तारकेश्वर जी आपने यह बात सही लिखी है की केवल बोल देने से कुछ नहीं होता है, बेशक केवल बोल देने से कुछ नहीं होता है, लेकिन आप केवल बोल देने के लिए ही क्यों "वन्दे मातरम" गंवाना चाहते हैं? बहुत से मुसलमान इसी सोच को ध्यान में रखते हुए वन्दे मातरम बोलते हैं. लेकिन क्या केवल दिखाने के लिए इसे गाना धौखा नहीं है? आप जिसकी पूजा करते हैं, उनकी मैं इज्ज़त करूँ यह बात तो समझ में आती है, लेकिन जिनकी मैं पूजा नहीं करता, केवल अपने मित्रों को दिखाने अथवा महान कहलवाने के लिए दिखावे उनकी पूजा क्या सही कहलाई जा सकती है?
वैसे इस बहाने इस पर चर्चा की जाए तो यह एक अच्छा प्रयास कहा जाएगा. विचारों के आदान प्रदान से ही एक-दुसरे को समझने तथा एक-दुसरे के नजरिया को जानने का मौका मिलता है. मेरा यह विचार है कि किसी भी मुद्दे पर केवल अपनी सोच के हिसाब से धारणा बनाने की जगह जिन्हें ऐतराज़ है उनके नज़रिए से भी मुद्दे को देखना चाहिए. क्योंकि एक ही नज़रिए से देखने से किसी भी मसले का हल मुश्किल होता है.
'वन्दे मातरम' पर जो मुस्लिम समुदाय को जो एतराज़ है, उसमे सबसे पहली बात तो 'वन्दे' अर्थात 'वंदना' शब्द के अर्थ पर है. अक्सर इसका अर्थ 'पूजा' लगाया जाता है और आप सभी को यह पता होगा कि केवल एक ईश्वर की ही पूजा करने का नाम "इस्लाम" है यहाँ तक कि ईश्वर को छोड़ कर किसी और को पूज्य मानने वाला शख्स मुसलमान हो ही नहीं सकता है। इस्लाम के कलिमे "ला-इलाहा इलल्लाह" का मतलब ही यही है कि "नहीं है कोई पूज्य सिवा अल्लाह के"।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि ईश्वर के अलावा किसी और की प्रंशंसा भी नहीं की जा सकती है या प्रेम नहीं किया जा सकता. बेशक किसी भी अच्छी चीज़ की प्रशंसा करना अथवा प्रेम करना किसी भी धर्म में अपराध नहीं होता है. इससे पता चलता है कि मुसलमान धरती माँ की प्रशंसा तो कर सकते हैं, उससे अपार प्रेम तो कर सकते हैं लेकिन पूजा नहीं.
तो क्या किसी को उसके ईश के अलावा किसी और की पूजा करने के लिए बाध्य करना तर्क-सांगत कहलाया जा सकता है?
वैसे एक कटु सत्य यह भी है कि वन्देमातरम गाने भर से कोई देशप्रेमी नहीं होता है और देश के गद्दार वन्देमातरम गाकर देशप्रेमी नहीं बन सकते हैं. बंधू, आप मुसलमानों से क्या चाहते हैं? देश प्रेम या फिर वन्देमातरम? देश से प्यार देश की पूजा नहीं हो सकती है, और न ही देश की पूजा-अर्चना का मतलब देश से प्यार हो सकता है. हम अपनी माँ से प्यार करते हैं, परन्तु उस प्रेम को दर्शाने के लिए उनकी पूजा नहीं करते हैं. यह हमारी श्रद्धा नहीं है कि हम ईश्वर के सिवा किसी और को नमन करें, यहाँ तक कि माँ को भी नमन नहीं कर सकते हैं. जब कि ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा है कि अगर वह मनुष्यों में से किसी को नमन करने की अनुमति देता तो वह पुत्र के लिए अपनी माँ और पत्नी के लिए अपने पति को नमन करने की अनुमति देता. ईश्वर की पूजा ईश्वर के लिए ही विशिष्ट है और ईश्वर के सिवा किसी को भी इस विशिष्टता के साथ साझा नहीं किया जा सकता हैं, न ही अपने शब्दों से और न कामों से.
