा. यह एक किताब है जिसकी आयते पक्की हैं, फिर सविस्तार बयान हुई है; उसकी और से जो अत्यंत तत्वदर्शी, पूरी खबर रखने वाला है.
    [11:2] कि "तुम अल्लाह के सिवा किसी कि बंदगी न करो. मैं तो उसकी ओर से तुम्हे सचेत करनेवाला और शुभ सुचना देनेवाला हूँ." और यह कि "अपने रब से क्षमा मांगो, फिर उसकी ओर पलट आओ. वह तुम्हे एक निश्चित अवधि तक सुखोपभोग कि उत्तम सामग्री प्रदान करेगा. और बढ़-चढ़कर कर्म करनेवालों पर वह तदाधिक अपना अनुग्रह करेगा, किन्तु यदि तुम मुंह फेरते हो तो निश्चय ही मुझे तुम्हारे विषय में एक बड़े दिन की यातना का भय है.
    [11:4] तुम्हे अल्लाह ही की ओर पलटना है, और उसे हर चीज़ का सामर्थ्य प्राप्त है."


    अल्लाह अगर स्वयं अपनी कसम खा रहा है तो इसका सीधा सा मतलब है कि वह बात बहुत अधिक महत्त्व की है. जहाँ तक बात अपने आप को "मैं" न लिख कर "अल्लाह" लिखने कि तो यह तो सिर्फ लिखने का तरीका भर है, अगर आपको अरबी भाषा की जानकारी होती तो यह प्रश्न मालुम नहीं करते.

    और यहाँ गारत करने की प्रार्थना नहीं है बल्कि गुस्से कि अभिव्यक्ति है. पूरी आयात पढो तो शायद मालूम पड़ जाए.

    [9:30] यहूदी कहते है: "उजैर अल्लाह का बेटा है" और ईसाई कहते है: "मसीह अल्लाह का बेटा है." ये उनकी अपने मुंह की बातें हैं. यह उन लोगो की सी बातें कर रहे हैं जो इससे पहले इनकार कर चुके हैं. अल्लाह की मार इन पर! ये कहा से औंधे हुए जा रहे हैं!

    प्रश्न: कुरान में परस्पर विरोधी बाते: 3 - पक्ष =

    "खुदा फसाद नहीं चाहता " - कु० सू० बक़रः आ० २०५ (२:२०५)
    विरोध = " हमने हर बस्ती में बड़े बड़े अपराधी पैदा किये ताकि वहां फसाद करते रहे और षडयंत्र रचे " कु० सू० अनआम आ० १२३ ( ६:१२३)

    (अब खुदा क्या चाहता है क्या नहीं आप ही समझो)




    उत्तर: पहले दोनों लिखी गयी आयातों को उनके साथ की आयातों के साथ पढ़ते हैं.


    [2:205] और जब लौटता है, तो धरती में इसलिए दौड़-धुप करता है कि इसमें बिगड़ पैदा करे और खेती और नस्ल को तबाह करे, जबकि अल्लाह बिगाड़ को पसंद नहीं करता.

    [2:206] और जब उससे कहा जाता है: "अल्लाह से डर", तो अंहकार उसे और गुनाह पर जमा देता है. अत: उसके लिए तो जहन्नम ही काफी है, और वह बहुत ही बुरी शय्या है.


    एवं


    [6:122] क्या वह व्यक्ति जो पहले मुर्दा था, फिर उसे हमने जीवित किया और उसके लिए एक प्रकाश उपलब्ध किया जिसको लिए हुए वह लोगों के बीच चलता-फिरता है, उस व्यक्ति कि तरह हो सकता है जो अंधेरो में पड़ा हुआ हो, उससे कदापि निकलनेवाला न हो? ऐसे ही इनकार करने वालो के कर्म उनके लिए सुहावने बनाए गए हैं.

    [6:123] और इसी प्रकार हमने प्रत्येक बस्ती में उसके बड़े-बड़े अपराधियों को लगा दिया है कि वे वहा चाले चलें. वे अपने ही विरूद्व चाले चलते हैं, किन्तु उन्हें इसका अहसास नहीं है.

    [6:124] और जब उनके पास कोई आयात (निशानी) आती है तो वे कहते हैं: "हम कदापि नहीं मानेंगे,.................

    पहले वाली आयातों में ईश्वर बता रहा है कि वह फसाद को पसंद नहीं करता है. और जब वह फसाद करने वालो को डरता है तो अपने अंहकार की वजह से और गुनाह करते हैं. यह आयतें तालिबानियों की जैसी सोच वालो के लिए है.

    वहीँ दूसरी आयातों में दो तरह के इंसानों के बारे में बताया गया है, पहले वह जो मानने वाले हैं और दुसरे वह जो इनकार करने वाले हैं. यहाँ ईश्वर कहता है कि उसने इनकार करने वालो को प्रत्येक बस्ती में लगा दिया है कि वह वहां अपनी चाले चलें (अर्थात उनको छूट दी है कि वह बुराई के कार्य करें). लेकिन वे अपने ही विरूद्व चाले चलते हैं. अर्थात अज्ञानता वश जो भी वह बुरे कार्य कर रहे हैं उसके बदले में उनके ही विरूद्व बुरा होने वाला है, जिसका उनको अहसास भी नहीं है.

    प्रश्न: कुरान में परस्पर विरोधी बाते: 4 - पक्ष =
    "ऐ पैगम्बर! मुसलमानों को लड़ने पर उत्तेजित करो यदि तुम में से जमे रहने वाले बीस भी होंगे तो दो सौ पर ज्यादा ताकतवर बैठेंगे , और अगर तुम में से सौ होंगे तो हज़ार काफिरों पे ज्यादा ताक़तवर बैठेंगे क्योंकि ये ऐसे लोग है जो समझते ही नहीं " कु० सू० अनफल आ० ६५
    विरोध = " और अब खुदा ने तुम पर से अपने हुक्म का बोझ हल्का कर दिया है और उसने देखा की तुम में कमजोरी है, तो अगर तुम में से जमे रहने वाले सौ होंगे तो खुदा के हुकुम से वह दो सौ से ज्यादा ताकतवर होंगे, और अगर तुम में से हज़ार होंगे तो खुदा के हुक्म से दो हज़ार पे ताकतवर बैठेंगे , अल्लाह उन लोगो का साथी है जो जमे रहते है ," कु० सू० अनफल आ० ६६
    (ये तो हद है इससे बड़ा अंतर्विरोध कोई नहीं देखिए अगले ही आयात में विरोध.


    उत्तर: [8:65] ऐ पैगम्बर! मोमिनों को धर्म युद्घ पर उभारो. यदि तुम्हारे बीस आदमी जमे होंगे, तो वे दो सौ पर प्रभावी होंगे और यदि तुममे से ऐसे सौ होंगे तो वे इनकार करनेवालों में से एक हज़ार पर प्रभावी होंगे, क्योंकिं वे नासमझ लोग हैं.

    [8:66] अब अल्लाह ने तुम्हारा बोझ हल्का कर दिया और उसे मालूम हुआ कि तुममे कुछ कमजोरी है. तो यदि तुम्हारे सौ आदमी जमे रहने वाले होंगे, तो वे दो सौ पर प्रभावी रहेंगे और यदि तुममे ऐसे हज़ार होंगे तो अल्लाह के हुक्म से वे दो हज़ार पर प्रभावी रहेंगे. अल्लाह तो उन्ही लोगो के साथ है जो जमे रहते हैं.