भारत वर्ष को अपना देश मानने के लिए मुझे कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती है 'वन्देमातरम' जैसे किसी गीत को गाने की. यह मेरा देश है क्योंकि मैं इसको प्रेम करता हूँ, यहाँ पैदा हुआ हूँ, और इसके कण-कण मेरी जीवन की यादें बसी हुई हैं. इसके दुश्मन के दांत खट्टे करने की मुझमे हिम्मत एवं जज्बा है. इसकी कामयाबी के गीत मैं गाता हूँ एवं पुरे तौर पर प्रयास भी करता हूँ. चाहे कोई मुझे गद्दार कहे, या मेरे समुदाय को गद्दार कहे, उससे मुझे कोई फरक नहीं पड़ता. क्योंकि यह मेरा देश है और किसी के कहने भर से कोई इसे मुझसे छीन नहीं सकता है.
रही बात उलेमा अर्थात (इस्लामिक शास्त्री) के द्वारा 'वन्दे मातरम' के खिलाफ फतवे की, तो यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि उलेमाओं का कार्य किसी भी प्रश्न पर इस्लाम के एतबार से सलाह देना है. और जब भी किसी क़ानूनी सलाह देने वाले से सलाह मांगी जाती है तो यह उसका फ़र्ज़ बनता है कि वह जिस परिप्रेक्ष में सलाह मांगी गई है, उसमें सही स्थिति के अनुसार उचित क़ानूनी सलाह दे. कोई भी उलेमा अपनी मर्ज़ी के एतबार से फतवा (अर्थात इस्लामिक कानूनों के हिसाब से सलाह) दे ही नहीं सकता है. और जितनी बार भी किसी मुद्दे पर प्रश्न किया जाता है तो उनका फ़र्ज़ है कि उतनी बार ही वह उक्त मुद्दे पर उचित सलाह (अर्थात फतवा) दें. वैसे उलेमा का कार्य सिर्फ शिक्षण देना भर है. उनको मानना या मानना इंसान की इच्छा है. अगर कोई उलेमा इसलाम की आत्मा के विरूद्व कुछ भी कहता है, तो उसकी बात का पालन करना भी धर्म विरुद्ध है.
वैसे इस बहाने इस पर चर्चा की जाए तो यह एक अच्छा प्रयास कहा जाएगा. विचारों के आदान प्रदान से ही एक-दुसरे को समझने तथा एक-दुसरे के नजरिया को जानने का मौका मिलता है. मेरा यह विचार है कि किसी भी मुद्दे पर केवल अपनी सोच के हिसाब से धारणा बनाने की जगह जिन्हें ऐतराज़ है उनके नज़रिए से भी मुद्दे को देखना चाहिए. क्योंकि एक ही नज़रिए से देखने से किसी भी मसले का हल मुश्किल होता है.
'वन्दे मातरम' पर जो मुस्लिम समुदाय को जो एतराज़ है, उसमे सबसे पहली बात तो 'वन्दे' अर्थात 'वंदना' शब्द के अर्थ पर है. अक्सर इसका अर्थ 'पूजा' लगाया जाता है और आप सभी को यह पता होगा कि केवल एक ईश्वर की ही पूजा करने का नाम "इस्लाम" है यहाँ तक कि ईश्वर को छोड़ कर किसी और को पूज्य मानने वाला शख्स मुसलमान हो ही नहीं सकता है। इस्लाम के कलिमे "ला-इलाहा इलल्लाह" का मतलब ही यही है कि "नहीं है कोई पूज्य सिवा अल्लाह के"।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि ईश्वर के अलावा किसी और की प्रंशंसा भी नहीं की जा सकती है या प्रेम नहीं किया जा सकता. बेशक किसी भी अच्छी चीज़ की प्रशंसा करना अथवा प्रेम करना किसी भी धर्म में अपराध नहीं होता है. इससे पता चलता है कि मुसलमान धरती माँ की प्रशंसा तो कर सकते हैं, उससे अपार प्रेम तो कर सकते हैं लेकिन पूजा नहीं.
तो क्या किसी को उसके ईश के अलावा किसी और की पूजा करने के लिए बाध्य करना तर्क-सांगत कहलाया जा सकता है?