    दोनों आयातों को पढने से स्वयं ही पता चलता है कि दोनों आयते अलग-अलग परिस्थितियों के मद्देनज़र भेजी गयीं हैं. जहाँ पहली आयात में ईश्वर लड़ने के लिए आई सेना के साथ युद्ध के लिए कह रहा है, और बता रहा है कि अगर तुम युद्घ लडोगे तो तुम्हारे बीस, दो सौ पर भारी होंगे, अर्थात दुश्मन सेना के सेनानियों का अनुपात [1:10] है. वहीँ दूसरी आयात से पता चलता है कि यह उस परिस्थिति के के मद्देनज़र है जब युद्घ का बोझ हल्का हो गया है, अर्थात दुश्मन सेनाओ का अनुपात [1:2] ही रह गया है.

    प्रश्न: बंधू अगर ईश्वर इतना कृपालु /मायालु हैं तो उसने फिर पेड़-पौधों को सूर्य की रौशनी का मोहताज क्यों बनाया? यह तो कुछ ऐसा हुआ की इश्वर ने पेड़-पौधों से अपनी नज़र हटा ली?

    उत्तर: यह तो जीवन का चक्र है, इसे ही तो विधि का विधान कहते हैं. पृथ्वी पर हर जीव को जिंदा रहने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है. परन्तु यह नियम सिर्फ पृथ्वी लोक के लिए ही है परलोक के लिए नहीं. क्योंकि इस लोक की हर वस्तु से ईश्वर ने अपनी कुदरत का प्रदर्शन किया है. ताकि धरती के निवासी उसको अर्थात परमेश्वर को पहचाने. एवं अपने अहम् या शैतान की बातों में पड़ कर पेड़-पोधो, जीव-जंतुओं, सूरज-चाँद, इत्यादि किसी भी वस्तु को ईश न समझ लें. इंसान को सच्चाई का रास्ता दिखने के लिए ही इस लोक की हर वस्तु को अपना मोहताज सिर्फ बनाया ही नहीं अपितु इंसानों पर ज़ाहिर भी किया, ताकि इंसान आसानी से ईश्वर को पहचान लें.

    प्रश्न: ईश्वर अच्छे कार्यो का स्वर्ग में क्या बदला देगा?

    उत्तर: यह बात समझना ज़रूरी है कि ईश्वर अच्छे कार्यो का स्वर्ग में क्या बदला देगा.

    पवित्र पैग़म्बर मुहम्मद (स.) ने फ़रमाया कि, "अल्लाह कहता है कि, मैंने अपने मानने वालो के लिए ऐसा बदला तैयार किया है जो किसी आँख ने देखा नहीं और कान ने सुना नहीं है. यहाँ तक कि इंसान का दिल कल्पना भी नहीं कर सकता है." (बुखारी 59:8)

    पवित्र कुरान भी ऐसे ही शब्दों में कहता है.

    “So no soul knows what refreshment of eye is hidden for them; a reward for what they did.” (As-Sajdah Verse 17)

    और कोई नहीं जानता है कि उनकी आँख की ताज़गी के लिए क्या छिपा हुआ है, जो कुछ अच्छे कार्य उन्होंने किएँ है यह उसका पुरस्कार है. (32:17)

    दूसरी बात यह है कि स्वर्ग का आशीर्वाद महिलाओं और पुरुषों के लिए एक जैसा हैं. वहाँ दो लिंग के बीच एक छोटा सा भी अंतर नहीं है. यह सुरा: अल-अह्जाब से स्पष्ट है:

    “Surely the men who submit and the women who submit, and the believing men and the believing women, and the obeying men and the obeying women, and the truthful men and the truthful women, and the patient men and the patient women, and the humble men and he humble women, and the charitable men and the charitable women, and the fasting men and the fasting women, and the men who guard their chastity and women who guard their chastity, and the men who remember Allah much and the women who remember — Allah has prepared for them forgiveness and a mighty reward.”(33:35)


    प्रश्न: अगर स्वाद की इच्छा रह गयी तो स्वर्ग में भी जीवन अपूर्ण हैं. स्वाद क लिए चीजों का भक्षण करने वाले को ही लालची कहा जाता हैं क्युकी अब उसके पास उस वास्तु की वाजिब ज़रुरत नहीं हैं. प्रभु को इस लिए पाना की सांसारिक वस्तुए जन्नत में भी मिले तो मैं इसे गलत ही समझूंगा.

    उत्तर:प्रभु के प्रसाद में आनंद लेने को लालची नहीं कहा जाता मित्र. अगर प्रभु कोई पारितोषिक देते हैं तो उसे स्वीकार करना ही धर्म होना चाहिए.


    प्रश्न: वैसे बिना alcohol की मदिरा का सुझाव बढ़िया लगा. आर्य समाज में आने से पहले मैं भी पीया करता था. अब छोड़ दी हैं. ऐसी वाली कभी यहाँ बन पाए तो बताना. पहली बोतल का ढक्कन मैं मैं ही खोलूँगा.

    उत्तर: हम सारे मनुष्य ऐसे ही है, जैसे आप. अगर प्रभु हमें स्वर्ग में मिलने वाले प्रसाद को खोल कर बताता तो सब ऐसे ही प्रश्न करते जैसे आपने किये. क्योंकि हम धरती लोक पर रहते हैं और हमें सिर्फ इस लोक की ही जानकारी है, इसलिए परलोक की वस्तुओं की तुलना भी इसी लोक से करते हैं और इसी वजह से उसे समझना थोडा मुश्किल हो जाता है.

    इसी लिए प्रभु ने कहा है कि:

    "और कोई नहीं जानता है कि उनकी आँख की ताज़गी के लिए क्या छिपा हुआ है, जो कुछ अच्छे कार्य उन्होंने किए है, यह उसका पुरस्कार है." (32:17)

    प्रश्न: यदि एक ही जन्म है तो अल्लाह अन्यायी क्यों नहीं - एक को तो हाफिज़ के घर पैदा किया, ताकि बचपन में ही कुरान इत्यादि घोंट लिया

    दुसरे को इसलाम से परिचय तक भी नहीं कराया
    वाकई में अल्लाह न्यायकारी होता तो बचपन में ही सबको पूरी कुरान कंठस्थ करा कर भेजता, सबको समान आयु देता, सबको समान माहौल देता, और फिर परीक्षा लेता की बन्दा अल्लाह की राह में है या शैतान का चमचा!

    उत्तर: मित्र, प्रभु के सत्य मार्ग को पहचानना धरती के हर मनुष्य के लिए एक सामान है. अल्लाह कहता है (जिसका अर्थ है) कि "वह ना चाहने वालो को धर्म की समझ नहीं देता". और प्रभु को पहचानना या न पहचानना मेरे या तुम्हारे (अर्थात किसी भी मनुष्य के) वश की बात नहीं है, यहाँ तो सिर्फ प्रभु का ही वश चलता है. और वह कहता है कि "अगर कोई मनुष्य मेरी तरफ एक हाथ बढ़ता है, तो मैं उसकी तरफ दो हाथ बढ़ता हूँ, अगर कोई चल कर आता है तो मैं दौड़ कर आता हूँ." इससे यह पता चलता है कि प्रभु को पाने कि इच्छा करना और इसके लिए प्रयास करना ही सब कुछ है, आगे का काम तो स्वयं परमेश्वर का है. हाँ, एक बात यह भी है कि जब प्रभु अपना ज्ञान किसी को दे दे तो उसके बाद उसके बताए हुए रास्ते पर चलना ही प्रभु कि सच्ची अराधना है.


    प्रश्न: किसी बच्चे की मृत्यु हो जाये तो ज़न्नत मिलेगा या जहन्नुम? क्योंकि अभी तक उसकी परीक्षा तो हुई ही नहीं है ? यदि कोई कहे की ज़न्नत मिलेगा क्योंकि उसने जान बूझ कर कोई पाप नहीं किया, तो मेरा प्रश्न है की यदि कोई और व्यक्ति ऐसा हो जिसने बचपन में कोई पाप नहीं किया, किन्तु बाद में पाप किया, तो उसे जहन्नुम क्यों मिले? यदि अल्लाह उसको बचपन में ही मार डालते तो बाद में पाप करने का मौका ही नहीं मिलता ! यदि बच्चे तो जहन्नुम मिलता है, तो अल्लाह अन्यायी हो गया.

    उत्तर: अगर कोई बचपन में ही मृत्यु को प्राप्त कर लेता है तो वह अवश्य ही स्वर्ग में जाएगा. क्योंकि नर्क की जेल के लिए आवश्यक परीक्षा में बैठने से पहले ही ईश्वर ने उसे अपने पास बुला लिया. और ऐसा इसलिए हुआ ताकि मनुष्यों को ज्ञात रहे की उसके पास ईश्वर को पहचानने के लिए कुछ ही पल हैं. और जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए एक पल ही काफी है. एक पल की सच्ची ह्रदय की पूजा, 1000 साल की दिखावटी पूजा से कहीं ऊपर है.

    और जिस मनुष्य ने बचपन में तो कोई पाप नहीं किया, किन्तु बचपन के बाद पाप किया तो वह अवश्य ही पापी है, परीक्षा में पास या फेल तो परीक्षा कक्ष में आने के बाद ही निर्धारित होता है. किसी भी परीक्षार्थी को उसकी नासमझी के दिनों के अच्छे या बुरे कार्य के ऊपर तो पास अथवा फेल नहीं किया जा सकता है ना.......

    रही बात कि अगर कोई किसी को बचपन में मार दे, तो अवश्य ही वह बहुत बड़ा अपराधी है. क्योंकि किसी भी मनुष्य को पाप या पुन्य करने देने का समय अथवा मृत्यु देने का अधिकार तो सिर्फ परमेश्वर के पास है, और उसने कहा है कि जिसने एक मनुष्य को कत्ल किया (उसका हिसाब ऐसे होगा जैसे) उसने धरती के सभी मनुष्यों का कत्ल किया है.

    अगर कोई बचपन में ही मृत्यु को प्राप्त कर लेता है तो ऐसा भगवान की इच्छा से होता है, इसके द्वारा ईश्वर यह सन्देश देता है की वह चाहता तो इंसान को बचपन में ही मृत्यु दे देता. लेकिन जिसको उसने पूरा जीवन जीने का अवसर दिया वह उस अवसर को उस परम पूज्य की भक्ति में बिताये. वह चाहता है की वह इंसान भगवान के दिए हुए जीवन को उसके बनाये हुए नियमो के अनुसार यापन करे. इसलिए अगर ईश्वर ने किसी को पूरा जीवन जीने के लिए दिया तो किसी को अधिकार नहीं की कोई उसका जीवन छीन ले और जो ऐसा करता है वह अवश्य ही पाप का भागी है.

    प्रश्न: प्रश्न: कोई अल्लाह का बन्दा बच्चों को मार डालता है ताकि उन सब को जन्नत मिले, तो वह तो परोपकार का ही काम कर रहा है| उसे जन्नत क्यों नहीं मिलेगा?
    उत्तर: बेशक वह उस बच्चे के हक में अच्छा कार्य कर रहा है, किन्तु अपने हक में बुरा कार्य कर रहा है. क्योंकि उसके लिए जो कार्य प्रभु ने बताया वह स्वयं उसका विरोध कर रहा है.


    प्रश्न:इसका मतलब यह की कोई व्यक्ति किसी बच्चे को मारे तो बच्चा तो जन्नत जायेगा ही, हाँ वह व्यक्ति जहन्नुमी होगा| धरती पर हम देखते हैं की बहुत लोग स्वयं दुःख झेलकर भी अपने बच्चों को सुखी जीवन देते हैं| यदि कोई इसी परोपकार की भावना से प्रेरित होकर बच्चों को मारे की भले मुझे सदा के लिए जहन्नुम मिले, पर कम से कम इन बच्चों को तो जन्नत में रिज़र्वेशन मिल जायेगा, तो क्या ऐसा व्यक्ति त्यागी न हो गया?
    और अल्लाह कुछ लोगों की परीक्षा क्यों नहीं लेता? बाकी की १०० साल तक लेता है| अल्लाह ऐसा पक्षपात क्यों करता है? अल्लाह बिना परीक्षा पास किये किसी को भी जन्नत का एंट्री पास क्यों देता है? और अगर दूसरो को सबक सिखाने के लिए ऐसा करता है तो वो ऐसा आरक्षित लोगों का चुनाव किस आधार पर करता है?


    उत्तर: मित्र, स्वयं दुःख झेलकर अपने बच्चो को सुखी जीवन देना अलग बात है, और उनको परोपकार की भावना से मार देना अलग. आप दुसरो के लिए दुःख झेल सकते हैं, क्योंकि इसकी अनुमति ईश्वर देता है, किन्तु किसी को भी मृत्यु के घाट उतार देने कि अनुमति ईश्वर नहीं देता चाहे वह उसके परोपकार के लिए ही क्यों ना हो.

    अगर किसी ने 100 वर्ष प्रभु की सेवा में जीवन यापन किया किन्तु मृत्यु के करीब आखिरी पलों में उसे या उसके किसी आदेश को मानने से इनकार कर दिया, तो वह इनकार करने वाला कहलायेगा.

    और मनुष्य कितने भी सद्कार्य कर ले, स्वर्ग में जाने के लिए तो फिर भी उसकी दया कि आवश्यकता पड़ेगी. क्योंकि हम जितने ही अच्छे कार्य करते हों, परन्तु इस जीवन में भी ईश्वर की कृपा उससे कहीं अधिक है. इसलिए हमारे अच्छे कार्य, प्रभु की कृपाओं के सामने पहले ही शून्य रह जाएंगी और उनपर दंभ करने वाला मनुष्य खाली हाथ रह जाएगा. फिर प्रभु उसके ह्रदय कि शुद्धता के अनुरूप उसके अच्छे कार्यों को स्वीकार करने अथवा नहीं करने का निर्णय करेंगे.

    स्वर्ग में कई दर्जे (grade) हैं, और धरती के लोगो को देखकर कहा जा सकता है कि संभवत: अधिकतर लोग नीचे दर्जे पर ही रहेंगे, और कुछ विशेष लोग ऊपर के दर्जो पर रहेंगे. धरती पर सच्चे ह्रदय से किये जाने वाला प्रत्येक कार्य एक दर्जा बढा देता है. इसको समझाने के लिए ईशदूत मोहम्मद (स.) ने स्वर्ग की मिसाल एक चटियल मैदान से दी है, और फ़रमाया कि "जब कोई एक अच्छा कार्य करता है, तो उसमें एक विशाल वृक्ष लग जाता है."

    ईश्वर तो स्वयं जानता है कि कौन सा मनुष्य कहाँ ठहरता है, इसलिए अगर वह किसी का चुनाव बचपन में ही मृत्यु के तौर पर करता है, तो उसमें वह मनुष्य ईश्वर से कुछ भी बहस करने कि स्थिति में नहीं होगा, क्योंकि वह स्वयं जानता है कि अगर उसको दुनिया में कुछ और दिन रहने के लिए दिया जाता तो खतरा था कि उसके कार्य उसे नर्क में डाल देते. (वैसे यह मेरे छोटे से मस्तिष्क का विचार भर है)

    प्रश्न: Those who think that the aim of life is to attain unlimited material, do not understand that materialism is the root cause of conflict and pain or dukha. suppose myself and shah reach zannat and fight over a specific hoor! conflict will not end in zannat as the mujahids have to ravish 72 hoors each and divide eatables , palaces , etc amongst themselves

    उत्तर: मित्र, आप धरती लोक के नियम स्वर्ग लोक पर क्यों लागू करते हो? जैसे कि मैंने पहले ही कहा है, धरती लोक परीक्षा की जगह है और स्वर्ग लोक फल की जगह, इसलिए दोनों जगह के नियम एक जैसे नहीं हो सकते हैं. पहले स्वर्ग और नर्क के बारे में थोडी जानकारी हासिल करो, क्योंकि उसके बाद आपके यह प्रश्न स्वत: बेमानी हो जाएँगे.