वैसे एक कटु सत्य यह भी है कि वन्देमातरम गाने भर से कोई देशप्रेमी नहीं होता है और देश के गद्दार वन्देमातरम गाकर देशप्रेमी नहीं बन सकते हैं. बंधू, आप मुसलमानों से क्या चाहते हैं? देश प्रेम या फिर वन्देमातरम? देश से प्यार देश की पूजा नहीं हो सकती है, और न ही देश की पूजा-अर्चना का मतलब देश से प्यार हो सकता है. हम अपनी माँ से प्यार करते हैं, परन्तु उस प्रेम को दर्शाने के लिए उनकी पूजा नहीं करते हैं. यह हमारी श्रद्धा नहीं है कि हम ईश्वर के सिवा किसी और को नमन करें, यहाँ तक कि माँ को भी नमन नहीं कर सकते हैं. जब कि ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा है कि अगर वह मनुष्यों में से किसी को नमन करने की अनुमति देता तो वह पुत्र के लिए अपनी माँ और पत्नी के लिए अपने पति को नमन करने की अनुमति देता. ईश्वर की पूजा ईश्वर के लिए ही विशिष्ट है और ईश्वर के सिवा किसी को भी इस विशिष्टता के साथ साझा नहीं किया जा सकता हैं, न ही अपने शब्दों से और न कामों से.
भारत वर्ष को अपना देश मानने के लिए मुझे कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती है 'वन्देमातरम' जैसे किसी गीत को गाने की. यह मेरा देश है क्योंकि मैं इसको प्रेम करता हूँ, यहाँ पैदा हुआ हूँ, और इसके कण-कण मेरी जीवन की यादें बसी हुई हैं. इसके दुश्मन के दांत खट्टे करने की मुझमे हिम्मत एवं जज्बा है. इसकी कामयाबी के गीत मैं गाता हूँ एवं पुरे तौर पर प्रयास भी करता हूँ. चाहे कोई मुझे गद्दार कहे, या मेरे समुदाय को गद्दार कहे, उससे मुझे कोई फरक नहीं पड़ता. क्योंकि यह मेरा देश है और किसी के कहने भर से कोई इसे मुझसे छीन नहीं सकता है.
रही बात उलेमा अर्थात (इस्लामिक शास्त्री) के द्वारा 'वन्दे मातरम' के खिलाफ फतवे की, तो यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि उलेमाओं का कार्य किसी भी प्रश्न पर इस्लाम के एतबार से सलाह देना है. और जब भी किसी क़ानूनी सलाह देने वाले से सलाह मांगी जाती है तो यह उसका फ़र्ज़ बनता है कि वह जिस परिप्रेक्ष में सलाह मांगी गई है, उसमें सही स्थिति के अनुसार उचित क़ानूनी सलाह दे. कोई भी उलेमा अपनी मर्ज़ी के एतबार से फतवा (अर्थात इस्लामिक कानूनों के हिसाब से सलाह) दे ही नहीं सकता है. और जितनी बार भी किसी मुद्दे पर प्रश्न किया जाता है तो उनका फ़र्ज़ है कि उतनी बार ही वह उक्त मुद्दे पर उचित सलाह (अर्थात फतवा) दें. वैसे उलेमा का कार्य सिर्फ शिक्षण देना भर है. उनको मानना या मानना इंसान की इच्छा है. अगर कोई उलेमा इसलाम की आत्मा के विरूद्व कुछ भी कहता है, तो उसकी बात का पालन करना भी धर्म विरुद्ध है.
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मुसलमान भाई अगर वन्देमातरम गा देंगे तो क्या फर्क पड़ जायेगा ?- तारकेश्वर गिरी
28 comments:
कौन शक करता है भाई कि आप देशभक्त नहीं हो.
क्या आप तिरंगे को सलाम करते हो? करते हो तो मत करना. क्योंकि केवल इससे कोई देशभक्त नहीं हो जाता. देशद्रोही भी सलाम करते है.
क्या आप जन-गण-गाते हुए खड़े होते हो? होते हो तो अब मत होना. क्योंकि केवल इससे कोई देशभक्त नहीं हो जाता. देशद्रोही भी खड़े होने का नाटक करते है.