    पहली बात यह कि, वहां जो मिलेगा वह ईश्वर को अहसान होगा, हमारा हक नहीं. और वहां सब उस परमेश्वर के अहसान मंद होंगे, जैसे कि इसी धरती पर मनुष्यों को छोड़कर बाकी दूसरी जीव होते हैं. दूसरी बात वहां किसी वस्तु की आवशयक इस धरती की तरह नहीं होगी, जैसे कि यहाँ जीवित रहने के लिए भोजन, जल एवं वायु की आवश्यकता होती है.

    ईश्वर परलोक के बारे में कहता है कि:

    “Therein you shall have (all) that your inner‑selves desire.
    [Fussilat 41:31-32]

    [41:31] और वहां तुम्हारे लिए वह सब कुछ होगा, जिसकी इच्छा तुम्हारे मन को होगी. और वहां तुम्हारे लिए वह सब कुछ होगा, जिसकी तुम मांग करोगे.

    रही बात "हूर" की तो उनकी अहमियत का एक बात से शायद कुछ अंदाजा हो जाए कि दुनिया की पत्नी किसी हूर (जिससे स्वर्ग में निकाह हुआ हो) से लाखों गुना ज्यादा खुबसूरत होगी.

    प्रश्न: तुम्हारे पैग़म्बर ने गुलामी प्रथा का समर्थन क्यों किया?

    उत्तर: मित्र, शायद आपको जानकारी नहीं है, कि मुहम्मद (स.) के गुलाम प्रथा उन्मूलन को प्रोत्साहित करने की वजह से ही आज गुलाम प्रथा इस दुनिया से ख़त्म हुई है. और मैंने आपको पहले भी बताया था कि हजरत मारियाह, मुहम्मद (स.) की पत्नी थी.

    वास्तव में यह इस्लाम ही है जिसने सदियों से चली आ रही गुलामी प्रथा को हतोत्साहित किया और बिलाल जैसे कई उदाहरण हैं जिन्हें पूरी आजादी दी गई.

    इतिहासकार भी इसकी पुष्टि करते हैं.

    "....But it must be remembered that the first blow at 'SLAVERY' was struck when 'OMAR' set all slaves at liberty after his conquest of Jerusalem."--[ The Spirit and Struggle of Islam by Prof. T.L.Vaswani, Ganesh & Co., Madras-1921]



    पवित्र कुरान कहता है कि:

    [24:32] You shall encourage those of you who are single to get married. They may marry the righteous among your male and female servants, if they are poor. GOD will enrich them from His grace. GOD is Bounteous, Knower.

    [24:32] तुममे जो बेजोडे (अविवाहित) के और तुम्हारे गुलामों और तुम्हारी महिला गुलामो में जो नेक और योग्य हो, उनका विवाह कर दो. यदि वे गरीब होंगे तो अल्लाह अपने उदार अनुग्रह से उन्हें समृद्ध कर देगा. अल्लाह बड़ी समाई वाला, सर्वज्ञ है.


    [24:33] Those who cannot afford to get married shall maintain morality until GOD provides for them from His grace. Those among your servants who wish to be freed in order to marry, you shall grant them their wish, once you realize that they are honest. And give them from GOD's money that He has bestowed upon you. You shall not force your girls to commit prostitution, seeking the materials of this world, if they wish to be chaste. If anyone forces them, then GOD, seeing that they are forced, is Forgiver, Merciful.

    [24:33] और जो विवाह का अवसर न पा रहे हों, उन्हें चाहिए कि पाक दामनी अपनाएं रहें, यहाँ तक कि ईश्वर अपने उदार अनुग्रह से उन्हें समर्द्ध कर दे. और जिन लोगो पर तुम्हे स्वामित्व का अधिकार प्राप्त हो उनमे से जो चाहते हैं कि विवाह करने के लिए के लिए मुक्त हो, उनसे विवाह कर लो, यदि मालूम हो कि उनमे भलाई है. और अपनी लौंडियों (महिला गुलामों) को सांसारिक जीवन-सामग्री की चाह में व्यभिचार के लिए बाध्य न करो, जबकि वे पाकदामन रहना भी चाहती हो. और इसके लिए जो कोई उन्हें बाध्य करेगा, तो निश्चय ही ईश्वर उनके लिए बाध्य किये जाने के पश्चात् अत्यंत क्षमाशील, दयावान है.

    [90:13-19]

    किसी गर्दन का छुडाना (अर्थात किसी को गुलामी से, ग़म से या किसी भी संकट से मुक्ति दिलाना.]

    या भूख के दिन खाना खिलाना

    किसी निकटवर्ती अनाथ को,

    या धुल धूसरित मुहताज को;

    फिर यह कि वह उन लोगों में से हो जो इमान लाए और जिन्होंने एक-दुसरे को धैर्य की शिक्षा दी, और एक-दुसरे को दया शिक्षा दी.

    वहीँ लोग सौभाग्यशाली हैं.

    रहें वे लोग जिन्होंने हमारे श्लोको का इंकार किया, वे दुर्भाग्यशाली लोग हैं.


    प्रश्न: कुरान कहता है कि पृथ्वी फ्लैट है?

    उत्तर: कुरान की एक भी आयत यह नहीं कहती है कि पृथ्वी फ्लैट है. कुरान केवल एक कालीन के साथ पृथ्वी की पपड़ी की तुलना करती है. कुछ लोगों को लगता है की कालीन केवल एक निरपेक्ष फ्लैट सतह पर रखा जा सकता हैं. एक कालीन, पृथ्वी के रूप में एक बड़े क्षेत्र पर फैल सकता है. आसानी से एक कालीन के साथ पृथ्वी के एक विशाल मॉडल को ढक कर देखा जा सकता है.

    "He Who has made for you the earth like a carpet spread out; has enabled you to go about therein by roads (and channels)...." The Holy Qur'an, Chapter 20, Verse 53.

    "वही है जिसने तुम्हारे लिए धरती को पलना (बिछौना) बनाया और उसमें तुम्हारे लिए रास्ते निकाले और आकाश से पानी उतरा. फिर हमने उसके द्वारा विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे निकाले.

    कालीन आम तौर पर एक ऐसी सतह पर पर डाला जाता है, जो चलने पर बहुत आरामदायक नहीं होती है. पवित्र कुरान तार्किक इस प्रकार है क्योंकि यह एक कालीन के रूप में पृथ्वी की पपड़ी वर्णन करता है, क्योंकि पृथ्वी के नीचे गर्म तरल पदार्थ हैं, जिसके बिना मनुष्य के लिए प्रतिकूल वातावरण में जीवित रहना सक्षम नहीं होता. यह भूवैज्ञानिकों द्वारा सदियों की खोज के बाद उल्लेख किया गया एक वैज्ञानिक तथ्य है.

    इसी तरह, कुरान के कई श्लोक कहते है कि पृथ्वी को फैलाया गया है.

    "And We have spread out the (spacious) earth: how excellently We do spread out!" The Holy Qur'an, Chapter 51, Verse 48

    और धरती को हमने बिछाया, तो हम क्या ही खूब बिछाने वाले हैं. [51:48]

    "Have We not made the earth as a wide expanse. And the mountains as pegs?" The Holy Qur'an, Chapter 78, Verse 6-7

    क्या ऐसा नहीं है कि हमने धरती को बिछौना बनाया और पहाडो को खूंटे? [78:6-7]

    कुरान के इन श्लोको में से कोई जरा सा भी निहितार्थ नहीं है कि पृथ्वी फ्लैट हैं. यह केवल इंगित करता है कि पृथ्वी विशाल है और पृथ्वी के इस फैलाव वाले स्वाभाव का कारण उल्लेख करते हुए शानदार कुरान कहता हैं:

    "O My servants who believe! truly. spacious is My Earth: therefore serve ye Me –(And Me alone)!" The Holy Qur'an, Chapter 29, Verse 56.

    ऐ मेरे बन्दों, जो ईमान लाए हो! निसंदेह मेरी धरती विशाल है, अत: तुम मेरी ही बंदगी करो. [29:56]

    इसलिए कोई भी यह बहाना नहीं दे सकेगा कि वह परिवेश और परिस्थितियों की वजह से अच्छे कर्म नहीं सका और बुराई करने पर मजबूर हुआ था.


    प्रश्न: अगर आप मूर्ति पूजा के खिलाफ हैं तो काबा क्यों पूजनीय है?

    उत्तर: जहाँ तक बात नमाज़ पढने की है तो मुसलमान का`बा शरीफ की तरफ मुंह करके नमाज़ पढ़ते हैं. यहाँ का`बा शरीफ की अहमियत सिर्फ इसलिए है ताकि पूरी दुनिया एक ही तरफ को मुंह करके पूजा करें, और सभी लोगो में पूजा करते समय एकता हो. इसके अलावा और कुछ भी नहीं.

    एकता बढ़ाने के लिए ही मोहल्ले की मस्जिद में पांच बार नमाज़ पढ़ी जाती है, ताकि लोग पांच बार ईश्वर का धन्यवाद करें और एक-दुसरे से मिल कर हाल-चाल मालूम करें. वहीँ सप्ताह में एक बार अर्थात शुक्रवार के दिन पूरी बस्ती के लोग मिलकर जामा मस्जिद में पूजा-अर्चना करते हैं और एक-दुसरे से मिलते हैं. इसके साथ ही पुरे शहर के लोग पुरे वर्ष में एक बार ईदगाह में एवं पुरे विश्व के लोग का`बा शरीफ में इकट्ठे होते हैं.


    प्रश्न: मान्यवर आपके कुरान के लेखक महोदय धरती पे पहाडो का खूटा क्यों गाड़ना चाहते है? इसका मतलब वो मानते है की धरती पहाडो की वजह से टिकी है. वर्ना डोल रही होती?

    उत्तर: अल्लाह कहता है:
    "Have We not made the earth as a wide expanse. And the mountains as pegs?" The Holy Qur'an, Chapter 78, Verse 6-7
    क्या ऐसा नहीं है कि हमने धरती को बिछौना बनाया और पहाडो को खूंटे? [78:6-7]

    वैज्ञानिक पर्वतों के महत्व को समझाते हुए कहते हैं कि यह पृथ्वी को स्थिर रखने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं:
    'पर्वतों में अंतर्निहित जड़ें होती है. यह जड़ें गहरी मैदान में घुसी हुई होती हैं, अर्थात, पर्वतों का आकार खूंटो अथवा कीलों की तरह होता है. पृथ्वी की पपड़ी 30 से 60 किलोमीटर गहरी है, यह seismograph (स्वचालित रूप से तीव्रता, दिशा रिकॉर्डिंग और जमीन की हलचल की अवधि बताने वाले उपकरण) से ज्ञात होता है. इसके अलावा इस मशीन से यह ज्ञात होता है कि हर एक पर्वत में एक अंतर्निहित जड़ होती है, जो अपनी अंतर्निहित परतों की वजह से पृथ्वी की पपड़ी को स्थिर बनाती है, और पृथ्वी को हिलने से रोकता है. अर्थात, एक कील के समान है, जो लकड़ी के विभिन्न टुकड़ों को एकजुट रखे हुए है.


    Isostacy:
    Mountain masses deflect a pendulum away from the vertical, but not as much as might be expected. In the diagram, the vertical position is shown by (a); if the mountain were simply a load resting on a uniform crust, it ought to be deflected to (c). However because it has a deep of relatively non-dense rocks, the observed deflection is only to (b). Picture courtesy of Building Planet Earth, Cattermole pg. 35

    Please click on below link for diagrams:
    http://www.thekeytoislam.com/en/scientific-explanations/mountains.shtml

    प्रश्न: आप कुरान में लिखी बातो के आगे नहीं सोचते न सोचना चाहते है ,फर्क ये पड़ता है की अगर हर तरफ है तो आपके हिसाब से ईश्वर का स्वरुप गोल खोखली गेंद जैसा होगा क्या आप यही मानते है या आपको इससे भी फर्क नहीं पड़ता?

    उत्तर: मित्र, अगर आप कुरान को विश्वास के साथ पढोगे तो इसके अध्यात्मिक ज्ञान के बाद आपको किसी और अध्यात्म की आवश्यकता ही नहीं रहेगी, क्योंकि यह धरती के हिसाब से सम्पूर्ण ज्ञान है. और ईश्वर का यह सन्देश एक ऐसे स्वरुप में है कि जिसमे कोई बदलाव आ ही नहीं सकता है, क्योंकि आखिरी सन्देश होने के कारण, इसकी ज़िम्मेदारी स्वयं परमेश्वर ने ली है.

    और हर तरफ होने का मतलब खोखली गेंद नहीं है, जैसे कि "ईश्वर तो धरती के कण-कण में है" का मतलब उसका हर कण में मौजूद होना नहीं अपितु हर कण में उसकी शक्ति, उसकी प्रकृति के होने से है. वह तो किसी भी जगह मौजूद होने की आवश्यकता से परे है.

    Say: He is Allah, the One and Only! Allah, the Eternal, Absolute; He begetteth not nor is He begotten. And there is none like unto Him. [112:1-4]

    कहो: "वह अल्लाह यकता है, अल्लाह निरपेक्ष (और सर्वाधार) है, न वह जनिता है और न जन्य (अर्थात न वह किसी का बाप है और न बेटा), और न कोई उसका समकक्ष है.

    सूराह इखलास पवित्र कुरान की एक बहुत ही महत्वपूर्ण है सूराह है क्योंकि यह दिव्य सार की अखंडता (Tawhid) और निरपेक्ष / असीमित प्रकृति की पहचान बताती है. इस अवधारणा को पहले श्लोक (आयत) में प्रस्तुत किया है. दूसरा श्लोक दर्शाता है कि अल्लाह शाश्वत (अर्थात अनन्त / सार्वकालिक / सनातन) है. अर्थात, वह समय और स्थान की सीमा से परे है. तीसरा श्लोक वर्णन करता है कि अल्लाह (एक मां की तरह बच्चे को) जन्म नहीं देता है और न ही उसे किसी ने जन्म दिया है. और आखिरी श्लोक बताता है कि अल्लाह किसी भी तुलना से परे है.

    सूराह इखलास सीधे तौर इस्लाम की पहली घोषणा (shahadah) को समर्थित है:

    "कोई इलाही नहीं है, सिवा अल्लाह के" अर्थात कुछ भी करने की शक्ति ईश्वर के सिवा किसी के पास नहीं है. अग्नि जलाने में, जल डुबाने में, भोजन पेट भरने अर्थात शक्ति देने में, इत्यादि. अर्थात ईश्वर के सिवा हर चीज़ कुछ भी करने में ईश्वर की मोहताज है. पेड़ का एक पत्ता भी बिना उसकी मर्ज़ी के नहीं हिल सकता है. और उसने हर कार्य के सुचारू रूप से चलाने के लिए एक नियम बनाया हुआ है. हालाँकि वह स्वयं, उस नियम को मानते हुए भी उसको मानने के लिए मोहताज नहीं है.