गिरि जी को हमारा सलाम कहना
badhiya baat kahi
कहो 'वन्दे ईश्वरम'
'वन्दे ईश्वरम' अर्थात हम उसकी वन्दना करते हैं जिसने सारी सृष्टि को बनाया, हिन्दुस्तान बनाया सारा जहां बनाया
ऐसी बात नहीं है सोच समझ कर बात किया करें
@ संजय बेंगाणी
संजय जी, आपने अच्छा पक्ष उठाया है, लेकिन एक बात आप भूल गए कि तिरंगे को सलाम करने अथवा राष्ट्रिय गान गाते समय खड़े होने में और धरती माँ की वंदना करने में बहुत फर्क है.
चाहे बात तिरंगे को सलाम करने की हो अथवा राष्ट्रिय गान को गाने की, दोनों में प्रमुख बात है सम्मान. और सम्मान को तो कोई मन कर ही नहीं सकता है. जो उक्त दोनों बातों का सम्मान ही न करे वह भला कैसे किसी देश का नागरिक हो सकता है????
आपसे अनुरोध है कि एक बार अवश्य मेरा पूरा लेख पढ़िए.....
Mosque Breakers become Mosque Makers – II
http://indiannewmuslims.blogspot.com/2010/03/mosque-breakers-become-mosque-makers-ii.html
@ muk
थोडा खुल कर बता देते कि क्या सोच समझ कर बात करें? यह इशारों में बात क्यों कर रहे हो मित्र?
मेरे प्रिय शाहनवाज जी और बाकि ब्लोगेर साथी.
मैंने दोनों बाते कंही हैं की गीत गाने से न ही कोई देश भक्त होगा और ना गाने से ना ही कोई देश द्रोही. मेरा मतलब तो देश के उस सम्मान से है जिसके सम्मान के लिए ये गीत गया जाता है. पूरी दुनिया मैं हिंदुस्तान ही एक ऐसा देश है , जिसके निवासी उस देश को भारत माता या धरती माँ कहते हैं. जिस मिटटी मैं जन्म लिया उसे माँ कहते हैं, उस माँ के रूप उसकी पूजा, उसकी वंदना या उसका गुणगान करते हैं.
ये भारत की संस्कृति है. की पेड़ो, नदियों, झरनों, पहाड़ो की पूजा या इज्जत करता है, या ये कहले की प्रकीर्ति की पूजा करता है, या इज्जत करता है. और वन्दे मातरम मैं भी येही नज़र आता है की ये गीत पूरी तरह से भारतीय संस्कृति की झलक दिखता है. भारतीय संस्कार का आइना दिखता है ये गीत.
भारत एक विशाल देश है, और छोटे - बड़े बहुत से समाज. हर समाज का अलग - अलग रूप.
इस्लाम सिर्फ एक इश्वर की पूजा की अनुमति देता है. मैं खुद सहमत हूँ इस बात से, कंही ना कंही हमारे धर्म ग्रंथो मैं भी एक इश्वर की बात मिलती है, लेकिन एक इश्वर वाद के चक्कर मैं ऐसा तो नहीं ना की हम बाकि लोगो को कोई इज्जत नहीं देंगे. इश्वर एक है ये सिर्फ इस्लाम ही नहीं अपितु सारे धर्म येही कहते हैं. लेकिन कंही न कंही बहु पूजा पद्धति इस्लाम मैं भी है. जैसे की अजमेर शरीफ , कलियर शरीफ, हज़रात निजामुद्दीन जैसी पवित्र जगहों पर जा करके सर झुकाना. बल्कि इन जगहों पर इस्लाम की एक अलग ही दुनिया दिखती है. जंहा पर हिन्दू हो मुस्लमान सब एक साथ एक मंच पर खड़े होते हैं और पूजा करते हैं या कह ले की इबादत करते हैं.
मेरे प्रिय शाहनवाज जी और बाकि ब्लोगेर साथी.
मैंने दोनों बाते कंही हैं की गीत गाने से न ही कोई देश भक्त होगा और ना गाने से ना ही कोई देश द्रोही. मेरा मतलब तो देश के उस सम्मान से है जिसके सम्मान के लिए ये गीत गया जाता है. पूरी दुनिया मैं हिंदुस्तान ही एक ऐसा देश है , जिसके निवासी उस देश को भारत माता या धरती माँ कहते हैं. जिस मिटटी मैं जन्म लिया उसे माँ कहते हैं, उस माँ के रूप उसकी पूजा, उसकी वंदना या उसका गुणगान करते हैं.
ये भारत की संस्कृति है. की पेड़ो, नदियों, झरनों, पहाड़ो की पूजा या इज्जत करता है, या ये कहले की प्रकीर्ति की पूजा करता है, या इज्जत करता है. और वन्दे मातरम मैं भी येही नज़र आता है की ये गीत पूरी तरह से भारतीय संस्कृति की झलक दिखता है. भारतीय संस्कार का आइना दिखता है ये गीत.
भारत एक विशाल देश है, और छोटे - बड़े बहुत से समाज. हर समाज का अलग - अलग रूप.
इस्लाम सिर्फ एक इश्वर की पूजा की अनुमति देता है. मैं खुद सहमत हूँ इस बात से, कंही ना कंही हमारे धर्म ग्रंथो मैं भी एक इश्वर की बात मिलती है, लेकिन एक इश्वर वाद के चक्कर मैं ऐसा तो नहीं ना की हम बाकि लोगो को कोई इज्जत नहीं देंगे. इश्वर एक है ये सिर्फ इस्लाम ही नहीं अपितु सारे धर्म येही कहते हैं. लेकिन कंही न कंही बहु पूजा पद्धति इस्लाम मैं भी है. जैसे की अजमेर शरीफ , कलियर शरीफ, हज़रात निजामुद्दीन जैसी पवित्र जगहों पर जा करके सर झुकाना. बल्कि इन जगहों पर इस्लाम की एक अलग ही दुनिया दिखती है. जंहा पर हिन्दू हो मुस्लमान सब एक साथ एक मंच पर खड़े होते हैं और पूजा करते हैं या कह ले की इबादत करते हैं.
अच्छी पोस्ट
तारकेश्वर जी,
मैं आपके "देश को सम्मान देने" के तर्क से पूरी तरह सहमत हूँ. जिसने अपने देश का ही सम्मान नहीं किया वह भला किसी और चीज़ का क्या सम्मान करेगा! मगर मित्र, सम्मान और पूजा में फर्क होता है, होता है या नहीं?
रही बात किसी भी दरगाह पर जा कर सर झुकाने की, तो इस्लाम का मतलब है केवल और केवल ईश्वर को अपना ईश मानकर उसके आगे सर झुकाना, उसी को पालनहार मानना और उसके सिवा हर एक को अपना पालनहार मानने से इनकार करना. वैसे इस्लाम का मतलब किसी धर्म विशेष से नहीं है, बल्कि "ईश्वर को सम्पूर्ण समर्पण करने से है". और जो भी ईश्वर के प्रति सम्पूर्ण समर्पित हो, उसकी इच्छा के अनुसार ही जीवन के हर पल को गुजारता हो वह इस्लाम का मानने वाला है, चाहे आप हो अथवा मैं.
'वन्दे मातरम' पर जो मुस्लिम समुदाय को एतराज़ है, उसमे सबसे पहली बात तो 'वन्दे' अर्थात 'वंदना' शब्द के अर्थ पर है. अक्सर इसका अर्थ 'पूजा' लगाया जाता है और आप सभी को यह पता होगा कि केवल एक ईश्वर की ही पूजा करने का नाम "इस्लाम" है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि ईश्वर के अलावा किसी और की प्रंशंसा भी नहीं की जा सकती है. बेशक किसी भी अच्छी चीज़ की प्रशंसा करना किसी भी धर्म में अपराध नहीं होता है. इससे पता चलता है कि मुसलमान धरती माँ की प्रशंसा तो कर सकते हैं लेकिन पूजा नहीं.
चाहे कोई मुझे गद्दार कहे, या मेरे समुदाय को गद्दार कहे, उससे मुझे कोई फरक नहीं पड़ता. क्योंकि यह मेरा देश है और किसी के कहने भर से कोई इसे मुझसे छीन नहीं सकता है.