    "ईश्वर किसी भी तुलना से परे है" का मतलब है कि अगर कोई वस्तु ऐसी है जिसकी तुलना किसी और से की जा सकती है, तो वह परमेश्वर नहीं हो सकता है. अर्थात अगर कोई यह कहे कि किसी में, 800 या 8 करोड़ या कोई भी ऐसी संख्या (जिसे गिना जा सकता हो) जितने हाथियों की शक्ति है तो वह ईश्वर हो ही नहीं सकता है. अर्थात वह ऐसा है जिसकी तुलना किसी और से नहीं की जा सकती है.


    प्रश्न: क्या अल्लाह नूर है?
    उत्तर: अल्लाह नूर नहीं है, बल्कि 'नूर' स्वयं अल्लाह की रचना है, कुरान कहता है कि अल्लाह एक अकथनीय वास्तविकता है. मानव भाषा 'ईश्वर' की रचना की पर्याप्त व्याख्या नहीं कर सकती है. इसलिए, कोई मिसाल (उदाहरण) ऐसा नहीं हो सकता है जो अल्लाह की तरह है. हम यह भी जानते हैं कि स्वर्गदूत (फरिश्तें) प्रकाश से बने हैं. इसलिए, निर्माता (अल्लाह) और निर्माण (प्रकाश) एक या एक जैसे ही नहीं हो सकते हैं. वैसे नुर शब्द का प्रयोग कुरान में "घोषित मार्गदर्शन, सच्चा ज्ञान अथवा ईमान" के रूप में भी हुआ है.

    प्रश्न: मुहम्मद ने अपने से इतनी बड़ी उम्र की औरत से विवाह क्यों किया? और फिर इतनी कम उम्र की औरत से विवाह क्यों किया? उनके महल में इतनी अधिक पत्नियाँ क्यों थी?

    उत्तर: ईश्वर के आखिरी संदेशवाहक और परमगुरु श्री मुहम्मद साहेब (उन पर ईश्वर कि तरफ से शांति हो!) को ईश्वर ने अपना सन्देश देकर भेजा था, ताकि सभी मनुष्यों को पता चल सके कि ईश्वर ने किस बात को करने से मना किया है और किस बात को करने की आज्ञा दी है. इसलिए किसी भी मनुष्य के जीवन की हर परिस्थिति के अनुरूप उन्होंने आदेश दिए और जो कार्य विशेष परिस्तिथियों में मनुष्यों को करने में कठिनाई प्रस्तुत होती थी वह कार्य स्वयं उन्होंने करके दिखाए ताकि लोगो को करना आसान लगे.

    उस समय अधिक आयु की महिलाओं से विवाह करना अच्छा नहीं माना जाता था, इसलिए उन्होंने अपने से अधिक आयु की महिला से विवाह किया. और जब तक उनकी मृत्यु नहीं हुई तब तक दूसरी शादी नहीं की.

    आएशा (र.) से विवाह के समय के बारें में कई विरोधाभास हैं, सबसे सटीक आकलनों के हिसाब से विवाह के समय उनकी आयु 18 अथवा 19 वर्ष थी. वैसे भी यह 1500 वर्ष पुरानी बात है और पुराने समय में कम आयु में भी स्त्री के विवाह योग्य होने की सम्भावना है, जैसे कि मैंने पढ़ा है कि माता सीता की आयु भी विवाह के समय 12 अथवा 13 वर्ष थी. आज के आधुनिक युग में भी दक्षिण अफ्रीका एवं अमेरिका के कई देशों में विवाह की आयु विशेष परिस्तिथियों में 12, 13 अथवा 14 वर्ष है.

    पहली बात तो यह कि उनका कोई महल ही नहीं था, वह तो बहुत ही साधारण से कच्चे मकान में रहते थे, और बहुत ही साधारण से वस्त्र धारण करते थे, उनके कुछ वस्त्र तो अभी भी मौजूद हैं.

    उन्होंने 25 वर्ष की आयु में अपने से 15 वर्ष अधिक आयु की महिला हज़रत खदीजा (र.) से विवाह किया और पुरे 25 वर्ष यह विवाह चला. अर्थात जब हज़रत खदीजा (र.) कि मृत्यु हुई तब हज़रत मुहम्मद (स.) की आयु लगभग 50 वर्ष थी, अगर वह शारीरिक तृप्ता के लिए अधिक विवाह करना चाहते तो इतनी अधिक आयु के बाद बाकी के विवाह नहीं करते. उस समय उनको अल्लाह का संदेशवाहक मानने वालो (अर्थात मुसलमानों) की संख्या सवा लाख के आस-पास थी, अगर वह चाहते तो उस समय की सबसे खूबसूरत लड़की से विवाह करते, लेकिन उन्होंने उन्ही महिलाओं से विवाह किया जिनको मदद की आवश्यकता थी और हजरत आएशा (र.) को छोड़कर उनकी सभी पत्निया तलाकशुदा या फिर अधिक आयु की थी.

    उन्होंने कई कारणों से एक से अधिक विवाह किए, सबसे अहम् कारण था अन्य महिलाओं तक उनके जीवन में काम आने वाले नियमों का पहुँचाना. मर्दों तक तो वह स्वयं नियमों को पहुंचा देते थे, एवं स्वयं करके दिखा देते थे. परन्तु महिलाओं तक पहुँचाने के लिए वह अपनी पत्नियों को नियम समझाते थे और फिर वह अन्य महिलाओं को समझाती थी.

    मुहम्मद (स.) के घर में महिलाओं के लिए रोजाना 8-9 धार्मिक सभाएं पुरे दिन उनकी पत्नियों के द्वारा चलाई जाती थी, ताकि सभी नियम लोगो तक पहुँच सकें.

    क्योंकि धार्मिक नियम पहुँचाने का कार्य सबसे आखिर में मुहम्मद (स.) को मिला इसलिए इस कार्य की आवश्यकता अनुसार चार से अधिक विवाह की अनुमति भी उन्ही को मिली. ईश्वर के बनाए हुए धार्मिक नियमों को पुरे विश्व तक पहुचना उन कार्यों में आता है जो सिर्फ ईश्वर के संदेशवाहक ही करते हैं.


    प्रश्न: वन्देमातरम विवाद पर आपका क्या कहना है?

    उत्तर: मित्र! वन्देमातरम गाने भर से कोई देशप्रेमी नहीं होता है और देश के गद्दार वन्देमातरम गाकर देशप्रेमी नहीं बन सकते हैं. बंधू, आप मुसलमानों से क्या चाहते हैं? देश प्रेम या फिर वन्देमातरम?

    देश से प्यार देश की पूजा नहीं हो सकती है, और न ही देश की पूजा-अर्चना का मतलब देश से प्यार हो सकता है. हम अपनी माँ से प्यार करते हैं, परन्तु उस प्रेम को दर्शाने के लिए उनकी पूजा नहीं करते हैं. यह हमारी श्रद्धा नहीं है कि हम ईश्वर के सिवा किसी और को नमन करें, यहाँ तक कि माँ को भी नमन नहीं कर सकते हैं.

    जब कि ईश्वर ने पवित्र कुरान में कहा है कि अगर वह मनुष्यों में से किसी को नमन करने अनुमति की देता तो वह पुत्र के लिए अपनी माँ और पत्नी के लिए अपने पति को नमन करने की अनुमति देता.