गीत गाने से न ही कोई देश भक्त होगा और ना गाने से ना ही कोई देश द्रोही.
salam to giri sahab !!
आप मुसलमानों से क्या चाहते हैं? देश प्रेम या फिर वन्देमातरम? देश से प्यार देश की पूजा नहीं हो सकती है, और न ही देश की पूजा-अर्चना का मतलब देश से प्यार हो सकता है. हम अपनी माँ से प्यार करते हैं, परन्तु उस प्रेम को दर्शाने के लिए उनकी पूजा नहीं करते हैं. यह हमारी श्रद्धा नहीं है कि हम ईश्वर के सिवा किसी और को नमन करें, यहाँ तक कि माँ को भी नमन नहीं कर सकते हैं. जब कि ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा है कि अगर वह मनुष्यों में से किसी को नमन करने की अनुमति देता तो वह पुत्र के लिए अपनी माँ और पत्नी के लिए अपने पति को नमन करने की अनुमति देता. ईश्वर की पूजा ईश्वर के लिए ही विशिष्ट है और ईश्वर के सिवा किसी को भी इस विशिष्टता के साथ साझा नहीं किया जा सकता हैं, न ही अपने शब्दों से और न कामों से.
अच्छी बहस के लिए शुक्रिया.
सहसपुरिया जी, आप अपनी ही बात पर सहमती नहीं बना पा रहे हैं. एक तरफ तो कह रहें हैं की ( की जब कि ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा है कि अगर वह मनुष्यों में से किसी को नमन करने की अनुमति देता तो वह पुत्र के लिए अपनी माँ और पत्नी के लिए अपने पति को नमन करने की अनुमति देता.) लेकिन दूसरी तरफ खुदी कह रहे हैं की (हम अपनी माँ से प्यार करते हैं, परन्तु उस प्रेम को दर्शाने के लिए उनकी पूजा नहीं करते हैं. यह हमारी श्रद्धा नहीं है कि हम ईश्वर के सिवा किसी और को नमन करें, यहाँ तक कि माँ को भी नमन नहीं कर सकते हैं.)
येही तो समस्या है आप जैसे अरबियन सोच रखने वालो की. जो की माँ को भी नमन नहीं करते हैं. और येही वजह है आप की कि आप वन्दे मातरम का बिना सोचे समझे विरोध करते हैं.
shahnawaz ji aap ne bahut accha likha
अच्छी बहस
Sanjay ji ke comment se sahamt hun, jis desh me rahte ho use gali do aur kah do jaroori nahi ki mai eska gungan karun tabhi desbhakt kahlaun, app ne kuch aisa hee kahne ki koshish ki hai, Bhai gaddaro ki boli na boliye, agar vande matarm kahna jaroori nahi to virodh bhi kyun??
गिरी जी आपकी हमेशा यही यही समस्या रही है आप पढ़ें बगेर ही कमेंट करते हैं . पहली बात तो ये कमेंट शाहनवाज़ भाई के ARTICLE से ही QUOTE किया था.
दूसरी बात ये इस में आपके सवाल का जवाब है. आप से अनुरोध है की आप इक बार दुबारा सब पर नज़र डालें .
क्या मैं हस्तक्षेप कर सकता हूँ ?
हालाँकि मैं गाने-गवाने के इस विवाद-प्रहसन का विरोध करता रहा हूँ, किन्तु आपने लिखा है " 'वन्दे मातरम' पर जो मुस्लिम समुदाय को एतराज़ है, उसमे सबसे पहली बात तो 'वन्दे' अर्थात 'वंदना' शब्द के अर्थ पर है " उस पर इस तुच्छ के दिमाग में एक प्रश्न उठ रहा है..
फिर नमस्ते को आप किस रूप में लेंगे.. मूलतः यह नमोः अस्ति का अपभ्रँश है !
साथ ही यह भी गौरतलब है कि हज़रत रसूल मुहम्मद सल्ल० ने सूरा 2 अल-बक़रा के 29वें आयत में फ़रमाया है कि..
" .. तो क्या तुम किताब के एक अँश पर ईमान लाते हो और दूसरे अँश का इन्कार करते हो ? फिर तुममें से जो लोग ऎसा करें, उसका दँड इसके सिवा और क्या है कि साँसारिक जीवन में भी अपमानित तिरस्कृत होकर रहें और आख़िरत ( परलोक ) में तीव्र यातना की ओर फेर दिये जायें ? अल्लाह उन कामों से बेख़बर नहीं है जो तुम कर रहे हो - अतः न इनके दण्ड में कोई कमी होगी न इन्हें कोई सहायता पहुँच सकेगी ।"
दूसरे अँश का जिक़रा वतनपरस्ती के मुत्तलिक है, टिप्पणी बक्से की सीमाओं को ध्यान में रखते हुये उस आयत की तरज़ुमानी न दी गयी है, जो कि अनेक सँदर्भों को समेट कर एक तकरीर की शक्ल ले लेती है ।
''मुसलमानों पर वन्देमातरम गीत थोपना अपराध ''
इसके साथ ही यह बात समझना भी आवश्यक है कि इबादत हुकुम मानने को कहते हैं न कि सर झुकाने को लिहाजा जब यह कहा जाता है कि केवल अल्लाह ही की इबादत करो तो इसका सीधा सा अर्थ होता है कि सिर्फ़ अल्लाह ही का हुकुम मानो। अब चूंकि अल्लाह ने अपने अलावा किसी के आगे सर झुकाने की इजाज़त नहीं दी इसलिए वन्देमातरम कहकर इसके खि़लाफ़ अमल करके गुनाहगार नहीं बना जा सकता। इस चर्चा का निष्कर्ष यह निकला कि अल्लाह ने चूंकि देश से ग़द्दारी की भी छूट नहीं दी है लिहाज़ा वन्देमातरम न कहते हुए देश के प्रति वफ़ादार रहना तो अल्लाह के हुकुम के मुताबिक़ हर मुसलमान की मजबूरी है।
http://haqnama.blogspot.com/2010/07/vandematram-sharif-khan.html
Tarkeshwar Giri ji!
इस्लाम में शराब का पीना नाजाइज़ है तो हर हाल में नाजाइज़ ही रहेगा चाहे सारे मुसलमान शराब पीने लगें इसी प्रकार से अल्लाह के अलावा किसी के आगे सर झुकाना नाजाइज़ है तो वह नाजाइज़ ही रहेगा चाहे सारे मुसलमान दरगाहों पर, किसी झंडे को या मातृभूमि के आगे सर झुकाने लगें
एक मुसलमान तभी तक मुसलमान है जब तक वह अल्लाह के अलावा किसी और की इबादत नहीं करता चाहे मां(जननी) हो, वतन हो, पवित्र किताब हो या फिर कुछ और हो। जहां तक मातृभूमि की पूजा का सवाल है, तो इस बारे में केवल इतना ही कहना काफ़ी है कि पूजा तो अपनी मां की भी नहीं की जा सकती जो हमारी वास्तविक जननी है। सम्मान में सर्वोच्च स्थान मां का अवश्य है परन्तु पूजनीय नहीं है। अतः मुसलमानों पर उनकी की आस्था और विश्वास के खिलाफ़ वन्दे मातरम् गीत को थोपकर क्या हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को चोट नहीं पहुंचाई जा रही है ? अतः देश के बुद्धिजीवी वर्ग से हमारी अपील है कि वह संविधान का अध्ययन करके देखे कि वन्दे मातरम् गीत को थोपकर मुसलमानों को इस्लाम धर्म की मूल भावना के विरुद्ध कार्य करने के लिये मजबूर करना क्या संविधान के अनुसार अपराधिक कार्य है ? और यदि संविधान इसको अपराधिक कार्य मानता हो तो ऐसे लोगों के खिलाफ़ कानूनी कार्यवाही करके देश में पनप रहे नफरत के माहौल से देश को बचाने में योगदान करें।
इस से सम्बंधित लेख देखें मेरे ब्लॉग हक़नामा पर
http://haqnama.blogspot.com/2010/07/vandematram-sharif-khan.html
शहनवाज भाई तो पाकिस्तान का राष्टिीय गान बजने पर वहां लोग खडे क्यो हो जाते है अगर ईशवर की बनाई चीजो से प्यार नही है तो अल्लाह से कैस मोहब्बत करोगे
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