    ईश्वर की पूजा ईश्वर के लिए ही विशिष्ट है और ईश्वर के सिवा किसी को भी इस विशिष्टता के साथ साझा नहीं किया जा सकता हैं, न ही अपने शब्दों से और न कामों से.

    राष्ट्रहित और धर्महित दोनों अलग अलग बातें हैं. आप दोनों को एक साथ करके नहीं देख सकते हैं. मेरे लिए दोनों का अपनी अपनी जगह बराबर महत्त्व है. किन्तु अगर (अल्लाह ना करे) दोनों एक-दुसरे के आमने-सामने आजाएं तो मैं धर्म को ही महत्त्व दूंगा, क्योंकि "धर्म" ईश्वर का सत्य मार्ग है, और इस दुनिया में उसी मार्ग पर चलते हुए ईश्वर को प्राप्त करना मेरे जीवन का लक्ष्य है.

    उलेमा अर्थात (इस्लामिक शास्त्री) का कार्य सिर्फ शिक्षण देना भर है. उनको मानना या मानना इंसान की इच्छा है. अगर कोई उलेमा इसलाम की आत्मा के विरूद्व कुछ भी कहता है, तो उसकी बात का पालन करना भी धर्म विरुद्ध है.

    भारत वर्ष को अपना देश मानने के लिए मुझे कोई ज़रूरत नहीं है वन्देमातरम बोलने की. यह मेरा देश है क्योंकि मैं इसको प्रेम करता हूँ, यहाँ पैदा हुआ हूँ, और इसके कण-कण मेरी जीवन की यादें बसी हुई हैं. इसके दुश्मन के दांत खट्टे करने की मुझमे हिम्मत एवं जज्बा है. इसकी कामयाबी के गीत मैं गाता हूँ एवं पुरे तौर पर प्रयास भी करता हूँ. चाहे कोई मुझे गद्दार कहे, या मेरे समुदाय को गद्दार कहे, उससे मुझे कोई फरक नहीं पड़ता. क्योंकि यह मेरा देश है और किसी के कहने भर से कोई इसे मुझसे छीन नहीं सकता है.

    आप बताइए क्यों बोलें हम वन्देमातरम?



    प्रश्न: अगर आप कहते हो वन्दे मातरम में पृथ्वी की या भूमि की पूजा की जाती है, और आप इसे बुत्त्परस्त मानते हो और कुरान में यह मना है, तो फिर आप कब्र की पूजा क्यों करते हो? मक्का की पूजा क्यों करते हो? क्योंकि वह भी तो जड़ वास्तु से बनी है.

    उत्तर: मित्र, बिलकुल अल्लाह ने इसकी इजाज़त नहीं दे रखी है कि कोई कब्र अथवा काबा शरीफ की पूजा करे. ईश्वर के सिवा किसी के भी आगे श्रृद्धा से झुकना शिर्क (अर्थात किसी और को ईश्वर का साथी ठहराना) है. हाँ! बिना श्रृद्धा के झुका जा सकता है, जैसे नाइ के सामने सर झुका कर बाल कटवाते हैं.

    इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर कोई पीर अथवा मजार के सामने सजदा (दंडवत प्रणाम) करता है, तो वह मुसलमान नहीं रहता है. लेकिन इसमें एक बात यह है कि सजदा जब होता है जबकि कोई शरीर के आठ अंगों को धरती से मिलाता है (अर्थात अष्टांग प्रणाम), अगर एक भी अंग नहीं मिला तो सजदा नहीं होता. कुछ इस्लामिक पंडितों के हिसाब से पैरों को चूमना या कब्र को चूमना ठीक है क्योंकि यह सजदा नहीं करते अपितु बोसा (चुम्बन) लेते हैं.

    हालाँकि चुम्बन लेना भी इस्लाम का कोई तरीका नहीं है. और मैं स्वयं भी इसके समर्थन में नहीं हूँ. यह सिर्फ प्रेम को दर्शाने का माध्यम मात्र है. मित्र, प्रेम की तो अजीब ही लीला होती है. शायद आपको पता हो की प्रेमी को तो प्रेमिका की गली का कुत्ता भी पसंद होता है. लेकिन मैं इस बात का कायल हूँ कि प्रेम में भी सीमा होनी चाहिए. क्योंकि सीमा से परे तो सिर्फ ईश्वर ही है.

    और आपसे यह किसने कह दिया कि मुसलमान मक्का अर्थात काबा शरीफ की पूजा करते हैं? मेरे गुरु मुहम्मद (उन पर ईश्वर की शांति हो) ने कहा जिसका मतलब है कि:

    "कैसा प्यारा, इज्ज़त वाला, ऊँचा स्थान रखने वाला है का'बा शरीफ. परन्तु एक इंसान की बे-इज्ज़ती करना का'बा शरीफ की बे-इज्ज़ती करने से भी बड़ा पाप है."

    यहाँ एक मुसलमान अथवा किसी इस्लामिक पंडित की बात नहीं की बल्कि एक साधारण से इंसान (चाहे वह स्वयं ईश्वर को ना मानता हो) की इज्ज़त को का'बा शरीफ की इज्ज़त से भी बड़ा करार दिया मेरे महागुरु और ईश्वर के अंतिम संदेशवाहक हज़रात मुहम्मद (स.) ने.

    जहाँ तक बात नमाज़ पढने की है तो मुसलमान का`बा शरीफ की तरफ मुंह करके नमाज़ पढ़ते हैं. यहाँ का`बा शरीफ की अहमियत सिर्फ इसलिए है ताकि पूरी दुनिया एक ही तरफ को मुंह करके पूजा करें, और सभी लोगो में पूजा करते समय एकता हो. इसके अलावा और कुछ भी नहीं.

    एकता बढ़ाने के लिए ही मोहल्ले की मस्जिद में पांच बार नमाज़ पढ़ी जाती है, ताकि लोग पांच बार ईश्वर का धन्यवाद करें और एक-दुसरे से मिल कर हाल-चाल मालूम करें. वहीँ सप्ताह में एक बार अर्थात शुक्रवार के दिन पूरी बस्ती के लोग मिलकर जामा मस्जिद में पूजा-अर्चना करते हैं और एक-दुसरे से मिलते हैं. इसके साथ ही पुरे शहर के लोग पुरे वर्ष में एक बार ईदगाह में एवं पुरे विश्व के लोग का`बा शरीफ में इकट्ठे होते हैं.


    प्रश्न: आपकी बाते सिर्फ १ बच्चे के समान दिखाती है, मैंने आपके मित्र से कुछ प्रश्न किये थे तब आप कहा थे? चलिए आप ही बता दो बड़े जोरो से धर्म की दुहाई मार रहे हो.

    धर्म किसे कहते है?
    क्या आपका और मेरा धर्म एक ही है, और कैसे?
    धर्म क्या चाहता है?


    उत्तर: आपने बिलकुल सही कहा स्वामी जी, ज्ञान के मामले में मैं केवल एक बच्चा ही हूँ. हाँ अपने ईश्वर के प्रेमी अवश्य हूँ, और यह प्रेम ही मुझे मेरे प्रभु से हमेशा जोड़े रखता है.

    मेरे अनुसार तो मनुष्य को ईश्वर से मिलाने के रास्ते को धर्म कहते हैं. अपनी इच्छाओं को अपने प्रभु के सुपुर्द कर देने वाला मनुष्य ही असल रूप में धार्मिक व्यक्ति होता है.

    मेरा और आपका, अर्थात पुरे विश्व का धर्म एक ही है, और वह है अपने प्रभु को पाने की कोशिश करना, उनके आदेशों का पालन करना. अल्लाह ने कुरआन में कहा जिसका अर्थ है कि यह कोई नया धर्म नहीं है अपितु यह तो वही धर्म है जो पृथ्वी के प्रारंभ से चला आ रहा है."

    फर्क सिर्फ आदेशों का है, ईश्वर अपने संदेशवाहकों के ज़रिये अपना सन्देश मनुष्यों तक पहुंचता है. और अपना आखिरी सन्देश (अर्थात कुरआन) आखिरी संदेशवाहक महागुरु मुहम्मद (स.) के ज़रिये पूरी दुनिया तक पहुँचाया.

    मनुष्य ईश्वर के सत्यमार्ग पर चलता रहे और अंतत: ईश्वर को पा ले, यही धर्म का लक्ष्य होता है.



    प्रश्न: Islam allowed sex with captives????This is taken from authentic Muslim sites. The wise can check out what is wrong here:

    Chapter 22: AL AZL (INCOMPLETE SEXUAL INTERCOURSE): COITUS INTERRUPTUS
    Book 008, Number 3371:

    Abu Sirma said to Abu Sa'id al Khadri (Allah he pleased with him): 0 Abu Sa'id, did you hear Allah's Messenger (may peace be upon him) mentioning al-'azl? He said: Yes, and added: We went out with Allah's Messenger (may peace be upon him) on the expedition to the Bi'l-Mustaliq and took captive some excellent Arab women; and we desired them, for we were suffering from the absence of our wives, (but at the same time) we also desired ransom for them. So we decided to have sexual intercourse with them but by observing 'azl (Withdrawing the male sexual organ before emission of semen to avoid-conception). But we said: We are doing an act whereas Allah's Messenger is amongst us; why not ask him? So we asked Allah's Mes- senger (may peace be upon him), and he said: It does not matter if you do not do it, for every soul that is to be born up to the Day of Resurrection will be born.

    Chapter 29: IT IS PERMISSIBLE TO HAVE SEXUAL INTERCOURSE WITH A CAPTIVE WOMAN AFTER SHE IS PURIFIED (OF MENSES OR DELIVERY) IN CASE SHE HAS A HUSBAND, HER MARRIAGE IS ABROGATED AFTER SHE BECOMES CAPTIVE Book 008, Number 3432: Abu Sa'id al-Khudri (Allah her pleased with him) reported that at the Battle of Hanain Allah's Messenger (may peace be upon him) sent an army to Autas and encountered the enemy and fought with them. Having overcome them and taken them captives, the Companions of Allah's Messenger (may peace te upon him) seemed to refrain from having intercourse with captive women because of their husbands being polytheists. Then Allah, Most High, sent down regarding that:" And women already married, except those whom your right hands possess (iv. 24)" (i. e. they were lawful for them when their 'Idda period came to an end).

    Basically, once captive, after war, everything is halaal as per whims of Prophet!



    उत्तर:
    ऊपर लिखी हुई हदीसों से आपकी यह बात (कि बिना निकाह के हमबिस्तर हुआ जा सकता है) सही साबित नहीं होती है. सिर्फ यह साबित होता है कि ईमान वाली महिला गुलाम हमबिस्तर होने के लिए lawful हैं. अर्थात उनसे निकाह किया जा सकता है.

    कुरान के श्लोक देखिए:

    [33:50] ऐ नबी! हमने तुम्हारे लिए तुम्हारी वे पत्नियाँ वैध कर दी हैं जिनके महर तुम दे चुके हो, और उन स्त्रियों को भी जो तुम्हारी मिलकियत में आई हो, जिन्हें अल्लाह ने गनीमत के रूप में तुम्हे दी और तुम्हारी चाचा की बेटियां और तुम्हारी फुफियों की बेटियां और तुम्हारे मामुओं की बेटियां और तुम्हारी खलाओं की बेटियां जिन्होंने तुम्हारे साथ हिजरत की है और वह ईमान वाली स्त्री जो अपने आपको नबी के लिए दे दे, यदि नबी उससे विवाह करना चाहे.

    [4:24]
    और विवाहिता स्त्रियाँ भी वर्जित हैं, सिवाय उनके जो तुम्हारी लौंडी (महिला गुलाम) हों. यह अल्लाह ने तुम्हारे लिए अनिवार्य कर दिया है. इनके अतिरिक्त शेष स्त्रियाँ तुम्हारे लिए वैध हैं कि तुम अपने माल के द्वारा उन्हें प्राप्त करो उनकी पाकदामनी कि सुरक्षा के लिए, ना कि यह काम स्वछन्द काम-तृप्ति के लिए हो. फिर उनसे दाम्पत्य जीवन का आनंद लो to उसके बदले उनका निश्चित किया हुआ हक़ (महर) अदा करो और यदि हक़ निश्चित हो जाने के पश्चात् तुम आपस में अपनी प्रसन्नता से कोई समझौता कर लो, to इसमें तुम्हारे लिए कोई दोष नहीं है. निसंदेह, अल्लाह सब कुछ जानने वाला, तत्वदर्शी है.

    [4:25]
    और तुममे से जिस किसी कि इतनी सामर्थ्य ना हो कि पाकदामन, सवतंत्र, ईमान वाली स्त्रियों से विवाह कर सके, तो तुम्हारी वे ईमान वाली जवान लौंडिया (महिला गुलाम) ही सही जो तुम्हारे कब्जे में हो. और अल्लाह तुम्हारे ईमान को भली-भांति जानता है. तुम सब आपस में एक ही हो, तो उनके मालिको की अनुमति से तुम उनसे विवाह कर लो और सामान्य नियम के अनुसार उन्हें उनका हक़ भी दो. वे पाक दामनी कि सुरक्षा करने वाली हो, स्वच्छंद काम-तृप्ति न करनेवाली हो और न चोरी-छिपे घरों से प्रेम करने वाली हो. फिर जब वह विवाहिता बना ली जाएं और उसके पश्चात कोई अश्लील कर्म कर बैंठे, तो जो दंड सम्मानित स्त्रियों के लिए है, उसका आधा उनके लिए होगा. यह तुममे से उस व्यक्ति के लिए है, जिसे खराबी में पड़ जाने का भय हो, और यह कि तुम धैर्य से काम लो तो यह तुम्हारे लिए अधिक अच्छा है. निस्संदेह अल्लाह बहुत क्षमाशील, दयावान है.


    प्रश्न: [4:24]
    और विवाहिता स्त्रियाँ भी वर्जित हैं, सिवाय उनके जो तुम्हारी लौंडी (महिला गुलाम) हों. यह अल्लाह ने तुम्हारे लिए अनिवार्य कर दिया है.

    The wise can check out what is wrong here!


    उत्तर:

    इसका अर्थ है कि महिला गुलामों को छोड़ कर अन्य विवाहित स्त्रियाँ वर्जित हैं निकाह के लिए. अर्थात ऐसी ईमान वाली महिला गुलाम जो कि पहले से शादी-शुदा हों, जब वह किसी और की गुलामी में आजाती थी, तो उनसे निकाह करने की इजाज़त थी, क्योंकि स्वामित्व बदल जाने पर निकाह स्वत: ही समाप्त हो जाएगा. इसमें एक बात यह भी है कि अगर ऐसी गुलाम गर्भ से होती हैं तो बच्चे के पैदा होने तक निकाह की इजाज़त नहीं होती है. क्या इसमें कुछ गलत है?

    - शाहनवाज़ सिद्दीकी

    उपरोक्त प्रश्न एवं उत्तर मेरी और कुछ आर्य समाजी भाइयों से हुई वार्तालाप है. अगर कहीं कुछ गलत लिख दिया हो तो क्षमा का प्रार्थी हूँ.

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